अंत्येष्टि संस्कार: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
आदित्य चौधरी (talk | contribs) No edit summary |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "सन्न्यासी" to "संन्यासी") |
||
(2 intermediate revisions by the same user not shown) | |||
Line 46: | Line 46: | ||
'''असामयिक अथवा असाधारण स्थिति में''' मृत व्यक्तियों के अंत्येष्टि संस्कार में कई अपवाद अथवा विशेष क्रियाएँ होती हैं। आहिताग्नि, अनाहिताग्नि, शिशु, गर्भिणी, नवप्रसूता, रजस्वला, परिव्राजक-संन्यासी-वानप्रस्थ, प्रवासी और पतित के [[संस्कार]] विभिन्न विधियों से होते हैं। | '''असामयिक अथवा असाधारण स्थिति में''' मृत व्यक्तियों के अंत्येष्टि संस्कार में कई अपवाद अथवा विशेष क्रियाएँ होती हैं। आहिताग्नि, अनाहिताग्नि, शिशु, गर्भिणी, नवप्रसूता, रजस्वला, परिव्राजक-संन्यासी-वानप्रस्थ, प्रवासी और पतित के [[संस्कार]] विभिन्न विधियों से होते हैं। | ||
==धार्मिकविश्वास== | ==धार्मिकविश्वास== | ||
'''हिन्दुओं में जीवच्छ्राद्ध की प्रथा भी प्रचलित है'''। धार्मिक [[हिन्दू]] का विश्वास है कि सदगति (स्वर्ग अथवा मोक्ष) की प्राप्ति के लिए विधिपूर्वक अंत्येष्टि संस्कार आवश्यक है। यदि किसी का पुत्र न हो, अथवा यदि उसको इस बात का आश्वासन न हो कि मरने के पश्चात् उसकी सविधि अंत्येष्टि क्रिया होगी, तो वह अपने जीते-जी अपना श्राद्धकर्म स्वयं कर सकता है। उसका पुतला बनाकर उसका दाह होता है। शेष क्रियाएँ सामान्य रूप से होती हैं। बहुत से लोग | '''हिन्दुओं में जीवच्छ्राद्ध की प्रथा भी प्रचलित है'''। धार्मिक [[हिन्दू]] का विश्वास है कि सदगति (स्वर्ग अथवा मोक्ष) की प्राप्ति के लिए विधिपूर्वक अंत्येष्टि संस्कार आवश्यक है। यदि किसी का पुत्र न हो, अथवा यदि उसको इस बात का आश्वासन न हो कि मरने के पश्चात् उसकी सविधि अंत्येष्टि क्रिया होगी, तो वह अपने जीते-जी अपना श्राद्धकर्म स्वयं कर सकता है। उसका पुतला बनाकर उसका दाह होता है। शेष क्रियाएँ सामान्य रूप से होती हैं। बहुत से लोग सन्न्यास आश्रम में प्रवेश के पूर्व अपना जीवच्छ्राद्ध कर लेते हैं। | ||
Line 65: | Line 65: | ||
[[Category:हिन्दू संस्कार]] | [[Category:हिन्दू संस्कार]] | ||
[[Category:संस्कृति कोश]] | [[Category:संस्कृति कोश]] | ||
[[Category:हिन्दू धर्म]] [[Category:हिन्दू धर्म कोश]] | [[Category:हिन्दू धर्म]] [[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ | __NOTOC__ |
Latest revision as of 11:42, 3 August 2017
- विस्तार में पढ़ने लिए देखें: पितृमेध या अन्त्यकर्म संस्कार
हिन्दू जीवन के प्रसिद्ध सोलह संस्कारों में से यह अन्तिम संस्कार है, जिसमें जाति व धार्मिक मत के अनुसार भिन्नता होते हुए भी सामान्यत: मृत व्यक्ति की दाहक्रिया आदि की जाती है। अंत्येष्टि का अर्थ है, अन्तिम यज्ञ। दूसरे शब्दों में जीवन यज्ञ की यह अन्तिम प्रक्रिया है। आदर्श रूप से संस्कार गर्भधारण के क्षण से ही शुरू हो जाते हैं और व्यक्ति के जीवन में प्रत्येक महत्त्वपूर्ण चरण पर संपन्न किए जाते हैं। मृत्यु निकट आने पर रिश्तेदारों और पुरोहित को बुलाया जाता है, मंत्री व पवित्र ग्रंथों का पाठ होता है और आनुष्ठानिक भेंटें तैयार की जाती हैं। मृत्यु के उपरांत शव को जल्द से जल्द श्मशान घाट पर ले जाते हैं, जो आमतौर पर नदी तट पर स्थित होता है। मृतक का सबसे बड़ा पुत्र और आनुष्ठानिक पुरोहित दाह संस्कार करते हैं। प्रथम पन्द्रह संस्कार ऐहिक जीवन को पवित्र और सुखी बनाने के लिए है। बौधायन पितृमेधसूत्र (3.1.4) में कहा गया है-
जातसंस्कारैणेमं लोकमभिजयति मृतसंस्कारैणामुं लोकम्।
(जातकर्म आदि संस्कारों से मनुष्य इस लोक को जीतता है; मृत-संस्कार, "अंत्येष्टि" से परलोक को)।
इसके बाद ब्राह्मणों में 10 दिन तक (क्षत्रिय में 12, वैश्यों में 15 और शूद्रों में 30 दिन) परिवार के सदस्यों को अपवित्र समझा जाता है। और उन पर कुछ वर्जनाएं लागू रहती हैं। इस अवधि में वे अनुष्ठान करते है। ताकि आत्मा अगले जीवन में प्रवेश कर ले। इन अनुष्ठानों में दूध और जल तथा अधपके चावल के पिंडों का अर्पण शामिल है। निश्चित तिथि को श्मशान से एकत्रित अस्थि अवशेष या तो दफ़न कर दिया जाता है या फिर नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। मृतकों के सम्मान में निश्चित तिथियों पर संबंधियों द्वारा श्राद्ध किए जाते हैं।
अनिवार्य संस्कार
यह अनिवार्य संस्कार है। रोगी को मृत्यु से बचाने के लिए अथक प्रयास करने पर भी समय अथवा असमय में उसकी मृत्यु होती ही है। इस स्थिति को स्वीकार करते हुए बौधायन[1] ने पुन: कहा है-
जातस्य वै मनुष्यस्य ध्रुवं मरणमिति विजानीयात्।
तस्माज्जाते न प्रहृष्येन्मृते च न विषीदेत्।
अकस्मादागतं भूतमकस्मादेव गच्छति।
तस्माज्जातं मृञ्चैव सम्पश्यन्ति सुचेतस:।
(उत्पन्न हुए मनुष्य का मरण ध्रुव है, ऐसा जानना चाहिए। इसीलिए किसी के जन्म लेने पर न तो प्रसन्नता से फूल जाना चाहिए और न किसी के मरने पर अत्यन्त विषाद करना चाहिए। यह जीवधारी अकस्मात् कहीं से आता है और अकस्मात् ही कहीं चला जाता है। इसीलिए बुद्धिमान को जन्म और मरण को समान रूप से देखना चाहिए)।
तस्यान्मातरं पितरमाचार्य पत्नीं पुत्रं शि यमन्तेवासिनं पितृव्यं मातुलं सगोत्रमसगोत्रं वा दायमुपयच्छेद्दहनं संस्कारेण संस्कृर्वन्ति।।
[इसीलिए यदि मृत्यु हो ही जाए तो, माता, पिता, आचार्य, पत्नी, पुत्र, शिष्य (अन्तेवासी), पितृव्य (चाचा), मातुल (मामा), सगोत्र, असगोत्र का दाय (दायित्व) ग्रहण करना चाहिए और संस्कारपूर्ण उसका दाह करना चाहिए]।
