ऋषभदेव मन्दिर उदयपुर: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - "कद " to "क़द ")
m (Text replace - "{{लेख प्रगति" to "{{प्रचार}} {{लेख प्रगति")
Line 16: Line 16:


*महाराणा के इस मंदिर में प्रवेश से एक दिलचस्प बात  जुड़ी है। वे इस मंदिर में द्वितीय द्वार से प्रवेश नहीं करते थे, बल्कि बाहरी परिक्रमा के पिछले भाग में बने हुए छोटे द्वार से प्रवेश करते थे। दूसरे द्वार के ऊपर की छत में पाँच शरीर और एक सिरवाली एक मूर्ति खुदी हुई है, जिसको लोग छत्रभंग कहते हैं। इसके नीचे से प्रवेश करना महाराणा के लिए उचित नहीं माना जाता था।
*महाराणा के इस मंदिर में प्रवेश से एक दिलचस्प बात  जुड़ी है। वे इस मंदिर में द्वितीय द्वार से प्रवेश नहीं करते थे, बल्कि बाहरी परिक्रमा के पिछले भाग में बने हुए छोटे द्वार से प्रवेश करते थे। दूसरे द्वार के ऊपर की छत में पाँच शरीर और एक सिरवाली एक मूर्ति खुदी हुई है, जिसको लोग छत्रभंग कहते हैं। इसके नीचे से प्रवेश करना महाराणा के लिए उचित नहीं माना जाता था।
{{प्रचार}}
{{लेख प्रगति  
{{लेख प्रगति  
|आधार=
|आधार=

Revision as of 13:59, 10 January 2011

उदयपुर राजस्थान का एक ख़ूबसूरत शहर है और उदयपुर पर्यटन का सबसे आकर्षक स्थल माना जाता है। डूंगरपुर राज्य की प्राचीन राजधानी बड़ौदे (पटपद्रक) के जैन मंदिर से लाकर जो नष्ट हो चुका है, यह प्रतिमा वहाँ से लाकर स्थापित की गई है। प्रतिमा का पत्थर काले रंग का है अतः स्थानीय भील इसे कालाजी भी कहते हैं। भीलों की बस्ती जो मंदिर के चारों ओर दूर तक बनी है वहाँ के लोगों की इन पर अगाध श्रद्धा है। कहा जाता है कि यहाँ चढ़े केसर का पानी पीकर किसी भी विपत्ति में झूठ नहीं बोलते हैं।

मंदिर का प्रथम द्वार नक्कारखाने के रुप में है। बाहरी परिक्रमा का चौक नक्कारखाने से प्रवेश करते ही आता है। दूसरा द्वार वहीं पर है काले पत्थर का एक-एक हाथी जिसके दोनों ओर खड़ा हुआ है। हाथी के पास एक हवनकुंड उत्तर की तरफ के बना है जहाँ नवरात्रि के दिनों में दुर्गा का हवन होता है। उक्त द्वार के दोनों ओर के ताखों में से एक में ब्रम्हा की तथा दूसरे में शिव की मूर्ति है। सीढ़ियों के द्वारा इस मंदिर में जाने की व्यवस्था है। सीढ़ियों के ऊपर के मंडप में मध्यम क़द के हाथी पर बैठी हुई मरुदेवी की मूर्ति है। श्रीमदभागवत् का चबूतरा सीढ़ियों से आगे बांयी तरफ बना है, जहाँ भागवत की कथा चौमासे में होती है। मंडप में 9 स्तम्भों के होने के कारण यह नौचौकी के रुप में जाना जाता है। यहाँ से तीसरे द्वार में प्रवेश किया जाता है।

