यमलोक

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यमलोक या यमपुरी का उल्लेख हिन्दू धर्म ग्रंथों में विशिष्ट रूप से किया गया है। इनके अनुसार किसी भी मानव की मृत्यु के पश्चात उसकी आत्मा यमलोक को प्रस्थान कर जाती है। यम देवता को यमलोक का स्वामी बताया गया है। इसी लोक में मानव को उसके द्वारा अपने सम्पूर्ण जीवन में किये गए कर्मों का फल प्रदान किया जाता है।

पुराण में विवरण

यमपुरी का उल्लेख कई ग्रंथों में मिलता है, जिसमें गरुड़ पुराण और कठोपनिषद आदि में इसका विस्तृत विवरण मिलता है। मृत्यु के बारह दिनों के बाद मानव की आत्मा यमलोक का सफर प्रारम्भ कर देती है। इन बारह दिनों में वह अपने पुत्रों और रिश्तेदारों द्वारा दान किये गए 'पिंड दान' के पिंड को खाकर ही शक्ति प्राप्त करती है। बारह दिन बाद सारे उत्तर कार्य समाप्त हो जाने पर आत्मा यमलोक के लिए यात्रा को निकलती है। यमलोक को 'मृत्युलोक'[1] से 86000 योजन दूरी पर माना गया है। एक योजन में क़रीब 4 कि.मी. होते हैं।

वैतरणी नदी

यमलोक के इस रास्ते में वैतरणी नदी का उल्लेख भी मिलता है। यह माना जाता है कि वैतरणी नदी बहुत भयंकर है, यह विष्ठा और रक्त से भरी हुई है। सम्पूर्ण नदी में मांस का कीचड़ होता है। अपने जीवन में दान न करने वाले मनुष्य मृत्यु के बाद यमपुरी की यात्रा के समय इस नदी में डूबते हैं और बाद में यमदूतों द्वारा निकाले जाते हैं।

यमलोक का मार्ग

यमपुरी का रास्ता बहुत लम्बा है। आत्मा सत्रह दिन तक यात्रा करने के पश्चात अट्ठारहवें दिन यमपुरी पहुँचती है। यमपुरी में भी एक नदी का वर्णन मिलता है, जिसमें स्वच्छ जल बहता रहता है और जिसमें कमल के फूल खिले रहते हैं। इस नदी का नाम 'पुष्पोदका' कहा गया है। इसी नदी के किनारे एक वटवृक्ष है, जहाँ आत्मा थोड़ी देर विश्राम करती है। इस समय आत्मा को शरीर का त्याग किये हुए पूरा एक महीना बीत चुका होता है और इसी वटवृक्ष के नीचे बैठकर वह जीव पुत्रों द्वारा किए गए मासिक पिंडदान के पिंड को खाती है। फिर कुछ नगरों को लांघकर यमराज के सामने पहुँचती है। यहाँ से आत्मा को उसके कर्मों के अनुसार दंड या सम्मान मिलता है।

क्षेत्रफल तथा द्वार

यमलोक एक लाख योजन क्षेत्र में फैला हुआ माना गया है। इसके चार मुख्य द्वार हैं-

  1. पूर्व द्वार - यह द्वार योगियों, ऋषियों, सिद्धों, यक्षों, गंधर्वों के लिए होता है। यह द्वार हीरे, मोती, नीलम और पुखराज जैसे रत्नों से सजा होता है। यहाँ गंधर्वों के गीत और अप्सराओं के नृत्य से जीवात्माओं का स्वागत किया जाता है।
  2. 'उत्तर द्वार' - इस द्वार में विभिन्न रत्न जड़े होते हैं। यहाँ वीणा और मृदंग से मंगलगान होता रहता है। यहाँ दानी, तपी, सत्यवादी, माता-पिता और ब्राह्मण की सेवा करने वाले लोग आते हैं।
  3. पश्चिम द्वार - यह द्वार भी रत्नों से सुसज्जित होता है और यहाँ भी मंगल गान से जीवों का स्वागत होता है। यहाँ ऐसे जीवों को प्रवेश मिलता है, जिन्होंने तीर्थों में प्राण त्यागे हों या फिर गौ (गाय), मित्र, परिवार स्वामी या राष्ट्र की रक्षा में प्राण त्यागे हों।
  4. दक्षिण द्वार सभी द्वारों में इस द्वार को सबसे ज़्यादा भयानक माना जाता है। यहाँ हमेशा घोर अंधेरा घिरा रहता है। द्वार पर विषैले साँप, बिछ्छू, सिंह और भेड़िये आदि ख़तरनाक जीव पहरे पर रहते हैं, जो हर आने वाली दुष्ट आत्मा को घायल करते हैं। यहाँ सारे पापियों को प्रवेश मिलता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पृथ्वी

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