जनस्थान शक्तिपीठ: Difference between revisions
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जनस्थान शक्तिपीठ
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वर्णन | नासिक के 'पंचवटी' में स्थित 'जनस्थान शक्तिपीठ' भारतवर्ष के अज्ञात 108 एवं ज्ञात 51 पीठों में से एक है। इसका हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्त्व है। |
स्थान | नासिक, महाराष्ट्र |
देवी-देवता | देवी 'भ्रामरी' तथा शिव 'विकृताक्ष'। |
संबंधित लेख | शक्तिपीठ, सती |
पौराणिक मान्यता | मान्यतानुसार यह माना जाता है कि इस स्थान पर देवी सती का 'चिबुक भाग' गिरा था। |
प्रतिमा | मंदिर में माँ भद्रकाली की अत्यंत आकर्षक प्रतिमा लगभग 38 सेंटीमीटर ऊँची है और इनकी 18 भुजाओं में विविध आयुध हैं। |
अन्य जानकारी | इस्लाम शासन में मूर्ति अपमानित न हो, इसलिए गाँव के बाहर एक पहाड़ी पर मूर्ति स्थापित की गयी तथा 1790 में सरदार गणपत राव पटवर्धन दीक्षित ने वर्तमान मंदिर का निर्माण करवाया। इसे 'देवी का मठ' कहा गया। |
जनस्थान शक्तिपीठ हिन्दू धर्म में प्रसिद्ध 51 शक्तिपीठों में से एक है। हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहाँ-जहाँ माता सती के अंग के टुकड़े, धारण किये हुए वस्त्र और आभूषण गिरे, वहाँ-वहाँ पर शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। इन शक्तिपीठों का धार्मिक दृष्टि से बड़ा ही महत्त्व है। ये अत्यंत पावन तीर्थस्थान कहलाते हैं। ये तीर्थ पूरे भारतीय उप-महाद्वीप में फैले हुए हैं। देवीपुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। 'जनस्थान शक्तिपीठ' इन्हीं 51 शक्तिपीठों में से एक है।
स्थिति
यह प्रसिद्ध शक्तिपीठ महाराष्ट्र में मध्य रेलवे के मुम्बई-दिल्ली मुख्य रेल मार्ग पर, नासिक रोड स्टेशन से लगभग 8 कि.मी. दूर पंचवटी नामक स्थान पर स्थित भद्रकाली मंदिर ही शक्तिपीठ है, जहाँ सती का 'चिबुक' भाग गिरा था। यहाँ की शक्ति 'भ्रामरी' तथा शिव 'विकृताक्ष' हैं- 'चिबुके भ्रामरी देवी विकृताक्ष जनस्थले।'[1] अत: यहाँ चिबुक ही शक्तिरूप में प्रकट हुआ। इस मंदिर में शिखर नहीं है, सिंहासन पर नव-दुर्गाओं की मूर्तियाँ है, जिनके बीच में भद्रकाली की ऊँची मूर्ति है।
नामकरण
इस स्थान के 'नासिक' नामकरण के पीछे यहाँ की नौ छोटी-छोटी पहाड़ियाँ हैं, जिनके कारण इसका नाम पड़ा-'नव शिव', जो शनै:शनै: बदल कर 'नासिक' हो गया। इन सभी नौ पहाड़ियों पर माँ दुर्गा का स्थान है, जिनमें एक स्थान पर भद्रकाली की पूर्व परंपरानुगत स्वयंभू मूर्ति है।
स्थापना
इस्लाम शासन में मूर्ति अपमानित न हो, इसलिए गाँव के बाहर उक्त पहाड़ी पर मूर्ति स्थापित की गयी तथा सन् 1790 में सरदार गणपत राव पटवर्धन दीक्षित ने यह वर्तमान मंदिर बनवाया। इसे 'देवी का मठ' कहा गया तथा मंदिर के ऊपर दो मंजिलें बनायीं गयीं। यवनों के उत्पात की आशंका से मंदिर पर कलश स्थापित नहीं किया गया। इसी से इस पर शिखर नहीं है। पंच धातु निर्मित माँ भद्रकाली की अत्यंत आकर्षक प्रतिमा लगभग 38 सेंटीमीटर (15 इंच) ऊँची है और इनकी 18 भुजाओं में विविध आयुध हैं।
त्रिकाल-पूजन
उल्लेखनीय है कि यहाँ मंदिर की ओर से ही 'प्राच्यविद्यापीठ' की स्थापना की गयी है, जहाँ पुरातन गुरु परंपराधारित वेद-वेदांग का अध्ययन होता है। छात्र मंदिर के आस-पास स्थित ब्राह्मणों के 350 घरों से 'मधुकरी'[2] लाते हैं। उसी का नैवेद्य माँ को अर्पित किया जाता है तथा माँ के त्रिकाल-पूजन की व्यवस्था भी छात्र ही करते हैं। निकटस्थ प्रवासी ब्राह्मण परिवारों के घर से क्रमानुसार पूजार्चन, नैवेद्य, देवी पाठ, नंदादीप आदि के लिए सामग्री-संग्रहण किया जाता है। नवरात्र का उत्सव शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से पूर्णिमा तक धूमधाम से मनाया जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख