ज्वालामुखी शक्तिपीठ: Difference between revisions
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ज्वालामुखी शक्तिपीठ हिन्दू धर्म में प्रसिद्ध 51 शक्तिपीठों में से एक है। हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहाँ-जहाँ माता सती के अंग के टुकड़े, धारण किये हुए वस्त्र और आभूषण गिरे, वहाँ-वहाँ पर शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। इन शक्तिपीठों का धार्मिक दृष्टि से बड़ा ही महत्त्व है। ये अत्यंत पावन तीर्थस्थान कहलाते हैं। ये तीर्थ पूरे भारतीय उप-महाद्वीप में फैले हुए हैं। देवीपुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। 'ज्वालामुखी शक्तिपीठ' इन्हीं 51 शक्तिपीठों में से एक है।
हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जनपद के अंतर्गत 'ज्वालामुखी का मंदिर' ही शक्तिपीठ है। यहाँ माता सती की 'जिह्वा' गिरी थी। यहाँ माता सती 'सिद्धिदा अम्बिका' तथा भगवान शिव 'उन्मत्त' रूप में विराजित है। हिमाचल प्रदेश की काँगड़ा घाटी में, पठानकोट-जोगिंदर नगर नैरोगेज़ रेलमार्ग पर ज्वालामुखी रोड स्टेशन से 21 किलोमीटर, काँगड़ा से 34 किलोमीटर तथा धर्मशाला से 56 किलोमीटर दूर कालीधर पर्वत की सुरम्य तलहटी में स्थित है, 'ज्वालादेवी' या 'ज्वालामुखी' शक्तिपीठ। यहाँ सती की 'जिह्वा का निपात' हुआ था तथा जहाँ मंदिर में कोई प्रतिमा नहीं है, वरन् वहाँ माँ प्रज्जवलित प्रस्फुटित होती हैं। यहाँ की शक्ति 'सिद्धिदा' व भैरव 'उन्मत्त' हैं। यहाँ पर मंदिर के अंदर कुल 10 ज्योतियाँ निकलती हैं- दीवार के गोखले से 4, मध्य कुण्ड की भित्ति से 4 दाहिनी दीवार से एक तथा कोने से एक।
पौरणिक मान्यता
मान्यता है कि ये सात बहनें भी माँ के साथ ज्वाला रूप में यहाँ रहती हैं। ये लपटें पर्वतीय अग्नि से प्रस्फुटित तथा सदैव प्रज्जवलित रहती हैं। इनकी प्रकाश ज्योति सर्वदा विद्यमान रहती हैं। यहाँ स्थित एक छोटे से कुण्ड में जल सदैव खौलता रहता है, किंतु आश्चर्य यह कि छूने पर वह जल बिल्कुल ठण्डा लगता है। ये 10 ज्योतियाँ तो मुख्य हैं, किंतु अंदर अनेक ज्वालाएँ प्रस्फुटित होती हैं, जो मंदिर कि भित्ति के पिछले भाग से निकलती हैं। वैसे ये ज्योतियाँ अनंत काल से जल रही हैं। ज्योतियों को दुग्धपान भी कराया जाता है। जब दूध डाला जाता है, तब बत्ती उसमें कुछ देर तक नाचती रहती है तथा तैरती रहती है। ज्योतियों की न्यूनतम संख्या तीन तथा अधिकतम 13 तक हो जाती हैं।
मन्दिर संरचना
मंदिर में प्रवेश हेतु मुख्य द्वार तक संगमरमर की सीढ़ियाँ हैं, तब द्वार है। अंदर एक अहाता है, जहाँ एक पुल से जाया जाता है। अहाते के बीच में एक मंदिर है। उसके अगल-बगल देवी के धार्मिक कक्ष के रूप में अनेक भवन हैं। ज्वालाओं का कुण्ड मध्य में है। ज्वालादेवी मंदिर के पीछे भी एक छोटा-सा मंदिर है, जिसमें एक कुआँ है। उसकी दीवार से भी प्रकाश ज्योति फूटती रहती है। मंदिर के सामने एक जल कुण्ड भी है, जिसमें से जल लेकर भक्तगण स्नान करके दर्शन करते हैं।
इस मंदिर का वास्तुशिल्प अनूठा है। निर्माण में तराशे गए बड़े-बड़े शिलाओं का प्रयोग हुआ है। सन् 1905 में भूकंप आया, जिसने काँगड़ा घाटी को हिला दिया। अनेक भवन तथा मंदिर धराशायी हो गए, किंतु इस मंदिर को रंचमात्र नुकसान नहीं पहुँचा। कहते हैं कि अकबर ने जब यहाँ के बारे में सुना, तो उसे माँ की शक्ति पर अविश्वास हुआ। उसने ज्योति बुझाने की असफल कुचेष्टा की। ज्योति के ऊपर लोहे की मोटी चादर तक रखवा दी, पर ज्वाला चादर फाड़कर निकलती रही। उसने उधर जल का रुख कराया, पर ज्योति नहीं बुझी। तब उसे शक्ति पर विश्वास हो गया। उसने सवा मन का स्वर्ण छत्र कंधे पर रखा तथा नंगे पाँव मंदिर तक पहुँचा। ज्यों ही उसने छत्र चढ़ाना चाहा, वह छत्र किसी अज्ञात धातु का हो गया। अकबर ने अपने गुनाह की माफी माँगी और दिल्ली लौट गया।
मार्ग स्थिति
मंदिर के लिए हिमाचल प्रदेश के प्रायः सभी मुख्यालयों से थोड़ी-थोड़ी देर के अंतराल से बस सेवा उपलब्ध रहती है। ज्वालामुखी बस स्टैण्ड से दाहिनी ओर एक मार्ग जाता है, जिस पर दोनों तरफ की दुकानों पर माँ को चढ़ाने के लिए गोटे वाले दुपट्टे मिलते हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में 'सालू' कहा जाता है। श्रद्धालु भक्तगण माँ के लिए सालू ख़रीद कर ले जाते हैं तथा माँ पर चढ़ाते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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