गढ़मुक्तेश्वर
[[चित्र:Garhmukteshwar.jpg|thumb|250px|गंगा नदी, गढ़मुक्तेश्वर]] राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से 100 किलोमीटर दूर 'राष्ट्रीय राजमार्ग 24' पर 'गढ़मुक्तेश्वर' नामक नगर बसा है जो गाज़ियाबाद ज़िले का एक तहसील मुख्यालय है। गढ़मुक्तेश्वर मेरठ से 42 किलोमीटर दूर स्थित है और गंगा नदी के दाहिने किनारे पर बसा है। विकास की दृष्टि से गढ़मुक्तेश्वर गाज़ियाबाद की सबसे पिछड़ी तहसील मानी जाती है, किंतु सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यहाँ कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लगने वाला गंगा स्नान पर्व उत्तर भारत का सबसे बड़ा मेला माना जाता है।
इतिहास
गंगा के तट पर स्थित गढ़मुक्तेश्वर प्रसिद्ध तीर्थ है, जो कार्तिक स्नान के मेले के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। स्कंदपुराण में इस तीर्थ का विस्तृत वर्णन है। इसका प्राचीन नाम 'शिवबल्लभपुर' कहा गया है। पौराणिक कथा है कि इस स्थान पर महादेव के गण दुर्वासा के शाप से मुक्त हुए थे और इसी कारण इसे 'मुक्तेश्वर' कहा जाता है। पुराणों की एक अन्य कथा के अनुसार, राजयक्ष्मा से पीड़ित चंद्र ने यहीं तप करके रोगमुक्ति प्राप्त की थी। यह भी आख्यायिका है कि महाराज नृग गिरगिट की योनि से यहाँ मुक्त हुए थे, जिसका स्मारक 'नृगकूप' या 'नक्का कुवां' आज भी गढ़मुक्तेश्वर में है।
यह तो निश्चित ही है के प्राचीन काल से ही गढ़मुक्तेश्वर में साधु-संतों का निवास रहा है। ऐतिहासिक काल में भी यह तीर्थं महत्वपूर्ण रहा है। कहा जाता है कि बर्बर शासकों को भारत की सीमा के परे खदेड़ कर सम्राट् विक्रमादित्य (चंद्रगुप्त द्वितीय) ने यहीं गंगा तट पर शांति प्राप्त की थी। महाराज भोज परमार भी गढ़मुक्तेश्वर आए थे। 11वीं शती में महमूद गजनी ने इस तीर्थ पर आक्रमण किया। मुग़ल साम्राज्य के अंतिम काल में मराठों के उत्कर्ष के समय गढ़मुक्तेश्वर में हिंदू धर्म का पुनरुद्धार हुआ। मराठों (सिंधिया) ने यहाँ एक दुर्ग का निर्माण भी किया, जिसे 'सिंधिया दुर्ग' कहते थे। इसके खंडहर अब भी हैं। संभवतः इसी दुर्ग के कारण इस स्थान को गढ़मुक्तेश्वर कहा जाने लगा।
यहाँ के पंडों की पुरानी बहियों से सूचित होता है कि 17वीं शती में अलवर का नवाब जीवन ख़ाँ अपने पुत्र सहित यहाँ आया करता था और गंगा स्नान करके ब्राह्मणों को दान देता था। अब से प्रायः दो सौ वर्ष पूर्व स्थानीय गंगा मंदिर को झज्झर के नवाब के एक हिन्दू मंत्री ने बनवाया था। इसका उल्लेख झज्झर के नवाब की वसीयत में किया गया है।
पौराणिक महत्त्व
भागवत पुराण व महाभारत के अनुसार यह कुरु की राजधानी हस्तिनापुर का भाग था। आज पर्यटकों को यहाँ की ऐतिहासिकता और आध्यात्मिकता के साथ-साथ प्राकृतिक ख़ूबसूरती भी खूब लुभाती है। मुक्तेश्वर शिव का एक मन्दिर और प्राचीन शिवलिंग कारखण्डेश्वर यहीं पर स्थित है। काशी, प्रयाग, अयोध्या आदि तीर्थों की तरह 'गढ़मुक्तेश्वर' भी पुराण उल्लिखित तीर्थ है। शिवपुराण के अनुसार 'गढ़मुक्तेश्वर' का प्राचीन नाम 'शिववल्लभ' (शिव का प्रिय) है, किन्तु यहाँ भगवान मुक्तीश्वर (शिव) के दर्शन करने से अभिशप्त शिवगणों की पिशाच योनि से मुक्ति हुई थी, इसलिए इस तीर्थ का नाम 'गढ़मुक्तीश्वर' (गणों की मुक्ति करने वाले ईश्वर) विख्यात हो गया। पुराण में भी उल्लेख है-
'गणानां मुक्तिदानेन गणमुक्तीश्वर: स्मृत:।'
- कथा
शिवगणों की शापमुक्ति की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है- प्राचीन समय की बात है क्रोधमूर्ति महर्षि दुर्वासा मंदराचल पर्वत की गुफा में तपस्या कर रहे थे। भगवान शंकर के गण घूमते हुए वहां पहुंच गये। गणों ने तपस्यारत महर्षि का कुछ उपहास कर दिया। उससे कुपित होकर दुर्वासा ने गणों को पिशाच होने का शाप दे दिया। कठोर शाप को सुनते ही शिवगण व्याकुल होकर महर्षि के चरणों पर गिर पड़े और प्रार्थना करने लगे। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने उनसे कहा - हे शिवगणो! तुम हस्तिनापुर के निकट खाण्डव वन में स्थित 'शिववल्लभ' क्षेत्र में जाकर तपस्या करो तो तुम भगवान आशुतोष की कृपा से पिशाच योनि से मुक्त हो जाओगे। पिशाच बने शिवगणों ने शिववल्लभ क्षेत्र में आकर कार्तिक पूर्णिमा तक तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन उन्हें दर्शन दिए और पिशाच योनि से मुक्त कर दिया। तब से शिववल्लभ क्षेत्र का नाम 'गणमुक्तीश्वर' पड़ गया। बाद में 'गणमुक्तीश्वर' का अपभ्रंश 'गढ़मुक्तेश्वर' हो गया। गणमुक्तीश्वर का प्राचीन ऐतिहासिक मंदिर आज भी इस कथा का साक्षी है।
- काशी से भी पवित्र
इस तीर्थ को काशी से भी पवित्र माना गया है, क्योंकि इस तीर्थ की महिमा के विषय में पुराण में उल्लेख है-
काश्यां मरणात्मुक्ति: मुक्ति: मुक्तीश्वर दर्शनात् [1]
गंगा मेला
इसी महत्व के कारण यहाँ प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक एक पखवाडे का विशाल मेला लगता है, जिसमें दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब आदि राज्यों से लाखों श्रद्धालु मेले में आते हैं और पतित पावनी गंगा में स्नान कर भगवान 'गणमुक्तीश्वर' पर गंगाजल चढ़ाकर पुण्यार्जन करते हैं।
धार्मिक कृत्य
यहाँ 'मुक्तीश्वर महादेव' के सामने पितरों को पिंडदान और तर्पण (जल-दान) करने से गया श्राद्ध करने की ज़रूरत नहीं रहती। पांडवों ने महाभारत के युद्ध में मारे गये असंख्य वीरों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान यहीं मुक्तीश्वरनाथ के मंदिर के परिसर में किया था। यहाँ कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को पितरों की शांति के लिए दीपदान करने की परम्परा भी रही है सो पांडवों ने भी अपने पितरों की आत्मशांति के लिए मंदिर के समीप गंगा में दीपदान किया था तथा कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक यज्ञ किया था। तभी से यहाँ कार्तिक पूर्णिमा पर मेला लगना प्रारंभ हुआ। कार्तिक पूर्णिमा पर अन्य नगरों में भी मेले लगते हैं, किन्तु गढ़मुक्तेश्वर का मेला उत्तर भारत का सबसे बड़ा मेला माना जाता है।
व्यापार
यह गंगा के जल मार्ग से व्यापार का मुख्य केन्द्र था। उन दिनों यहाँ इमारती लकड़ी, बांस आदि का व्यापार होता था, जिसका आयात दून और गढ़वाल से किया जाता था। इसके साथ ही यहाँ गुड़ - गल्ले की बड़ी मंडी थी। यहाँ का मूढा़ उद्योग भी अति प्राचीन है। यहाँ के बने मूढे़ कई देशों में निर्यात किए जाते रहे हैं।
कैसे पहुंचें
- सड़क मार्ग से -
दिल्ली से यहाँ की दूरी लगभग 85 किलोमीटर है। उत्तर प्रदेश रोडवेज की नियमित बसें 'आनन्द विहार बस अड्डा, दिल्ली से चलती हैं।
- रेल मार्ग से -
गढ़ मुक्तेश्वर में भी रेलवे स्टेशन है और बृजघाट रेलवे स्टेशन यहाँ से 6 किलोमीटर की दूरी पर है। दिल्ली से यहाँ के लिए नियमित रेलगाड़ियां हैं।
पर्यटन
गढ़मुक्तेश्वर में गंगा किनारे स्थित देवी गंगा को समर्पित मुक्तेश्वर महादेव मंदिर, गंगा मंदिर, मीराबाई की रेती, गुदडी़ मेला, बृज घाट, झारखंडेश्वर महादेव, कल्याणेश्वर महादेव का मंदिर आदि दर्शनीय स्थल हैं। यहाँ गंगा स्नान पर्व भी होता है।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख