बल्लीमारान, दिल्ली: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
No edit summary
Line 5: Line 5:
==नामकरण==
==नामकरण==
एक जमाने में बल्लीमारान को बेहतरीन नाविकों के लिए जाना जाता था। इसीलिए इसका नाम बल्लीमारान पड़ा यानी बल्ली मारने वाले। कहा जाता है मुग़लों की नाव यहीं के नाविक खेया करते थे इसलिए काम भले छोटा रहा हो लेकिन सीधा शाही परिवार से नाता होने के कारण उनका उस जमाने के [[दिल्ली]] में अच्छा रसूख था। जब नाव खेने वालों का जलवा उतरने लगा तो इस गली की रौनक बढ़ाई चांदी के वर्क बनाने वालों ने। कहा जाता है बल्लीमारान जैसे महीन वर्क बनाने वाले कारीगर उस दौर में कहीं नहीं मिलते थे। दिल्ली के [[पान]] की गिलौरियां रही हों या घंटेवाला की मिठाईयां चांदी के वर्क उनके ऊपर बल्लीमारान के ही लपेटे जाते थे।<ref name="डेली न्यूज़"/>
एक जमाने में बल्लीमारान को बेहतरीन नाविकों के लिए जाना जाता था। इसीलिए इसका नाम बल्लीमारान पड़ा यानी बल्ली मारने वाले। कहा जाता है मुग़लों की नाव यहीं के नाविक खेया करते थे इसलिए काम भले छोटा रहा हो लेकिन सीधा शाही परिवार से नाता होने के कारण उनका उस जमाने के [[दिल्ली]] में अच्छा रसूख था। जब नाव खेने वालों का जलवा उतरने लगा तो इस गली की रौनक बढ़ाई चांदी के वर्क बनाने वालों ने। कहा जाता है बल्लीमारान जैसे महीन वर्क बनाने वाले कारीगर उस दौर में कहीं नहीं मिलते थे। दिल्ली के [[पान]] की गिलौरियां रही हों या घंटेवाला की मिठाईयां चांदी के वर्क उनके ऊपर बल्लीमारान के ही लपेटे जाते थे।<ref name="डेली न्यूज़"/>
[[चित्र:Gali-Qasim-Jan.jpg|thumb|गली क़ासिम जान (बल्लीमारान), [[दिल्ली]]
[[चित्र:Gali-Qasim-Jan.jpg|thumb|गली क़ासिम जान (बल्लीमारान), [[दिल्ली]]]]
==ग़ालिब के अंतिम समय की धरोहर==
==ग़ालिब के अंतिम समय की धरोहर==
18वीं शताब्दी का अंत आते-आते चांदनी चौक की इस गली पर नवाबों-व्यापारियों की नजर पड़ी और इसके बाशिंदे बदलने लगे। नवाब लोहारू रहने आए, जिनकी बहन उमराव बेगम से ग़ालिब ने शादी की थी और बाद में जिनकी हवेली में वे अपने आखिरी दिनों में रहने भी आए। आज वह हवेली स्मारक बन चुका है और उस पर खुदा हुआ है कि अपने जीवन के आखिरी दौर में 1860-63 के दौरान ग़ालिब गली कासिम जान की इस हवेली में रहे थे। यह ग़ालिब के जीने की नहीं मरने की हवेली है। कई और नवाबों की हवेलियां भी यहां थी। इसके ऊपर कम ही ध्यान जाता है कि दिल्ली के उजड़ने के बाद बल्लीमारान को शायरों-अदीबों ने आबाद किया। ग़ालिब के बाद सबसे बड़ा नाम मोहम्मद अल्ताफ हुसैन "हाली" का लिया जा सकता है। वे ग़ालिब के शागिर्द तो नहीं रहे लेकिन करीब 15 सालों तक ग़ालिब के करीब रहे और उनके मरने के बाद उन्होंने ग़ालिब के ऊपर "यादगारे-ग़ालिब" नामक पुस्तक लिखी। यह पहली पुस्तक है जो ग़ालिब के मिथक और यथार्थ को सामने लाती है। जिसमें उन्होंने लिखा है कि बाद में वे महमूद खान के दीवानखाने से लगी मस्जिद के पीछे के एक मकान में रहने लगे थे। इसके मुताल्लक उन्होंने ग़ालिब का एक शेर भी उद्धृत किया है-
18वीं शताब्दी का अंत आते-आते चांदनी चौक की इस गली पर नवाबों-व्यापारियों की नजर पड़ी और इसके बाशिंदे बदलने लगे। नवाब लोहारू रहने आए, जिनकी बहन उमराव बेगम से ग़ालिब ने शादी की थी और बाद में जिनकी हवेली में वे अपने आखिरी दिनों में रहने भी आए। आज वह हवेली स्मारक बन चुका है और उस पर खुदा हुआ है कि अपने जीवन के आखिरी दौर में 1860-63 के दौरान ग़ालिब गली कासिम जान की इस हवेली में रहे थे। यह ग़ालिब के जीने की नहीं मरने की हवेली है। कई और नवाबों की हवेलियां भी यहां थी। इसके ऊपर कम ही ध्यान जाता है कि दिल्ली के उजड़ने के बाद बल्लीमारान को शायरों-अदीबों ने आबाद किया। ग़ालिब के बाद सबसे बड़ा नाम मोहम्मद अल्ताफ हुसैन "हाली" का लिया जा सकता है। वे ग़ालिब के शागिर्द तो नहीं रहे लेकिन करीब 15 सालों तक ग़ालिब के करीब रहे और उनके मरने के बाद उन्होंने ग़ालिब के ऊपर "यादगारे-ग़ालिब" नामक पुस्तक लिखी। यह पहली पुस्तक है जो ग़ालिब के मिथक और यथार्थ को सामने लाती है। जिसमें उन्होंने लिखा है कि बाद में वे महमूद खान के दीवानखाने से लगी मस्जिद के पीछे के एक मकान में रहने लगे थे। इसके मुताल्लक उन्होंने ग़ालिब का एक शेर भी उद्धृत किया है-
Line 27: Line 27:
[[Category: दिल्ली]][[Category: दिल्ली के पर्यटन स्थल]]  [[Category: दिल्ली के ऐतिहासिक स्थान]] [[Category:पर्यटन कोश]] [[Category: इतिहास कोश]]  
[[Category: दिल्ली]][[Category: दिल्ली के पर्यटन स्थल]]  [[Category: दिल्ली के ऐतिहासिक स्थान]] [[Category:पर्यटन कोश]] [[Category: इतिहास कोश]]  
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__

