महाभारत वन पर्व अध्याय 2 श्लोक 36-53

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द्वितीय (2) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 36-53 का हिन्दी अनुवाद

‘खोटी बुद्धि वाले मनुष्‍यों के लिये जिसे त्‍यागना अत्‍यन्‍त कठिन है,जो शरीर के जरा से जीर्ण हो जाने पर भी स्‍वयं जार्ण नहीं होती तथा जिसे प्राणनाशक रोग बताया गया है, उस तृष्‍णा को त्‍याग देता है, उसी को सुख मिलता है।' ‘यह तृष्‍णा यद्यपि मनुष्‍यों के शरीर के भीतर ही रहती है, तो भी इसका कहीं आदि-अन्‍त नहीं है। लाहे के पिण्‍ड की आग के समान यह तृष्‍णा प्राणियों का विनाश कर देती है। ‘जैसे काष्‍ठ अपने से ही उत्‍पन्‍न हुई आग से जलकर भस्‍म हो जाता है, उसी प्रकार जिसका मन वया में नहीं है, वह मनुष्‍य अपने शरीर के साथ उत्‍पन्‍न हुए लोभ के द्वारा स्‍वयं नष्‍ट हो जाता है। ‘धनवान मनुष्‍यों को राजा, जल, अग्नि, चोर, तथा स्‍वजनों से भी उसी प्रकार भय बना रहता है, संग प्राणियों की मृत्‍यु से। ‘जैसे मांस के टुकड़े को आकाश में पक्षी, पृथ्‍वी पर हिंसक जन्‍तु तथा जल में मछलियाँ खा जाती हैं, उसी प्रकार धनवान पुरुष को सब लोग सर्वत्र नोचते रहते हैं।

‘कितने ही मनुष्‍यों के लिये अर्थ ही अनर्थ का कारण बन जाता है; क्‍योंकि अर्थ द्वारा सिद्ध होने वाले श्रेय (सांसारिक भोग ) में आसक्‍त मनुष्‍य वास्‍तविक कल्‍याण को नहीं प्राप्‍त होता। ‘इसलिए धन प्राप्ति के सभी उपाय मन में मोह बढ़ाने वाले हैं। कृपणता, घमण्‍ड, अभिमान,भय और उद्वेग इन्‍हें विद्वानों, देहधारियों के लिए धनजनित दु:ख माना है। धन के उपार्जन, संरक्षण तथा व्‍यय में मनुष्‍य महान दु:ख सहन करते हैं और धन के ही कारण एक दूसरे को मार डालते हैं । धन को त्‍यागने में महान दु:ख होता है और यदि उसकी रक्षा की जाये तो वह शत्रु का-सा काम करता है। ‘धन की प्राप्ति भी दु:ख से ही होती है। इसलिये उसका चिन्‍तन न करें; क्‍योंकि धन की चिन्‍ता करना अपना नाश करना है। मूर्ख मनुष्‍य सदा असंतुष्‍ट रहते हैं और विद्वान पुरुष संतुष्‍ट। ‘यौवन, रूप, जीवन,रत्‍नों का संग्रह, ऐश्‍वर्य तथा प्रिय जनों का एकत्र निवास—ये सभी अनित्‍य हैं; अत: विद्वान पुरुष उनकी अभिलाषा न करें। ‘इसलिए धन-संग्रह का त्‍याग करें और उसके त्‍याग से जो क्‍लेश हो, उसे धैर्यपूर्वक सह लें। जिनके पास धन का संग्रह है, ऐसा कोई भी मनुष्‍य उपद्रव रहित नहीं देखा जाता है। अत: धर्मात्‍मा पुरुष उसी धन की प्रशंसा करते हैं, जो दैवेच्‍छा से न्‍यायपूर्वक स्‍वत: प्राप्‍त हो गया हो। ‘जो धर्म करने के लिए धनोपार्जन इच्‍छा करता है, उसका धन का इच्‍छा न करना ही अच्‍छा है।' कीचड़ लगाकर धोने की अपेक्षा मनुष्‍यों के लिये उसका स्‍पर्श न करना ही श्रेष्‍ठ है। ‘युधिष्ठिर ! इस प्रकार आप के लिए किसी भी वस्‍तु की अभिलाषा करना उचित नहीं है। यदि आपको धर्म से ही प्रयोजन हो तो धन की इच्‍छा का सर्वथा त्‍याग कर दें।

युधिष्ठिर ने कहा – ब्रह्मन ! मैं जो धन चाहता हूँ, वह इसलिये नहीं कि मुझे धन संबंधी भोग भोगने की इच्छा है; मैं तो ब्राह्मणों के भरण-पोषण के लिए ही धन की इच्‍छा रखता हूँ,लोभवश नहीं। विप्रवर ! गृहस्थ-आश्रम में रहने वाला मेरे जैसा पुरुष अपने अनुयायियों का भरण-पोषण भी न करे, यह कैसे उचित को सकता है। गृहस्थ के भोजन में देवता,पितृ, मनुष्य एवं समस्त प्राणियों का हिस्सा देखा जाता है। गृहस्थ का धर्म है कि वह अपने हाथ से भोजन न बनाने वाले संन्यासी आदि को अवश्य पका-पकाया अन्न दे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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