जागते रहो: Difference between revisions
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'''जागते रहो''' वर्ष [[1956]] में बनी [[हिन्दी भाषा]] की एक फ़िल्म है जिसमें [[राज कपूर]] ने अभिनय किया था। अपने समय में जागते रहो ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर के | '''जागते रहो''' वर्ष [[1956]] में बनी [[हिन्दी भाषा]] की एक फ़िल्म है जिसमें [[राज कपूर]] ने अभिनय किया था। अपने समय में जागते रहो ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फ़िल्म समारोह में पुरस्कार जीता भी था। जागते रहो, एक सामाजिक व्यंग्य है। इसने समाज के सामने एक चेतावनी प्रस्तुत की समाज को पूरी तरह भ्रष्ट होने से बचाने के लिये। यह एक प्रयास था समाज में मौजूद मासूमियत को बचाये रखने के लिये। सामाजिक रुप से फ़िल्म अपने उद्देश्यों में कितनी सफल रही इस पर वाद-विवाद और बहस की पूरी गुंजाइश है क्योंकि पिछली सदी के पचास के दशक से अब तक पिछले साठ सालों में भ्रष्टाचार तो बेतहाशा बढ़ा है। | ||
==कथावस्तु== | ==कथावस्तु== | ||
जागते रहो सामाजिक व्यंग्य की नदी पर हास्य की लहरें बहाती | जागते रहो सामाजिक व्यंग्य की नदी पर हास्य की लहरें बहाती हुई लाती है और भ्रष्टाचार की खम ठोक कर जम चुकी चटटानों को परत दर परत खुरचने और रेत बनाने का काम करती जाती हैं। जागते रहो सिर्फ वही नहीं है जो साफ साफ परदे पर दिख रहा है बल्कि यह रुपक की भाषा में काम करती है। शायद बिल्कुल ऐसा न होता हो या न हो सकता हो पर फंतासी के स्तर पर विचरती हुई दृष्टान्तों की प्रकृति लेकर भी यह घनघोर यथार्थवादी स्वभाव की फ़िल्म के रुप में सामने आती है। | ||
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भ्रष्टाचार से ग्रसित [[भारत]] है एक बड़े शहर में बसी वह इमारत, जहाँ गाँव से आया भूखा प्यासा एक ग़रीब अनाम आदमी ([[राज कपूर]]) पुलिस के डर से घुस जाता है और इस ऊँची इमारत में रहने वाले लोगों के काले कारनामे अपनी आँखों से देख पाने का मौका अनायास ही पा जाता है। यह सफेदपोशों के शान से रहने की इमारत है क्योंकि उन्होंने इस इमारत में रहने के लिये पैसे देकर मकान | भ्रष्टाचार से ग्रसित [[भारत]] है एक बड़े शहर में बसी वह इमारत, जहाँ गाँव से आया भूखा प्यासा एक ग़रीब अनाम आदमी ([[राज कपूर]]) पुलिस के डर से घुस जाता है और इस ऊँची इमारत में रहने वाले लोगों के काले कारनामे अपनी आँखों से देख पाने का मौका अनायास ही पा जाता है। यह सफेदपोशों के शान से रहने की इमारत है क्योंकि उन्होंने इस इमारत में रहने के लिये पैसे देकर मकान ख़रीदे हैं। यहाँ अवैध शराब बनाने वाले रहते हैं, यहाँ नकली नोटों को छापने वाले सेठ रहते हैं, यहाँ काला बाज़ारिये भी रहते हैं और नकली दवाइयाँ बनाने वाले भी। अनाम घुसपैठिया न चाहते हुये भी इस इमारत में भिन्न भिन्न लोगों की कारगुजारियों का गवाह बनता है। <br /> | ||
वह देखता है एक युवती को उसके ही घर में उसके प्रेमी के साथ प्रेमालाप करते हुये जबकि युवती का [[पिता]] घर में ही दूसरे ही कमरे में मौजूद है। पिता अपनी पुत्री के प्रेमी को बिल्कुल भी पसंद नहीं करता है। | वह देखता है एक युवती को उसके ही घर में उसके प्रेमी के साथ प्रेमालाप करते हुये जबकि युवती का [[पिता]] घर में ही दूसरे ही कमरे में मौजूद है। पिता अपनी पुत्री के प्रेमी को बिल्कुल भी पसंद नहीं करता है। फ़िल्म बड़ी दिलचस्प स्थितियाँ दिखाती है जब इमारत के लोग अंजान घुसपैठिये को ढ़ूँढ़ते हुये इस युवती के घर के बाहर जमा हो जाते हैं। युवती और उसका प्रेमी इस अंजान और तथाकथित चोर को लोगों के हवाले नहीं कर सकते क्योंकि ऐसा करने से उनका राज भी खुल जायेगा। ऐसी ही परिस्थितियों से अनाम व्यक्त्ति रुबरु होता रहता है और लोगों की कमज़ोरियाँ ही उसका बचाव भीड़ से करती रहती हैं। अनाम व्यक्त्ति की लुकाछिपी वाली यात्रा के दौरान बड़े दिलचस्प चरित्र उससे टकराते रहते हैं। इन चरित्रों के द्वारा फ़िल्म लोगों की व्यवहारगत कमियों और बुराइयों पर कटाक्ष करती चलती है। जैसे कि एक महाशय अपने पड़ोसी को चटखारे लेकर बताते हैं कि इमारत में रहने वाले फलाने व्यक्ति की पुत्री का इश्क इमारत में ही रहने वाले एक युवा से चल रहा है। कुछ समय बाद परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बन जाती हैं कि उनका पड़ोसी समझता है कि इन महाशय की पत्नी का भी कोई अन्य आशिक है। लोगों की दूसरों के जीवन में बिना मतलब दख़ल देने जैसी सामान्य बुराई पर भी फ़िल्म खूब केंद्रीत रहती है।<ref name="cinemanthan">{{cite web |url=http://www.cinemanthan.info/index.php/2010/09/jagte-raho/ |title=जागते रहो(1956) : जागो भारत प्यारे जागो |accessmonthday=25 मार्च |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=cine manthan |language=हिंदी }}</ref> | ||
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[[मोतीलाल (अभिनेता)|मोतीलाल]]तो खैर अभिनय | [[मोतीलाल (अभिनेता)|मोतीलाल]]तो खैर अभिनय जगत् के एक ऐसे पारस हैं जो किसी भी फ़िल्म को सोने जैसी बना डालते हैं। ज़िंदगी ख्वाब है गाते हुये वे नशे में लड़खड़ाते हुये परदे पर आते हैं और अपना जादू फैलाना शुरु कर देते हैं। मोतीलाल द्वारा शराबे के नशे में धुत व्यक्त्ति का अभिनय और नशे में ही ड्रम को आदमी समझ कर बातें करने वाले दृष्य और नशे में ही राज कपूर को अपनी पत्नी समझ कर लोशा लोशा गाना गाने और नाचने के दृष्य देख ऐसे दृष्य करने के महारथी [[दिलीप कुमार]] और [[अमिताभ बच्चन]] को भी रश्क हुआ होगा कि मोतीलाल ने कितनी सहजता से इन दृष्यों को अपनी अनूठी अभिनय प्रतिभा से जीवंत कर दिया है। राज कपूर में भूमिका और कथानक की गहराई समझने की बुद्धिमत्ता कूट कूट कर भरी थी तभी उन्होंने न सिर्फ इस अनूठी फ़िल्म में काम किया बल्कि इसे अपने बैनर आर के बैनर तले निर्मित भी किया और निर्देशन की भूमिका सौंपी इप्टा के शम्भू और अमित मित्रा को। कुछ देर बाद ही इसे याद रख पाना मुश्किल हो जाता है कि परदे पर राज कपूर कहीं मौजूद भी हैं। मुश्किल से दो संवाद पाने वाली यह भूमिका उनके अभिनय जीवन की अविस्मरणीय भूमिका है। और यह उनके अभिनय के लिहाज से अविस्मरणीय नहीं कही जायेगी पर उनके परदे पर उपस्थित रहने की वजह से। कुछ दृष्यों में लगेगा कि वे नाटकीय हो रहे हैं और ऐसा तो वे और फ़िल्मों में काम करते समय नहीं करते हैं पर जैसे जैसे फ़िल्म आगे बढ़ती है राज कपूर खो जाते हैं और मुसीबत का मारा वह अनाम ग़रीब चरित्र परदे पर रह जाता है जिसके सामने परेशानियाँ आती रहती हैं और जो अंजाने में ही उस इमारत में रह रहे लोगों और अपराधियों के भेद खोलता चला जाता है। [[नर्गिस]] को एक विशेष भूमिका में रखा गया है। वे अंत में राज कपूर को पानी पिलाती हैं। एक रात में बीती घटनाओं पर आधारित फ़िल्म की कथा एक आधुनिक कहानी लगती है और राधू कर्माकर के कैमरे ने स्टाइलिश अंदाज़में इमारत में चल रही उथल पुथल को पकड़ा है।<ref name="cinemanthan"/> | ||