Revision as of 12:01, 29 December 2012

बल्लीमारान दिल्ली के मुग़ल कालीन बाज़ार चाँदनी चौक से जुड़ा एक यादगार स्थान है। इस जगह से कई मशहूर शख्सियतों का वास्ता रहा है जिनमें महान शायर ग़ालिब, हकीम अजमल ख़ाँ और प्रसिद्ध गीतकार एवं फ़िल्म निर्देशक गुलज़ार प्रमुख हैं। वर्तमान में यहाँ एक तरफ जूतों का बाज़ार है तो दूसरी ओर ऐनक का बाज़ार। इसके बीच बल्लीमारान की पहचान कहीं गुम सी हो गई है। इस मंडी को देखकर कौन मानेगा कि कभी यहां अदब की एक बड़ी परंपरा रहती थी।

इतिहास

वर्षों पहले गुलज़ार ने एक टीवी धारावाहिक बनाया था "ग़ालिब"। उसके शीर्षक गीत में उन्होंने चूड़ीवालान से तुक मिलाते हुए बल्लीमारान का जिक्र किया था। उस बल्लीमारान का जिसकी गली कासिमजान में इस उपमहाद्वीप के शायद सबसे बड़े शायर ग़ालिब ने अपने जीवन के आखिरी कुछ साल गुजारे थे। उसके बाद से तो बल्लीमारान और ग़ालिब एकमेक हो गए। कासिमजान के बारे में कोई नहीं जानता जिसके नाम पर वह गली आबाद हुई, बल्लीमारान के अतीत को कोई नहीं जानता। ग़ालिब और बल्लीमारान।[1]

नामकरण

एक जमाने में बल्लीमारान को बेहतरीन नाविकों के लिए जाना जाता था। इसीलिए इसका नाम बल्लीमारान पड़ा यानी बल्ली मारने वाले। कहा जाता है मुग़लों की नाव यहीं के नाविक खेया करते थे इसलिए काम भले छोटा रहा हो लेकिन सीधा शाही परिवार से नाता होने के कारण उनका उस जमाने के दिल्ली में अच्छा रसूख था। जब नाव खेने वालों का जलवा उतरने लगा तो इस गली की रौनक बढ़ाई चांदी के वर्क बनाने वालों ने। कहा जाता है बल्लीमारान जैसे महीन वर्क बनाने वाले कारीगर उस दौर में कहीं नहीं मिलते थे। दिल्ली के पान की गिलौरियां रही हों या घंटेवाला की मिठाईयां चांदी के वर्क उनके ऊपर बल्लीमारान के ही लपेटे जाते थे।[1] [[चित्र:Gali-Qasim-Jan.jpg|thumb|गली क़ासिम जान (बल्लीमारान), दिल्ली]]

