शृंखला की कड़ियाँ -महादेवी वर्मा: Difference between revisions

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Revision as of 06:21, 30 April 2013

शृंखला की कड़ियाँ -महादेवी वर्मा
लेखक महादेवी वर्मा
मूल शीर्षक श्रृंखला की कड़ियाँ
प्रकाशक राधा कृष्ण प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 1942 (पहला संस्करण)
देश भारत
पृष्ठ: 103
भाषा हिंदी
शैली निबंध
मुखपृष्ठ रचना सजिल्द

शृंखला की कड़ियाँ महादेवी वर्मा के समस्या मूलक निबंधों का संग्रह है। स्त्री-विमर्श इनमें प्रमुख हैं। डॉ. हृदय नारायण उपाध्याय के शब्दों में, "आज स्त्री-विमर्श की चर्चा हर ओर सुनाई पड़ रही है। महादेवी वर्मा ने इसके लिए पृष्ठभूमि बहुत पहले तैयार कर दी थी। सन्‌ 1942 में प्रकाशित उनकी कृति श्रृंखला की कड़ियाँ सही अर्थों में स्त्री-विमर्श की प्रस्तावना है जिसमें तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों में नारी की दशा, दिशा एवं संघर्षों पर महादेवी वर्मा ने अपनी लेखनी चलायी है।"

विषयवस्तु

इसमें ऐसे निबंध संकलित किये गये हैं जिनमें भारतीय नारी की विषम परिस्थिति को अनेक दृष्टि-बिन्दुओं से देखने का प्रयास किया गया है। 'श्रृंखला की कड़ियाँ' महादेवी वर्मा के चुने हुए निबंधों का महत्त्वपूर्ण संकलन है।

  • 'श्रृंखला की कड़ियाँ' में उनके नारी विषयक सामान्य निबन्ध हैं। नारी विमर्श, नारी मुक्ति, नारी सशक्तिकरण, नारीवाद की बात अकसर ग्रिम बहनों, जॉन स्टुअर्ड मिल, सीमोन द बउआ, जर्मेन ग्रियर से जोड़ी जाती है। सच्चाई यह है कि जिस समय सीमोन द बउआ फ्रांस में अपनी पुस्तक ‘द सेकेण्ड सेक्स’ लिख रही थी, उन्हीं दिनों महादेवी वर्मा भारत में ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ को आकार दे रही थी।
  • महादेवी के पाँच आलेख सीधे नारी विमर्श से जुड़ते है- 'युद्ध और नारी', 'नारीत्व का अभिशाप', 'आधुनिक नारी', 'स्त्री के अर्थ स्वातन्त्र्य का प्रश्न', 'नए दशक में महिलाओं का स्थान'। प्रथम चार ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ से और पाँचवाँ ‘संभाषण’ से है।
  • 'युद्ध और नारी' नामक लेख में उन्होंने युद्ध स्त्री और पुरुष के मनोविज्ञान पर गंभीर, वैश्विक और मौलिक चिंतन व्यक्त किया है। ‘युद्ध और नारी’ में महादेवी वैश्विक फलक पर बात शुरू करती है। युद्ध के मूल में पुरुष में छिपा हिंसक जन्तु एवं बबर्रता मानती हुई; तथ्यों को मनोवैज्ञानिक आधार देती कहती हैं -

"इन पवित्र गृहों की नींव स्त्री की बुद्धि पर रखी गई है, पुरुष की शक्ति पर नहीं।... अपनी सहज बुद्धि के कारण ही स्त्री ने पुरुष के साथ अपना संघर्ष नहीं होने दिया। यदि होने दिया होता तो आज मानव जाति की कहानी ही दूसरी होती।"

वे मानती हैं कि स्त्री शारीरिक और मानसिक दृष्टि से ही युद्ध के उपयुक्त नहीं है। युद्ध उसके विकास में बाधक रहा है। युद्ध ने ही द्रौपदी को न महिमामय जननी बनने दिया, न गौरवान्वित पत्नी। पुरुष और स्त्री के स्वभाव में कुछ मूलभूत अंतर हैं। स्त्री के स्वभाव और गृह के आकर्षण ने पुरुष को युद्ध से कुछ विरत भले ही किया हो, लेकिन युद्ध, कर्म और संघर्ष उसकी मूल वृति है, उसके लिए गर्व के कारण है। इसी नशे में उसने स्त्री को दुर्बल घोषित कर दिया और इस चुनौती को स्वीकार करते स्त्री भी पुरुष का ही दूसरा रूप बनने का संकल्प कर लिया। यानि अनजाने में पुरुष ने स्त्रियों की एक ऐसी सेना तैयार कर ली है, जो पाश्विक पुरुषीय बल में विश्वास रखती है, जो समय आने पर उसके हाथों से अस्त्र लेकर संहारक की भूमिका भी अदा कर सकती हैं। पुरुष मनोविज्ञान पर आगे लिखती हैं -

