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| <quiz display=simple> | | <quiz display=simple> |
| {[[शत्रुघ्न]] के [[पुरोहित]] का क्या नाम था?
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| -शतानीक
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| -उपमन्यु
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| -[[आरुणि]]
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| +कांचन
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| ||[[चित्र:Ramlila-Mathura-13.jpg|right|100px|राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के रूप]]'शत्रुघ्न' [[अयोध्या]] के [[राजा दशरथ]] के चौथे पुत्र और [[श्रीराम]] के छोटे भाई थे। '[[वाल्मीकि रामायण]]' में वर्णित है कि अयोध्या के राजा दशरथ की तीन रानीयाँ थीं- [[कौशल्या]], [[कैकेयी]] और [[सुमित्रा]]। कौशल्या से [[राम]], कैकई से [[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]] और सुमित्रा से [[लक्ष्मण]] एवं [[शत्रुघ्न]] उत्पन्न हुए थे। शत्रुघ्न का शौर्य भी अनुपम था। [[सीता]] के वनवास के बाद एक दिन [[ऋषि|ऋषियों]] ने भगवान श्रीराम की सभा में उपस्थित होकर [[लवणासुर]] के अत्याचारों का वर्णन किया और उसका वध करके उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। शत्रुघ्न ने श्रीराम की आज्ञा से वहाँ जाकर प्रबल पराक्रमी लवणासुर का वध किया और '[[मधुपुरी]]' बसाकर वहाँ बहुत दिनों तक शासन किया।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[शत्रुघ्न]]
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| {किस [[देवता]] का एक नाम 'सर्पमाली' है?
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| -[[विष्णु]]
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| -[[इन्द्र]]
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| -[[वरुण देवता|वरुण]]
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| +[[शिव]]
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| ||[[चित्र:Nageshwar-Mahadev-Gujarat-1.jpg|right|90px|नंगेश्वर महादेव, द्वारका]]'[[शिव]]' [[हिन्दू धर्म]] [[पुराण|पुराणों]] के अनुसार समस्त सृष्टि के आदि कारण हैं। उन्हीं से [[ब्रह्मा]], [[विष्णु]] सहित समस्त सृष्टि का उद्भव होता हैं। भगवान [[शिव]] का परिवार बहुत बड़ा है। एकादश रुद्राणियाँ, चौंसठ योगिनियाँ तथा भैरवादि इनके सहचर और सहचरी हैं। [[पार्वती|माता पार्वती]] की सखियों में [[विजया]] आदि प्रसिद्ध हैं। यद्यपि शिव सर्वत्र व्याप्त हैं, तथापि [[काशी]] और [[कैलास पर्वत|कैलास]], ये दो उनके मुख्य निवास स्थान कहे गये हैं। भगवान शिव [[देवता|देवताओं]] के उपास्य तो हैं ही, साथ ही उन्होंने अनेक [[असुर|असुरों]]- [[अंधक (दैत्य)|अन्धक]], [[दुन्दुभी दैत्य|दुन्दुभी]], महिष, त्रिपुर, [[रावण]], निवात-कवच आदि को भी अतुल ऐश्वर्य प्रदान किया। [[कुबेर]] आदि लोकपालों को उनकी कृपा से [[यक्ष|यक्षों]] का स्वामित्व प्राप्त हुआ था।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[शिव]]
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| {किस [[ऋषि]] को 'समुद्रचुलुक' कहा जाता है?