ग़ालिब के अंतिम समय की धरोहर

18वीं शताब्दी का अंत आते-आते चांदनी चौक की इस गली पर नवाबों-व्यापारियों की नजर पड़ी और इसके बाशिंदे बदलने लगे। नवाब लोहारू रहने आए, जिनकी बहन उमराव बेगम से ग़ालिब ने शादी की थी और बाद में जिनकी हवेली में वे अपने आखिरी दिनों में रहने भी आए। आज वह हवेली स्मारक बन चुका है और उस पर खुदा हुआ है कि अपने जीवन के आखिरी दौर में 1860-63 के दौरान ग़ालिब गली कासिम जान की इस हवेली में रहे थे। यह ग़ालिब के जीने की नहीं मरने की हवेली है। कई और नवाबों की हवेलियां भी यहां थी। इसके ऊपर कम ही ध्यान जाता है कि दिल्ली के उजड़ने के बाद बल्लीमारान को शायरों-अदीबों ने आबाद किया। ग़ालिब के बाद सबसे बड़ा नाम मोहम्मद अल्ताफ हुसैन "हाली" का लिया जा सकता है। वे ग़ालिब के शागिर्द तो नहीं रहे लेकिन करीब 15 सालों तक ग़ालिब के करीब रहे और उनके मरने के बाद उन्होंने ग़ालिब के ऊपर "यादगारे-ग़ालिब" नामक पुस्तक लिखी। यह पहली पुस्तक है जो ग़ालिब के मिथक और यथार्थ को सामने लाती है। जिसमें उन्होंने लिखा है कि बाद में वे महमूद खान के दीवानखाने से लगी मस्जिद के पीछे के एक मकान में रहने लगे थे। इसके मुताल्लक उन्होंने ग़ालिब का एक शेर भी उद्धृत किया है-

मस्जिद के जेरे-साया एक घर बना लिया है, 
ये बंदा-ए-कमीना हमसाया-ए-ख़ुदा है।

उनकी पहचान बल्लीमारान से ही जुड़ी रही और बल्लीमारान को उनकी वजह से मशहूर होना बदा था। मशहूर फिल्म पटकथा लेखक, निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास उनके पोते थे। अत: ख्वाजा अहमद अब्बास का नाता भी बल्लीमारान से जुड़ता है।[1]

अन्य मशहूर व्यक्तियों से बल्लीमारान का नाता

जुदाई के शाइर मौलाना हसरत मोहानी का संबंध भी बल्लीमारान से था ग़ालिब की गली कासिम जान से नहीं। "चुपके-चुपके रात-दिन आंसू बहाना याद है" जैसी ग़ज़ल या इस तरह का शेर कि "नहीं आती तो उनकी याद बरसों तक नहीं आती, मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं" उन्होंने बल्लीमारान की गलियों में ही लिखे। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी हकीम अजमल ख़ाँ की पहचान भी बल्लीमारान से जुड़ी हुई है। एक जमाना था कि उनकी हवेली आज़ादी के मतवालों का ठिकाना हुआ करती थी। कांग्रेस पार्टी के नेताओं का अड्डा। भारत के उप-राष्ट्रपति ज़ाकिर हुसैन का इस मोहल्ले से गहरा नाता था। उस जमाने में यहां के हाफिज होटल में खाए बिना उनकी भूख नहीं मिटती थी। वहां की नाहरी हो या बिरयानी उसका स्वाद उनकी जुबान पर ऐसा चढ़ा कि महामहिम होने के बाद वे यहां से खाना मंगवाकर खाया करते थे। बहरहाल यह होटल अब बंद हो चुका है। पुरानी दिल्ली में अभी ऐसे लोग हैं जो होटल का नाम आते ही चटखारे भरने लगते हैं। बल्लीमारान से एक और लेखक हैं जिनका गहरा रिश्ता था। उनका नाम है अहमद अली। आर.के. नारायण और राजा राव के साथ इन्होंने भारतीय अंग्रेज़ी उपन्यास की आधारशिला रखी।[1]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 शाइरों-अदीबों की गली बल्लीमारान (हिंदी) डेली न्यूज़। अभिगमन तिथि: 29 दिसम्बर, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख