अग्न्याशय: Difference between revisions
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अग्न्याशय की लैंगरहैंस की द्वीपिकाओं की '''β'''- कोशिकाओं से इंसुलिन तथा '''α'''- कोशिकाओं से ग्लूकैगॉन हार्मोंस स्त्रावित होते हैं। ये एंजाइम कार्बोहाइड्रेट उपापचय का नियंत्रण एवं नियमन करते हैं। | अग्न्याशय की लैंगरहैंस की द्वीपिकाओं की '''β'''- कोशिकाओं से इंसुलिन तथा '''α'''- कोशिकाओं से ग्लूकैगॉन हार्मोंस स्त्रावित होते हैं। ये एंजाइम कार्बोहाइड्रेट उपापचय का नियंत्रण एवं नियमन करते हैं। | ||
{{मानव शरीर2}} | '''अग्न्याशय (पैनक्रिऐस)''' शरीर की एक बड़े आकार की ग्रंथि है जो उदर में अमाशय के निम्न भाग के पीछे की ओर रहती है। इस कारण स्वाभाविक अवस्था में यह आमाशय और वपा (ओमेंटम) से ढकी रहती है। इसका दाहिना बड़ा भाग, जो '''सिर''' कहलाता है, पक्वाशय की मोड़ के भीतर रहता है। इस ग्रंथि का दूसरा लंबा भाग, जो '''गात्र''' कहलाता है, सिर से आरंभ होकर पृष्ठवंश (रीढ़) के सामने से होता हुआ दाहिनी ओर से बाईं ओर चला जाता है। वहाँ वह पतला हो जाता है और '''पुच्छ''' कहलाता है। बाईं ओर वह '''[[प्लीहा]]''' तक पहुँच जाता है और उससे लगा रहता है। | ||
* इस ग्रंथि का रंग धूसर या मटमैला होता है। उस पर शहतूत के दानों के समान दाने से उठे रहते हैं। इस ग्रंथि में रक्त संचार अधिक होता है। [[प्लीहा]] की धमनी की बहुत सी शाखाएँ इसमें रस पहुँचाती हैं। यदि इसका व्यवच्छेदन किया जाए तो इससे एक मोटी श्वेत रंग की नलिका पुच्छ से आरंभ होकर सिर के दाहिने किनारे तक जाती दिखाई देगी। ग्रंथि से भिन्न-भिन्न भागों से अनेक सूक्ष्म नलिकाएँ आकर इस बड़ी नलिका में मिल जाती हैं और वहाँ उत्पन्न अग्न्याशयिक रस को नलिका में पहुँचाती है। यह नलिका सारी [[ग्रंथि]] में होती हुई दाहिने किनारे पर पहुँचती है। फिर यह वहाँ की नलिका से मिल जाती है, जिससे संयुक्त पित्त नलिका बनती है। यह नलिका पक्वाशय की भित्ति को भेदकर उसके भीतर एक छिद्र द्वारा खुलती है। इस छिद्र से होता हुआ, समस्त ग्रंथि में बना हुआ, अग्न्याशयिक रस पक्वाशय में पहुँचता है; वहाँ यह रस आमाशय से आए हुए आहार के साथ मिल जाता है और उसके अवयवों पर प्रबल पाचक क्रिया करता है। | |||
* इस ग्रंथि में दो भाग होते हैं। एक भाग पाचक रस बनाता है जो नलिका में होकर पक्वाशय में पहुँच जाता है। दूसरे सूक्ष्म भाग की [[कोशिका|कोशिकाओं]] के द्वीप प्रथम भाग की कोशिकाओं के ही बीच में स्थित रहते हैं। ये [[द्वीप]] एक वस्तु उत्पन्न करते हैं जिसकी इन्स्यूलीन कहते हैं। यह एक रासायनिक पदार्थ अथवा [[हारमोन]] है जो सीधा [[रक्त]] में चला जाता है, किसी नलिका द्वारा बाहर नहीं निकलता। यह हारमोन [[कार्बोहाइड्रेट]] के चयापचय का नियंत्रण करता है। इसकी उत्पत्ति बंद हो जाने या कम हो जाने से [[मधुमेह]] (डायाबिटीज़, वस्तुत डायाबिटीज़ मेलिटस) उत्पन्न हो जाता है। इन द्वीपों को लैगरहैंस ने 1870 के लगभग खोज निकाला था। इस कारण ये लैगरहैंस के द्वीप कहलाते हैं। पशुओं के अग्न्याशय से सन् 1921 में प्रथम बार बैटिंग तथा वेस्ट ने इन्स्यूलीन तैयार की थी, जो [[मधुमेह]] की विशिष्ट औषधि है और जिससे असंख्य व्यक्तियों की प्राण रक्षा होता है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=77,78 |url=}}</ref> | |||
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Latest revision as of 09:29, 20 May 2018
thumb|250px|अग्न्याशय
Pancreas
