धातु (लेखन सामग्री): Difference between revisions
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Revision as of 08:44, 27 January 2011
प्राचीन भारत की लेखन सामग्री में धातु एक लेखन सामग्री है। मानव जाति के क्रमिक विकास के क्रम में लोहे पर भी लेख खोदे जाते थे। सबसे प्रसिद्ध है, दिल्ली में कुतुबमीनार के पास खड़े लौहस्तम्भ पर गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि (ईसा की चौथी-पाँचवीं सदी) में उत्कीर्ण किसी राजा चंद्र का छह पंक्तियों का संस्कृत लेख।
लोहे पर लेख
उत्तराखण्ड के गोपेश्वर मन्दिर के प्रांगण में गड़े हुए लोहे के क़रीब पाँच मीटर ऊँचे त्रिशूल पर ईसा की सातवीं सदी की लिपि में एक संस्कृत लेख खुदा हुआ है। आबू पर्वत के अचलेश्वर मन्दिर में खड़े लोहे के विशाल त्रिशूल पर 1411 ई. का एक लेख है। पीतल की मूर्तियों के पादपीठों और कांसे की घंटियों पर भी लेख अंकित देखने को मिलते हैं। सोना, चाँदी और तांबे के सिक्कों पर लगाए जाने वाले ठप्पे लोहे के ही बनते थे।
तांबे का प्रयोग
प्राचीन और मध्यकालीन भारत में धातुओं के अंतर्गत तांबे का लेखन के लिए सबसे अधिक उपयोग हुआ है। राजाओं के द्वारा दिए गए दान और अधिकारपत्र तांबे की पट्टिकाओं पर अंकित किए जाते थे। उन्हें ताम्रपत्र या ताम्रशासन कहते थे। पता चलता है कि राजा कनिष्क ने महायान बौद्ध धर्म के ग्रन्थों को ताम्रपटों पर खुदवाकर और पत्थर की पेटियों में बन्द करके कश्मीर के एक स्तूप में सुरक्षित रखवा दिया था। चीनी यात्री फाह्यान (400 ई.) बताते हैं कि भारत की बौद्ध विहारों में दानों से सम्बन्धित ताम्रपटों को सुरक्षित रखने की प्रथा काफ़ी पुरानी है।
ताम्रपट तैयार करना
ताम्रपट दो तरीक़ों से तैयार किए जाते थे-
- हथौड़े से ठोककर और फिर उकेरकर
- बालू के साँचे में ढालकर
इच्छित आकार के जो ताम्रपट हथौड़े से ठोककर बनाए गए हैं, उन पर ठठेर के चिह्न आसानी से पहचाने जा सकते हैं। ताम्रपट पर मूल पाठ को कभी स्याही से और कभी सूई से खरोंचकर लिखा जाता था। तदनंतर कारीगर किसी तीक्ष्ण औज़ार से उन पर अक्षर खोदता था। दक्षिण भारत के कुछ ताम्रपटों में अक्षर खरोंच-जैसे प्रतीत होते हैं। ऐसे ताम्रपटों पर पहले गीली मिट्टी जैसे किसी पदार्थ की तह बिछाकर और उसके लगभग सूख जाने पर टांकी से खुदाई की जाती थी। कुछ आरम्भिक ताम्रपटों में लकीरों की बजाए बिन्दु-बिन्दु से भी अक्षर खोदे गए हैं।
अक्षर ग़लती सुधारना
बालू के साँचे में अक्षर और संकेत बनाकर ढालने का सबसे पुराना उदाहरण है सोहगौरा (गोरखपुर ज़िला) ताम्रपट, जो सम्भवत: सम्राट अशोक के कुछ पहले का है। इसीलिए इस ताम्रपट पर अक्षर व चिह्न उभरे हुए हैं। ग़लत अक्षर खोदे जाने पर वहाँ हथौड़े से पीटकर और काट-छाँटकर सही अक्षर बनाये जाते थे या फिर उन्हें हाशिए पर लिख दिया जाता था।
लेखन-सुरक्षा
लेखन की सुरक्षा के लिए ताम्रपट के किनारों को कुछ मोटा बनाया जाता या फिर थोड़ा उठा दिया जाता। यदि दो से अधिक ताम्रपट हों तो उनमें बाईं ओर छेद करके उसमें तांबे की कड़ी पिरो दी जाती थी। आमतौर से एक दानपत्र में ताम्रपटों की संख्या दो से नौ तक है। मगर लाइडेन (हालैण्ड) विश्वविद्यालय के संग्रहालय में रखे राजेन्द्र चोल के दानपत्र में 21 ताम्रपत्र हैं। तांबे की मूर्तियों और ताम्रपत्रों पर भी लेख या नाम खुदे हुए देखने को मिलते हैं।
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