अट्टालक: Difference between revisions

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Latest revision as of 10:31, 8 January 2020

अट्टालक (टॉवर, मीनार) ऐसी संरचना को कहते हैं जिसकी ऊँचाई उसकी लंबाई तथा चौड़ाई के अनुपात में कई गुनी हो, अर्थात्‌ ऊँचाई ही उसकी विशेषता हो। प्राचीन काल में अट्टालकों का निर्माण नगर अथवा गढ़ को सुरक्षा के विचार से किया जाता था, जहाँ से प्रहरी आते हुए शत्रु को दूर से ही देख सकता था। अट्टालकों का निर्माण वास्तुकला की भव्यता तथा प्रदर्शन के विचार से भी किया जाता था। अत इस प्रकार के अट्टालक अधिकतर मंदिरों तथा महलों के मुखद्वार पर बनाए जाते थे। मुखद्वार पर बने अट्टालक गोपुर कहे जाते हैं। मैसोपोटेमिया में ईसा से 2,770 वर्ष पूर्व सैनिक आवश्यकताओं के लिए अट्टालकों के निर्माण के चिन्ह मिलते हैं। मिस्र में भी ऐसे अट्टालकों का आभास मिलता है, परंतु ग्रीस में इसका प्रचलन बहुत कम था। इसके विपरीत रोम में अट्टालकों का निर्माण प्रचुर मात्रा में किया जाता था, जैसा पौंपेई, औरेलियन तथा कुस्तुनतुनिया के ध्वस्त अवशेषों से पता चलता है.भारतवर्ष में भी अट्टालकों का प्रचलन प्राचीन काल से था। गुप्तकालीन मंदिरों के ऊँचे-ऊँचे शिखर एक प्रकार के अट्टालक ही हैं। देवगढ़ के दशावतार मंदिर का शिखर 40 फुट ऊँचा है। नरसिंह गुप्त बालादित्य ने नालंदा में एक बड़ा विशाल तथा सुंदर मंदिर बनवाया जो 300 फुट ऊँचा था।

चीन में भी ईटं अथवा पत्थर के ऊँचे-ऊँचे अट्टालक नगर सीमा के द्वारों पर शोभा तथा सौंदर्य के लिए बनाए जाते थे, जैसे चीन की बृहद् भित्ति (ग्रेट वाल ऑव चाइना) पर अब भी स्थित हैं। इसके अतिरिक्त वहाँ के अट्टालक पैगोडा के रूप में भी बनते थे। गॉथिक काल में जो अट्टालक या मीनारें बनीं वे पहले से भिन्न थीं। पुराने अट्टालकों में एक छोटा-सा द्वार होता था और वे कई मंजिल के बनते थे। इनमें छोटी-छोटी खिड़कियाँ लंबी कर दी गई और साथ में कोने पर के पुश्ते (बटरेस वाल्स) भी खूब ऊँचे अथवा लंबे बनाए जाने लगे, जिनमें छोटे-छोटे बहुत से खसके डाल दिए जाते थे। अधिकांश अट्टालकों के ऊपर नुकीले शिखर रखे जाते थे, पर कुछ में ऊपर की छत चिपटी ही रखी जाती थी तथा कुछ का आकार अठपहला भी रख दिया जाता था। इंग्लैंड का सबसे सुंदर गॉथिक नमूने का अट्टालक कैंटरबरी गिरजा है, जो सन्‌ 1945 में बना था।

अट्टालकों का निर्माण केवल सैनिक उपयोग अथवा धार्मिक भवनों तक ही नहीं सीमित है। बहुत से नगरों में घड़ी लगाने के लिए भी अट्टालक बनाए जाते हैं, जैसा भारत के भी बहुत से नगरों में देखा जा सकता है। दिल्ली के प्रसिद्ध चाँदनी चौक के घंटाघर का अट्टालक अभी हाल में, बनने के लगभग 100 वर्ष बाद, अचानक गिर पड़ा था। एक अन्य प्रसिद्ध मीनार इटली देश में पीसा नगर की झुकी हुई मीनार है जो 12वीं शताब्दी में बनी थी। यह 179 फुट ऊँची है और एक ओर १६ फुट झुकी हुई है। मध्यकालीन युग में, अर्थात्‌ 10वीं शताब्दी के लगभग, सैनिक उपयोग के लिए ऊँचे-ऊँचे अट्टालकों के बनाने की प्रथा बहुत फैल गई थी, जैसे 11वीं सदी का लंदन टावर। जैसे-जैसे बंदूक तथा तोप के गोले का प्रचार बढ़ता गया वैसे-वैसे सैनिक काम के लिए अट्टालकों का प्रयोग कम होता गया।