यहाँ उक्त द्वार के बाहर उत्तर के ताख में शिव तथा दक्षिण के ताख में सरस्वती की मूर्ति स्थापित है। वहाँ पर खुदे अभिलेख इसे (विक्रम संवत 1676) में बना बताते हैं। तीसरा द्वार खेला मंडप (अंतराल) में पहुँचता है, जिसके आगे निजमंदिर (गर्भगृह) बना है। इसी में ॠषभदेव की काले पत्थर की बनी प्रतिमा विराजमान है। गर्भगृह के ऊपर विशाल शिखर बना है, जहाँ ध्वजादंड भी लगा है। खेला मंडप, नौचौकी तथा मरुदेवी वाले मंडप की छत गुंबदाकार बनी है। मंदिर के उत्तरी, दक्षिणी तथा पश्चिमी पार्श्व में देव-कुलिकाओं की पंक्तियाँ हैं, जिनमें से प्रत्येक के मध्य में मंडप सहित एक-एक मंदिर बना है। इन तीनों मंदिरों को वहाँ के पुजारी लोग नेमिनाथ का मंदिर कहते हैं, लेकिन शिलालेखों से यह स्पष्ट है कि इनमें से एक ॠषभदेव का ही मंदिर है।

ॠषभदेव की प्रतिमा के गिर्द इंद्रादि देवता बने हैं। इनकी मूर्ति के चरणों में, नीचे छोटी-छोटी नौ मूर्तियाँ हैं, जिन्हें नवग्रह या नवनाथ के रुप में जाना जाता है। नवग्रहों के नीचे सोलह स्वप्न खुदे हैं। इसके नीचे हाथी, सिंह, देवी आदि की मूतियाँ हैं। सबसे नीचे दो बैलों के बीच देवी की मूर्ति बनी है। पश्चिम की देवकुलिकाओं में से एक में ठोस पत्थर का बना एक मंदिर सा रचना है, जिस पर तीर्थंकरों की बहुत सी छोटी-छोटी मूतियाँ खुदी है। इसे लोग गिरनारजी के बिंब के रुप में जानते हैं। इस प्रकार यहाँ कुल मिलाकर तीर्थंकरों की 22 तथा देवकुलिकाओं की 54 मूतियाँ विराजमान हैं। इन कुल 76 मूतियों में 62 में लेख उपलब्ध है, जो बताते हैं कि ये मूर्तियाँ विक्रम संवत 1611 से विक्रम संवत 1863 के बीच बनाई गई हैं। ये लेख जैनों के इतिहास की जानकारी की दृष्टि से विशेष महत्व के हैं।

  • तीर्थंकर की गर्भवती माता ने जो स्वप्न देखा, वे जैन धर्म बहुत पवित्र माने जाते हैं। दिगंबर सोलह स्वप्न मानते हैं, वहीं श्वेतांबरों में चौदह स्वप्नों की मान्यता हैं।
  • क्षेत्राधिकार के बाद मुसलमान लोग मंदिरों को नष्ट कर देते थे, अतः उस समय बने हुए अनेक बड़े मंदिरो में जान-बूझकर उनका कोई पवित्र चिंह बना दिया जाता था, जिससे वे उसे तोड़ नहीं पायें।
  • पाषाण का एक छोटा सा स्तम्भ नौचौकी के मंडप के दक्षिणी किनारे पर खड़ा है, जिसके ऊपर नीचे तथा चारों ओर छोटी-छोटी10 ताखें खुदी हैं। मुसलमान लोग इस स्तम्भ को मस्जिद का चिंह मानकर अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं।
  • ॠषभदेव जी के मंदिर में विष्णु के जन्माष्टमी, जलझूलनी आदि उत्सव मनाये जाते हैं। श्रीमद्भागवत की कथा चौमासे में होती है। पहले तो अन्य विष्णु-मंदिरों के समान यहाँ भोग भी लगता था। रसोड़ा भोग तैयार होने के स्थान को कहते थे।
  • महाराणा के इस मंदिर में प्रवेश से एक दिलचस्प बात जुड़ी है। वे इस मंदिर में द्वितीय द्वार से प्रवेश नहीं करते थे, बल्कि बाहरी परिक्रमा के पिछले भाग में बने हुए छोटे द्वार से प्रवेश करते थे। दूसरे द्वार के ऊपर की छत में पाँच शरीर और एक सिरवाली एक मूर्ति खुदी हुई है, जिसको लोग छत्रभंग कहते हैं। इसके नीचे से प्रवेश करना महाराणा के लिए उचित नहीं माना जाता था।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

संबंधित लेख