गुदडी़ मेला गढ़मुक्तेश्वर: Difference between revisions
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*[[गंगा मंदिर]] से थोड़ा आगे कुछ वर्षों पूर्व तक यहाँ रेतीला क्षेत्र था, जो '[[मीराबाई की रेती|मीरा की रेती]]' के नाम से प्रसिद्ध है। | |||
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*गुदडी़ मेला की परम्परा मीराबाई के समय से ही चली आ रही है। | |||
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किंवदंती है कि एक बार मेले में लोगों के कम आने के कारण मेले में आये दुकानदारों का सामान कम बिका। वे लोग कमाने की आशा लिये मेले में आये थे, किन्तु उनकी आशा पर तुषारापात होने से वे बड़े निराश और दु:खी थे। उन्होंने करुणा की मूर्ति मीराबाई के पास आकर अपने मन की पीडा़ बतलाई। दुकानदारों का करुण-रूदन सुनकर मीराबाई का कोमल [[हृदय]] पिघल गया। उन्होंने उदारता का परिचय देते हुए दुकानदारों का सारा सामान स्वयं ख़रीद लिया। सामान बिकने से दुकानदार बड़े खुश हुए और अपने घरों को चले गये। तभी से हर वर्ष मेले के बाद '[[मीराबाई की रेती|मीरा की रेती]]' में 'गुदडी़ का मेला' लगने लगा। मेले से बचा सामान दुकानकार यहाँ बेचकर ही अपने घरों को जाते हैं। 'मीरा की रेती' में बने पूज्य स्थल पर आज भी मीरा के नाम से भरपूर चढा़वा आता है। | |||
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गढ़मुक्तेश्वर (गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश का ज़िला मुख्यालय) के उत्तरी छोर पर 'मुक्तिश्वरनाथ का मंदिर' है, यहीं पर ये मेला लगता है। इस मंदिर के मुख्य द्वार से पूर्व की ओर लगभग आधा किलोमीटर लम्बी सड़क जाती है। कहा जाता है कि यहाँ लगने वाले मेले में मीराबाई गंगा में स्नान के लिए आती थीं।
- गंगा मंदिर से थोड़ा आगे कुछ वर्षों पूर्व तक यहाँ रेतीला क्षेत्र था, जो 'मीरा की रेती' के नाम से प्रसिद्ध है।
- यहाँ कभी भगवान श्रीकृष्ण की प्रेम दीवानी और उदयपुर राजघराने की पुत्रवधू मीराबाई घरबार छोड़ने से पूर्व कार्तिक मास में लगने वाले मेले में गंगा स्नान करने आती थीं और हर वर्ष अपने डेरे इसी रेतीले भाग में लगाती थीं।
- गुदडी़ मेला की परम्परा मीराबाई के समय से ही चली आ रही है।
किंवदंती
किंवदंती है कि एक बार मेले में लोगों के कम आने के कारण मेले में आये दुकानदारों का सामान कम बिका। वे लोग कमाने की आशा लिये मेले में आये थे, किन्तु उनकी आशा पर तुषारापात होने से वे बड़े निराश और दु:खी थे। उन्होंने करुणा की मूर्ति मीराबाई के पास आकर अपने मन की पीडा़ बतलाई। दुकानदारों का करुण-रूदन सुनकर मीराबाई का कोमल हृदय पिघल गया। उन्होंने उदारता का परिचय देते हुए दुकानदारों का सारा सामान स्वयं ख़रीद लिया। सामान बिकने से दुकानदार बड़े खुश हुए और अपने घरों को चले गये। तभी से हर वर्ष मेले के बाद 'मीरा की रेती' में 'गुदडी़ का मेला' लगने लगा। मेले से बचा सामान दुकानकार यहाँ बेचकर ही अपने घरों को जाते हैं। 'मीरा की रेती' में बने पूज्य स्थल पर आज भी मीरा के नाम से भरपूर चढा़वा आता है।
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