"यदि स्त्री पग-पग पर अपने आँसुओं से उसका मार्ग गीला करती चले, तो यह पुरुष के साहस का उपहास होगा, यदि वह पल-पल उसे कर्त्तव्य -अकर्त्तव्य सुझाया करे तो यह उसकी बुद्धि को चुनौती होगी, और यदि वह उसका साहचर्य छोड़ दे तो यह उसके जीवन की रुक्षता के लिए दुर्वह होगा।"

इतना स्पष्ट है कि 'स्त्री और गृह' पुरुष के जीवन की आवश्यकताओं में से एक है, जबकि 'पुरुष और गृह' स्त्री का जीवन हैं।

  • इसी प्रकार नारीत्व और अभिशाप’ में वे पौराणिक प्रसंगों का विवरण देते हुए आधुनिक नारी के शक्तिहीन होने के कारणों की विवेचना करती हैं। ‘नारीत्व और अभिशाप’ में महादेवी दो पौराणिक प्रसंग देती हैं। न माता का वध करते हुए परशुराम का हृदय पिघला और न सीता को धरती में समाहित होते देख राम का हृदय विदीर्ण हुआ। पुरुष युगों से नारी के हर त्याग को अपना अधिकार और उसके हर बलिदान को उसकी दुर्बलता मानता आया है। स्त्री की हतसंज्ञता के पार्श्व में उसका सदियों से चला आ रहा शोषण ही है।

"हम जब बहुत समय तक अपने किसी अंग से उसकी शक्ति से अधिक कार्य लेते रहते हैं तो वह शिथिल और संज्ञाहीन सा हुए बिना नहीं रहता। नारी जाति भी समाज को अपनी शक्ति से अधिक देकर अपनी सहनशक्ति से अधिक त्याग स्वीकार करके संज्ञाहीन सी हो गई है।"

घर और समाज दोनों ही स्थलों पर उसकी हालात करुण है। न उसे मायके में स्नेह और अधिकार मिलते है न ससुराल में। स्त्री की गुणहीन या सर्वगुण सम्पन्न होना दोनों ही स्थितियाँ पुरुष को स्वीकार्य नहीं हैं। यदि वह अति आकर्षक है तो पुरुष उसे रंगीन खिलौने की तरह समझेगा और यदि कुरूप है तो उपेक्षा की वस्तु बन जाएगी- दोनों ही स्थितियाँ अपमानजनक हैं। स्त्री अगर सीधी सादी है तो उसे इस दोष के कारण और यदि पति से इक्कीस है तो दोषों के अभाव के कारण पति की अप्रसन्नता झेलनी ही पड़ती है। उसकी 'किसी, क्यों' का उत्तर देने के लिए न पति बाध्य है, न समाज बाध्य है, न धर्म बाध्य है। चाहे वह स्वर्ण पिंजर की बंदिनी हो, चाहे लौह पिंजर की, परन्तु बन्दिनी तो वह है ही और ऐसी कि जिसके निकट स्वतन्त्रता का विचार तक पाप माना जाता है।[1]

पुस्तकांश

‘‘भारतीय नारी जिस दिन अपने सम्पूर्ण प्राण-प्रवेग से जाग सके, उस दिन उसकी गति रोकना किसी के लिए सम्भव नहीं। उसके अधिकारों के सम्बन्ध में यह सत्य है कि वे भिक्षावृत्ति से न मिले हैं, न मिलेंगे, क्योंकि उनकी स्थिति आदान-प्रदान योग्य वस्तुओं से भिन्न है। समाज में व्यक्ति का सहयोग और विकास की दिशा में उसका उपयोग ही उसके अधिकार निश्चित करता रहता है। किन्तु अधिकार के इच्छुक व्यक्ति को अधिकारी भी होना चाहिए। सामान्यतः भारतीय नारी में इसी विशेषता का अभाव मिलेगा। कहीं उसमें साधारण दयनीयता और कहीं असाधारण विद्रोह है, परंतु संतुलन से उसका जीवन परिचित नहीं।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गद्यकार महादेवी वर्मा और नारी विमर्श (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 1 अप्रैल, 2013।
  2. शृंखला की कड़ियाँ (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 31 मार्च, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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