==संगीत== | ==संगीत== | ||
[[सलिल चौधरी]] का इस | [[सलिल चौधरी]] का इस फ़िल्म में दिया गया संगीत तो बरसों से [[सिनेमा]] और संगीत प्रेमियों को लुभाता आ ही रहा है। | ||
Latest revision as of 06:39, 10 February 2021
जागते रहो
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निर्देशक | अमित मैत्रा और शम्भू मित्रा |
निर्माता | राज कपूर |
पटकथा | के.ए. अब्बास, अमित मैत्रा और शम्भू मित्रा |
कलाकार | राज कपूर, मोतीलाल और नर्गिस |
संगीत | सलिल चौधरी |
छायांकन | राधु कर्माकर |
वितरक | आर. के. स्टूडियो |
प्रदर्शन तिथि | 1956 |
अवधि | 149 मिनट |
भाषा | हिंदी, बांग्ला |
जागते रहो वर्ष 1956 में बनी हिन्दी भाषा की एक फ़िल्म है जिसमें राज कपूर ने अभिनय किया था। अपने समय में जागते रहो ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फ़िल्म समारोह में पुरस्कार जीता भी था। जागते रहो, एक सामाजिक व्यंग्य है। इसने समाज के सामने एक चेतावनी प्रस्तुत की समाज को पूरी तरह भ्रष्ट होने से बचाने के लिये। यह एक प्रयास था समाज में मौजूद मासूमियत को बचाये रखने के लिये। सामाजिक रुप से फ़िल्म अपने उद्देश्यों में कितनी सफल रही इस पर वाद-विवाद और बहस की पूरी गुंजाइश है क्योंकि पिछली सदी के पचास के दशक से अब तक पिछले साठ सालों में भ्रष्टाचार तो बेतहाशा बढ़ा है।
कथावस्तु
जागते रहो सामाजिक व्यंग्य की नदी पर हास्य की लहरें बहाती हुई लाती है और भ्रष्टाचार की खम ठोक कर जम चुकी चटटानों को परत दर परत खुरचने और रेत बनाने का काम करती जाती हैं। जागते रहो सिर्फ वही नहीं है जो साफ साफ परदे पर दिख रहा है बल्कि यह रुपक की भाषा में काम करती है। शायद बिल्कुल ऐसा न होता हो या न हो सकता हो पर फंतासी के स्तर पर विचरती हुई दृष्टान्तों की प्रकृति लेकर भी यह घनघोर यथार्थवादी स्वभाव की फ़िल्म के रुप में सामने आती है।
कलाकार
- राज कपूर
- नर्गिस (अतिथि भूमिका)
- मोतीलाल
- प्रदीप कुमार
- सुमित्रा देवी
- सुलोचना चटर्जी
कहानी
भ्रष्टाचार से ग्रसित भारत है एक बड़े शहर में बसी वह इमारत, जहाँ गाँव से आया भूखा प्यासा एक ग़रीब अनाम आदमी (राज कपूर) पुलिस के डर से घुस जाता है और इस ऊँची इमारत में रहने वाले लोगों के काले कारनामे अपनी आँखों से देख पाने का मौका अनायास ही पा जाता है। यह सफेदपोशों के शान से रहने की इमारत है क्योंकि उन्होंने इस इमारत में रहने के लिये पैसे देकर मकान ख़रीदे हैं। यहाँ अवैध शराब बनाने वाले रहते हैं, यहाँ नकली नोटों को छापने वाले सेठ रहते हैं, यहाँ काला बाज़ारिये भी रहते हैं और नकली दवाइयाँ बनाने वाले भी। अनाम घुसपैठिया न चाहते हुये भी इस इमारत में भिन्न भिन्न लोगों की कारगुजारियों का गवाह बनता है।