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| -[[भारद्वाज]]
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| +[[अगस्त्य]]
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| -[[याज्ञवल्क्य]]
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| -[[वाल्मीकि]]
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| ||ब्रह्मतेज के मूर्तिमान स्वरूप महामुनि [[अगस्त्य]] का पावन चरित्र अत्यन्त उदात्त तथा दिव्य है। [[वेद|वेदों]] में इनका वर्णन कई स्थानों पर आया है। [[ऋग्वेद]] का कथन है कि 'मित्र' तथा '[[वरुण देवता|वरुण]]' नामक [[देवता|देवताओं]] का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञिय कलश में पुंजीभूत हुआ और उसी कलश के मध्य भाग से दिव्य तेज:सम्पन्न [[अगस्त्य|महर्षि अगस्त्य]] का प्रादुर्भाव हुआ। महर्षि अगस्त्य महातेजा तथा महातपा [[ऋषि]] थे। समुद्रस्थ राक्षसों के अत्याचार से घबराकर देवता लोग इनकी शरण में गये और अपना दु:ख कह सुनाया। फल यह हुआ कि अगस्त्य सारा [[समुद्र]] पी गये, जिससे सभी राक्षसों का विनाश हो गया। सारा समुद्र पी जाने से ही इन्हें 'समुद्रचुलुक' भी कहा गया है।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[अगस्त्य]]
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| {[[शबरी]] को किस [[ऋषि]] ने अपने [[आश्रम]] में स्थान दिया था?
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| +[[मतंग]]
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| -[[भारद्वाज]]
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| -[[विश्वामित्र]]
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| -[[परशुराम]]
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| ||'मतंग' [[रामायण]] कालीन एक [[ऋषि]] थे, जो [[शबरी]] के गुरु थे। यह एक ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न एक नापित के पुत्र थे। ब्राह्मणी के पति ने इन्हें अपने पुत्र के समान ही पाला था। गर्दभी के साथ संवाद से जब इन्हें यह विदित हुआ कि मैं [[ब्राह्मण]] पुत्र नहीं हूँ, तब इन्होंने ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए घोर तप किया। देवराज [[इन्द्र]] के वरदान से [[मतंग]] 'छन्दोदेव' के नाम से प्रसिद्ध हुए। रामायण के अनुसार [[ऋष्यमूक पर्वत]] के निकट इनका [[आश्रम]] था, जहाँ [[श्रीराम]] गए थे। जब [[बालि]] ने [[दुन्दुभी दैत्य|दुन्दुभी]] का वध किया तो उसके शव को उठाकर बहुत दूर फेंक दिया। दुन्दुभी के शव से [[रक्त]] की बूँदें मतंग ऋषि के [[आश्रम]] में भी गिरीं। इस पर मतंग ने बालि को शाप दिया कि यदि वह ऋष्यमूक पर्वत के निकट भी आयेगा तो मर जायेगा।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[मतंग]]
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| {निम्नलिखित में से किसने [[राम]]-[[लक्ष्मण]] को नागपाश से मुक्ति दिलाई थी?
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| |type="()"}
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| -[[काकभुशुंडी]]
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| +[[गरुड़]]
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| -[[जटायु]]
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| -[[सम्पाती]]