विधियाँ
अंत्येष्टिक्रिया की विधियाँ कालक्रम से बदलती जा रही हैं। पहले शव को वैसा ही छोड़ दिया जाता था, या जल में प्रवाहित कर दिया जाता था। बाद में उसे किसी वृक्ष की डाल से लटका देते थे। आगे चलकर समाधि (गाड़ने) की पृथा चली। वैदिक काल में जब यज्ञ की प्रधानता हुई, तो मृत शरीर भी यज्ञाग्नि द्वारा ही दग्ध होने लगा और दाहसंस्कार की प्रधानता हो गई (ये निखाता ये परोप्ता ये दग्धा ये चोद्धिता:[2])। हिन्दुओं में शव का दाह संस्कार ही बहुप्रचलित है; यद्यपि किन्हीं-किन्हीं अवस्थाओं में अपवाद रूप से जल-प्रवाह और समाधि की प्रथा भी अभी जीवित है।
खण्ड-विभाजन
सम्पूर्ण अंत्येष्टि संस्कार को निम्नांकित खण्डों विभाजित किया जा सकता है-
(1)मृत्यु के आगमन के पूर्व की क्रिया
- सम्बन्धियों से अन्तिम विदाई
- दान-पुण्य
- वैतरणी (गाय का दान)
- मृत्यु की तैयारी
(2)प्राग्-दाह के विधि-विधान
(3)अर्थी
(4)शवोत्त्थान
(5)शवयात्रा
(6)अनुस्तरणी (राजगवी: श्मशान की गाय)
(7)दाह की तैयारी
(8)विधवा का चितारोहण (कलि में वर्जित)
(9)दाहयज्ञ
(10)प्रत्यावर्तन (श्मशान से लौटना)
(11)अदककर्म
(12)शोकार्तों के सान्त्वना
(13)अशौच (सामयिक छूत: अस्पृश्यता)
(14)अस्थिसंचयन
(15)शान्तिकर्म
(16)श्मशान (अवशेष पर समाधिनिर्माण)। आजकल अवशेष का जलप्रवाह और उसके कुछ अंश का गंगा अथवा अन्य किसी पवित्र नदी में प्रवाह होता है।
(17)पिण्डदान (मृत के प्रेत जीवन में उसके लिए भोजन-दान)।
(18)सपिण्डीकरण (पितृलोक में पितरों के साथ प्रेत को मिलाना)। यह क्रिया बारहवें दिन, तीन पक्ष के अन्त में अथवा एक वर्ष के अन्त में होती है। ऐसा विश्वास है कि प्रेत को पितृलोक में पहुँचने में एक वर्ष लगता है।
विशेष क्रियाएँ
असामयिक अथवा असाधारण स्थिति में मृत व्यक्तियों के अंत्येष्टि संस्कार में कई अपवाद अथवा विशेष क्रियाएँ होती हैं। आहिताग्नि, अनाहिताग्नि, शिशु, गर्भिणी, नवप्रसूता, रजस्वला, परिव्राजक-संन्यासी-वानप्रस्थ, प्रवासी और पतित के संस्कार विभिन्न विधियों से होते हैं।
धार्मिकविश्वास
हिन्दुओं में जीवच्छ्राद्ध की प्रथा भी प्रचलित है। धार्मिक हिन्दू का विश्वास है कि सदगति (स्वर्ग अथवा मोक्ष) की प्राप्ति के लिए विधिपूर्वक अंत्येष्टि संस्कार आवश्यक है। यदि किसी का पुत्र न हो, अथवा यदि उसको इस बात का आश्वासन न हो कि मरने के पश्चात् उसकी सविधि अंत्येष्टि क्रिया होगी, तो वह अपने जीते-जी अपना श्राद्धकर्म स्वयं कर सकता है। उसका पुतला बनाकर उसका दाह होता है। शेष क्रियाएँ सामान्य रूप से होती हैं। बहुत से लोग सन्न्यास आश्रम में प्रवेश के पूर्व अपना जीवच्छ्राद्ध कर लेते हैं।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
(पुस्तक ‘हिन्दू धर्मकोश’) पृष्ठ संख्या-36
संबंधित लेख