वह देखता है एक युवती को उसके ही घर में उसके प्रेमी के साथ प्रेमालाप करते हुये जबकि युवती का पिता घर में ही दूसरे ही कमरे में मौजूद है। पिता अपनी पुत्री के प्रेमी को बिल्कुल भी पसंद नहीं करता है। फ़िल्म बड़ी दिलचस्प स्थितियाँ दिखाती है जब इमारत के लोग अंजान घुसपैठिये को ढ़ूँढ़ते हुये इस युवती के घर के बाहर जमा हो जाते हैं। युवती और उसका प्रेमी इस अंजान और तथाकथित चोर को लोगों के हवाले नहीं कर सकते क्योंकि ऐसा करने से उनका राज भी खुल जायेगा। ऐसी ही परिस्थितियों से अनाम व्यक्त्ति रुबरु होता रहता है और लोगों की कमज़ोरियाँ ही उसका बचाव भीड़ से करती रहती हैं। अनाम व्यक्त्ति की लुकाछिपी वाली यात्रा के दौरान बड़े दिलचस्प चरित्र उससे टकराते रहते हैं। इन चरित्रों के द्वारा फ़िल्म लोगों की व्यवहारगत कमियों और बुराइयों पर कटाक्ष करती चलती है। जैसे कि एक महाशय अपने पड़ोसी को चटखारे लेकर बताते हैं कि इमारत में रहने वाले फलाने व्यक्ति की पुत्री का इश्क इमारत में ही रहने वाले एक युवा से चल रहा है। कुछ समय बाद परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बन जाती हैं कि उनका पड़ोसी समझता है कि इन महाशय की पत्नी का भी कोई अन्य आशिक है। लोगों की दूसरों के जीवन में बिना मतलब दख़ल देने जैसी सामान्य बुराई पर भी फ़िल्म खूब केंद्रीत रहती है।[1]
अभिनय
मोतीलालतो खैर अभिनय जगत् के एक ऐसे पारस हैं जो किसी भी फ़िल्म को सोने जैसी बना डालते हैं। ज़िंदगी ख्वाब है गाते हुये वे नशे में लड़खड़ाते हुये परदे पर आते हैं और अपना जादू फैलाना शुरु कर देते हैं। मोतीलाल द्वारा शराबे के नशे में धुत व्यक्त्ति का अभिनय और नशे में ही ड्रम को आदमी समझ कर बातें करने वाले दृष्य और नशे में ही राज कपूर को अपनी पत्नी समझ कर लोशा लोशा गाना गाने और नाचने के दृष्य देख ऐसे दृष्य करने के महारथी दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन को भी रश्क हुआ होगा कि मोतीलाल ने कितनी सहजता से इन दृष्यों को अपनी अनूठी अभिनय प्रतिभा से जीवंत कर दिया है। राज कपूर में भूमिका और कथानक की गहराई समझने की बुद्धिमत्ता कूट कूट कर भरी थी तभी उन्होंने न सिर्फ इस अनूठी फ़िल्म में काम किया बल्कि इसे अपने बैनर आर के बैनर तले निर्मित भी किया और निर्देशन की भूमिका सौंपी इप्टा के शम्भू और अमित मित्रा को। कुछ देर बाद ही इसे याद रख पाना मुश्किल हो जाता है कि परदे पर राज कपूर कहीं मौजूद भी हैं। मुश्किल से दो संवाद पाने वाली यह भूमिका उनके अभिनय जीवन की अविस्मरणीय भूमिका है। और यह उनके अभिनय के लिहाज से अविस्मरणीय नहीं कही जायेगी पर उनके परदे पर उपस्थित रहने की वजह से। कुछ दृष्यों में लगेगा कि वे नाटकीय हो रहे हैं और ऐसा तो वे और फ़िल्मों में काम करते समय नहीं करते हैं पर जैसे जैसे फ़िल्म आगे बढ़ती है राज कपूर खो जाते हैं और मुसीबत का मारा वह अनाम ग़रीब चरित्र परदे पर रह जाता है जिसके सामने परेशानियाँ आती रहती हैं और जो अंजाने में ही उस इमारत में रह रहे लोगों और अपराधियों के भेद खोलता चला जाता है। नर्गिस को एक विशेष भूमिका में रखा गया है। वे अंत में राज कपूर को पानी पिलाती हैं। एक रात में बीती घटनाओं पर आधारित फ़िल्म की कथा एक आधुनिक कहानी लगती है और राधू कर्माकर के कैमरे ने स्टाइलिश अंदाज़में इमारत में चल रही उथल पुथल को पकड़ा है।[1]
संगीत
सलिल चौधरी का इस फ़िल्म में दिया गया संगीत तो बरसों से सिनेमा और संगीत प्रेमियों को लुभाता आ ही रहा है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 जागते रहो(1956) : जागो भारत प्यारे जागो (हिंदी) cine manthan। अभिगमन तिथि: 25 मार्च, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
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