अग्न्याशय (अंग्रेज़ी:Pancreas) अधिकांश जीव जंतुओं के शरीर का आवश्यक अंग हैं। इस लेख में मानव शरीर से संबंधित उल्लेख है। अग्न्याशय एक मिश्रित ग्रंथि होती है। इसका अन्तःस्रावी भाग लैंगरहेंस की द्विपिकाएँ होती हैं। इनसे इंसुलिन हॉर्मोन स्त्रावित होता है जो रक्त में शर्करा की मात्रा का नियमन करता है। अग्न्याशय के बहिस्त्रावी भाग द्वारा अग्न्याशयी रस स्त्रावित होता है। जो भोजन के पाचन में भाग लेता है।
अग्न्याशय के कार्य
अग्न्याशय निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कार्य करता है-
- अग्न्याशयी रस का निर्माण करना।
- इन्सुलिन, ग्लूकैगोन हार्मोन का स्रावण।
अग्न्याशय रस का स्त्रावण
अग्न्याशय के पिण्डकों की कोशिकाएँ अग्न्याशय रस स्त्रावित करती है। इसमें ट्रिप्सिन, एमाइलेज, तथा लाइपेज एंजाइम होते हैं। जो क्रमशः प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट तथा वसा के पाचन में सहायक होते हैं।
हॉर्मोनों का स्त्रावण
अग्न्याशय की लैंगरहैंस की द्वीपिकाओं की β- कोशिकाओं से इंसुलिन तथा α- कोशिकाओं से ग्लूकैगॉन हार्मोंस स्त्रावित होते हैं। ये एंजाइम कार्बोहाइड्रेट उपापचय का नियंत्रण एवं नियमन करते हैं। अग्न्याशय (पैनक्रिऐस) शरीर की एक बड़े आकार की ग्रंथि है जो उदर में अमाशय के निम्न भाग के पीछे की ओर रहती है। इस कारण स्वाभाविक अवस्था में यह आमाशय और वपा (ओमेंटम) से ढकी रहती है। इसका दाहिना बड़ा भाग, जो सिर कहलाता है, पक्वाशय की मोड़ के भीतर रहता है। इस ग्रंथि का दूसरा लंबा भाग, जो गात्र कहलाता है, सिर से आरंभ होकर पृष्ठवंश (रीढ़) के सामने से होता हुआ दाहिनी ओर से बाईं ओर चला जाता है। वहाँ वह पतला हो जाता है और पुच्छ कहलाता है। बाईं ओर वह प्लीहा तक पहुँच जाता है और उससे लगा रहता है।
- इस ग्रंथि का रंग धूसर या मटमैला होता है। उस पर शहतूत के दानों के समान दाने से उठे रहते हैं। इस ग्रंथि में रक्त संचार अधिक होता है। प्लीहा की धमनी की बहुत सी शाखाएँ इसमें रस पहुँचाती हैं। यदि इसका व्यवच्छेदन किया जाए तो इससे एक मोटी श्वेत रंग की नलिका पुच्छ से आरंभ होकर सिर के दाहिने किनारे तक जाती दिखाई देगी। ग्रंथि से भिन्न-भिन्न भागों से अनेक सूक्ष्म नलिकाएँ आकर इस बड़ी नलिका में मिल जाती हैं और वहाँ उत्पन्न अग्न्याशयिक रस को नलिका में पहुँचाती है। यह नलिका सारी ग्रंथि में होती हुई दाहिने किनारे पर पहुँचती है। फिर यह वहाँ की नलिका से मिल जाती है, जिससे संयुक्त पित्त नलिका बनती है। यह नलिका पक्वाशय की भित्ति को भेदकर उसके भीतर एक छिद्र द्वारा खुलती है। इस छिद्र से होता हुआ, समस्त ग्रंथि में बना हुआ, अग्न्याशयिक रस पक्वाशय में पहुँचता है; वहाँ यह रस आमाशय से आए हुए आहार के साथ मिल जाता है और उसके अवयवों पर प्रबल पाचक क्रिया करता है।
- इस ग्रंथि में दो भाग होते हैं। एक भाग पाचक रस बनाता है जो नलिका में होकर पक्वाशय में पहुँच जाता है। दूसरे सूक्ष्म भाग की कोशिकाओं के द्वीप प्रथम भाग की कोशिकाओं के ही बीच में स्थित रहते हैं। ये द्वीप एक वस्तु उत्पन्न करते हैं जिसकी इन्स्यूलीन कहते हैं। यह एक रासायनिक पदार्थ अथवा हारमोन है जो सीधा रक्त में चला जाता है, किसी नलिका द्वारा बाहर नहीं निकलता। यह हारमोन कार्बोहाइड्रेट के चयापचय का नियंत्रण करता है। इसकी उत्पत्ति बंद हो जाने या कम हो जाने से मधुमेह (डायाबिटीज़, वस्तुत डायाबिटीज़ मेलिटस) उत्पन्न हो जाता है। इन द्वीपों को लैगरहैंस ने 1870 के लगभग खोज निकाला था। इस कारण ये लैगरहैंस के द्वीप कहलाते हैं। पशुओं के अग्न्याशय से सन् 1921 में प्रथम बार बैटिंग तथा वेस्ट ने इन्स्यूलीन तैयार की थी, जो मधुमेह की विशिष्ट औषधि है और जिससे असंख्य व्यक्तियों की प्राण रक्षा होता है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 77,78 |
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