राजपूत तथा मुगलों के समय में भारतवर्ष में ऊँची-ऊँची मीनारें बनाने की प्रथा थी। दिल्ली की प्रसिद्ध कुतुबमीनार को 13वीं सदी में कुतुबद्दीन ने अपने राज्यकाल में बनवाना आरंभ किया था जिसे इल्तुतमिश ने पूरा किया। आगरे के प्रसिद्ध ताजमहल के चारों कोनों पर चार बड़ी-बड़ी मीनारें भी बनी हैं जो उसकी शोभा बढ़ाती हैं। इन मीनारों के भीतर ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ भी बनी हैं। राजपूती वास्तुकला का एक सुंदर नमूना चित्तौड़ का विजयस्तंभ है। इसमें खूबी यह है कि जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ती जाती है; परिणामस्वरूप नीचे से देखने पर उसके भागों का आकार छोटा नहीं जान पड़ता।

अधिकांश हिंदू मंदिरों अथवा अन्य अट्टालकों में बहुत सुंदर मूर्तियाँ तथा नक्काशियाँ खुदी हैं। मदुरा (17वीं शताब्दी) तथा कांजीवरम्‌ के मंदिर इस प्रकार के काम के बहुत सुंदर उदाहरण हैं। विजय स्तंभों में भी मूर्तियाँ खुदी हैं, परंतु इतनी बहुतायत से नहीं जितनी दक्षिण के मंदिरों में। आधुनिक काल के अट्टालकों में पेरिस का ईफेल टावर है जिसे गस्टोव ईफेल नामक इंजीनियर ने सन्‌ 1889 में निर्मित किया था। यह लोहे का अट्टालक है और 984 फुट ऊँचा है। इस पर लोग बिजली के लिफ्ट द्वारा ऊपर जाते हैं। पर्यटकों की सुविधा के लिए ऊपर जलपानगृह (रेस्तराँ) का भी प्रबंध है। लंदन स्थित वेस्टमिन्स्टर गिरज़े का शिखर 283 फुट ऊँचा है और संसार के प्रसिद्ध अट्टालकों में से है। यह सन्‌ 1825-1903 में बना था। रिइन्फ़ोर्स्ड कंक्रीट का बना हुआ नोटरडेम का अट्टालक भी काफी प्रसिद्ध है। यह सन्‌ 1924 में बना था। अन्य आधुनिक अट्टालक निम्नलिखित हैं: जर्मनी का आइंस्टाइन टावर, पोट्सडाम वेधशाला, अमरीका का क्लीवलैंड मेमोरियल टावर, प्रिंस्टन विश्वविद्यालय टावर (1913) तथा येल विश्वविद्यालय का हार्कनेस मेमोरियल टावर, स्वीडन में स्कॉटहोम नामक शहर के हाल का अट्टालक, इत्यादि।

किसी महान्‌ व्यक्ति अथवा घटना की स्मृति में अट्टालक बनाने की प्रथा भी प्रचलित रही हैं और बहुत से अट्टालक इसी उद्देश्य से बने हैं। आधुनिक स्थापत्यकला में बड़े-बड़े भवनों के निर्माण में इमारत की भव्यता बढ़ाने के विचार से बहुत से स्थानों पर छोटे-बड़े अट्टालक लोगों ने बनवा दिए हैं, उदाहरणार्थ, हरिद्वार का राजा बिड़ला टावर। अट्टालकों के निर्माण में नींव को पर्याप्त चौड़ा रखना पड़ता है, जिससे वहाँ की भूमि अट्टालक के पूरे भार को सहन कर सके। इस प्रकार के काम के लिए या तो रिइन्फ़ोर्स्ड कंक्रीट की बेड़ानुमा नींव (रफ्टु फ़ाउंडेशन) दी जा सकती है या जालीदार नींव (ग्रिलेज फ़ाउंडेशन)। अट्टालक के ऊँचा होने के कारण इस पर वायु की दाब बहुत पड़ती है, इसलिए अट्टालकों की आकल्पना (डिज़ाइन) में आँधी से पड़े वाली दाब का ध्यान अवश्य रखा जाता है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 86,87 |

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