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| ||[[चित्र:Garuda.jpg|right|100px|गरुड़]]'गरुड़' पौराणिक धर्म ग्रंथों और [[हिन्दू धर्म]] की मान्यताओं के अनुसार पक्षियों के राजा और भगवान [[विष्णु]] के वाहन हैं। ये [[कश्यप|कश्यप ऋषि]] और [[विनता]] के पुत्र तथा [[अरुण देवता|अरुण]] के भ्राता हैं। [[लंका]] के राजा [[रावण]] के पुत्र [[इन्द्रजित]] ने जब युद्ध में [[राम]] और [[लक्ष्मण]] को नागपाश से बाँध लिया, तब [[गरुड़]] ने ही उन्हें इस बंधन से मुक्त किया था। हिन्दू धर्म तथा [[पुराण|पुराणों]] में गरुड़ से सम्बन्धित कई प्रसंग मिलते हैं। [[काकभुशुंडी]] नामक एक कौए ने गरुड़ को श्रीराम कथा सुनाई थी। [[महाभारत]] काल में [[कालिय नाग]] भी इनसे भय खाकर [[यमुना नदी|यमुना]] में [[कालियदह]] में छिप गया था।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[गरुड़]]
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| {[[निमि|राजा निमि]] की राजधानी का नाम क्या था? | | {[[निमि|राजा निमि]] की राजधानी का नाम क्या था? |
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| -[[सुन्दर काण्ड वा. रा.|सुन्दरकांड]] | | -[[सुन्दर काण्ड वा. रा.|सुन्दरकांड]] |
| -[[उत्तर काण्ड वा. रा.|उत्तरकांड]] | | -[[उत्तर काण्ड वा. रा.|उत्तरकांड]] |
| ||[[चित्र:Valmiki-Ramayan.jpg|right|80px|रामायण लिखते हुए वाल्मीकि]][[रामायण]] के 'अरण्यकांड' में [[श्रीराम]], [[सीता]] तथा [[लक्ष्मण]] [[दंडकारण्य]] में प्रवेश करते हैं। जंगल में तपस्वी जनों, [[मुनि|मुनियों]] तथा [[ऋषि|ऋषियों]] के [[आश्रम]] में विचरण करते हुए राम उनकी करुण-गाथा सुनते हैं। मुनियों आदि को [[राक्षस|राक्षसों]] का भी भीषण भय रहता है। इसके पश्चात राम [[पंचवटी]] में आकर आश्रम में रहते हैं। वहीं [[शूर्पणखा]] से मिलन होता है। शूर्पणखा के प्रसंग में उसका नाक-कान विहीन करना तथा उसके भाई [[खर दूषण]] तथा [[त्रिशिरा]] से युद्ध और उनका संहार वर्णित है। 'बृहद्धर्मपुराण' के अनुसार इस काण्ड का पाठ उसे करना चाहिए, जो वन, राजकुल, [[अग्नि]] तथा जलपीड़ा से युक्त हो। इसके पाठ से अवश्य मंगल प्राप्ति होती है। अरण्यकांड में 75 सर्ग हैं, जिनमें 2,440 [[श्लोक]] गणना से प्राप्त होते हैं।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[अरण्य काण्ड वा. रा.|अरण्यकांड]] | | ||[[चित्र:Valmiki-Ramayan.jpg|right|80px|रामायण लिखते हुए वाल्मीकि]][[रामायण]] के 'अरण्यकांड' में [[श्रीराम]], [[सीता]] तथा [[लक्ष्मण]] [[दंडकारण्य]] में प्रवेश करते हैं। जंगल में तपस्वी जनों, [[मुनि|मुनियों]] तथा [[ऋषि|ऋषियों]] के [[आश्रम]] में विचरण करते हुए राम उनकी करुण-गाथा सुनते हैं। मुनियों आदि को [[राक्षस|राक्षसों]] का भी भीषण भय रहता है। इसके पश्चात् राम [[पंचवटी]] में आकर आश्रम में रहते हैं। वहीं [[शूर्पणखा]] से मिलन होता है। शूर्पणखा के प्रसंग में उसका नाक-कान विहीन करना तथा उसके भाई [[खर दूषण]] तथा [[त्रिशिरा]] से युद्ध और उनका संहार वर्णित है। 'बृहद्धर्मपुराण' के अनुसार इस काण्ड का पाठ उसे करना चाहिए, जो वन, राजकुल, [[अग्नि]] तथा जलपीड़ा से युक्त हो। इसके पाठ से अवश्य मंगल प्राप्ति होती है। अरण्यकांड में 75 सर्ग हैं, जिनमें 2,440 [[श्लोक]] गणना से प्राप्त होते हैं।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[अरण्य काण्ड वा. रा.|अरण्यकांड]] |
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| {[[लंका]] का राजा [[रावण]] किस [[वाद्य यंत्र|वाद्य]] को बजाने में निपुण था? | | {[[लंका]] का राजा [[रावण]] किस [[वाद्य यंत्र|वाद्य]] को बजाने में निपुण था? |