वीरसिंहदेवचरित: Difference between revisions

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'''[[केशवदास]] कृत 'वीरसिंह-चरित'''' की रचना सन् 1607 ई. (सं. 1664 ई,) के प्रारम्भ में [[वसंत ऋतु]] के [[शुक्ल पक्ष]] की [[अष्टमी]] [[बुधवार]] को प्रारम्भ हुई थी।<ref>प्रथम-प्रकाश, छंद. 4-5, पृ.1</ref> इसकी समाप्ति सन् 1608 ई. के लगभग हुई होगी क्योंकि इसमें सन् 1608 ई. तक की ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख है। कतिपय विद्वान इसका रचनाकाल सन् 1607 ई. (सं.1664 वि.) मानते हैं, जो अशुद्ध है।  
'''[[केशवदास]] कृत 'वीरसिंह-चरित'''' की रचना सन् 1607 ई. (सं. 1664 ई,) के प्रारम्भ में [[वसंत ऋतु]] के [[शुक्ल पक्ष]] की [[अष्टमी]] [[बुधवार]] को प्रारम्भ हुई थी।<ref>प्रथम-प्रकाश, छंद. 4-5, पृष्ठ.1</ref> इसकी समाप्ति सन् 1608 ई. के लगभग हुई होगी क्योंकि इसमें सन् 1608 ई. तक की ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख है। कतिपय विद्वान इसका रचनाकाल सन् 1607 ई. (सं.1664 वि.) मानते हैं, जो अशुद्ध है।  
;ऐतिहासिक कथानक
==ऐतिहासिक कथानक==
'वीरसिंहदेव चरित' 14 प्रकाशों में विभक्त है। लोभ और दान के संवाद से [[ग्रंथ]] का प्रारम्भ हुआ है, जो दूसरे प्रकाश तक चला है। आगे चलकर बुन्देल-वंशोत्पत्ति, वीरसिंहदेव की प्रारम्भिक विजय, [[मुराद, शाहजादा|मुराद]] की मृत्यु, [[अकबर]] की दक्षिण यात्रा, [[सलीम]] की भेंट और [[अबुलफज़ल]] की हत्या के साथ 5 वां प्रकाश समाप्त हुआ है। तदनंतर वीरसिंह देव और अकबर के विविध युद्धों, अकबर की मृत्यु, [[जहाँगीर]] का राज्याभिषेक तथा उसके द्वारा वीरसिंहदेव के सम्मानित किये जाने का चित्रण है। अंत में शाहजादा खुसरो का विद्रोह, अब्दुल्लाह का [[ओरछा]] पर आक्रमण तथा वीरसिंहदेव के [[बुन्देलखण्ड]] में पुनः लौटने का वर्णन है। इसी घटना के साथ 'वीरसिंहदेव-चरित' समाप्त होता होता है। इसमें बुन्देलखण्ड संबंधी तत्कालीन ऐतिहासिक घटनाओं का जितना सूक्ष्म विवेचन मिलता है, उतना अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।  
'वीरसिंहदेव चरित' 14 प्रकाशों में विभक्त है। लोभ और दान के संवाद से [[ग्रंथ]] का प्रारम्भ हुआ है, जो दूसरे प्रकाश तक चला है। आगे चलकर बुन्देल-वंशोत्पत्ति, वीरसिंहदेव की प्रारम्भिक विजय, [[मुराद, शाहजादा|मुराद]] की मृत्यु, [[अकबर]] की दक्षिण यात्रा, [[सलीम]] की भेंट और [[अबुलफज़ल]] की हत्या के साथ 5 वां प्रकाश समाप्त हुआ है। तदनंतर वीरसिंह देव और अकबर के विविध युद्धों, अकबर की मृत्यु, [[जहाँगीर]] का राज्याभिषेक तथा उसके द्वारा वीरसिंहदेव के सम्मानित किये जाने का चित्रण है। अंत में शाहजादा खुसरो का विद्रोह, अब्दुल्लाह का [[ओरछा]] पर आक्रमण तथा वीरसिंहदेव के [[बुन्देलखण्ड]] में पुनः लौटने का वर्णन है। इसी घटना के साथ 'वीरसिंहदेव-चरित' समाप्त होता होता है। इसमें बुन्देलखण्ड संबंधी तत्कालीन ऐतिहासिक घटनाओं का जितना सूक्ष्म विवेचन मिलता है, उतना अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।  
;भाषा शैली  
==भाषा शैली==
'वीरसिंहदेव'-चरित' में, वर्णनात्मक शैली की प्रधानता है। इसमें प्रमुख रूप से [[वीर रस|वीर-रस]] और प्रासंगिक रूप से रौद्र, [[करुण रस|करुण]], वीभत्स एवं शृंगार रसों का चित्रण हुआ है। केशव ने इसमें अनुप्रास, श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि विविध [[अलंकार|अलंकारों]] का प्रचुरता से प्रयोग किया है। इस रचना में [[चौपई छन्द|चौपई]], [[दोहा]], [[छप्पय]], [[कवित्त]], [[सवैया]] आदि 15 प्रकार के [[छन्द|छन्दों]] का प्रयोग किया गया है। इसमें संवादों की प्रधानता है। इन्होंने वीर-काव्य की परम्परागत सूची गिनाने की पद्धति का बहिष्कार किया है पर ऐतिहासिक इतिवृत्तात्कता का प्राधान्य है। इसकी [[भाषा]] [[ब्रजभाषा]] है, जिस पर बुन्देलखण्ड का अधिक प्रभाव है।  
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;प्रकाशन
==प्रकाशन==
इस प्रकार साहित्यिक एवं ऐतिहासिक, दोनों दृष्टियों से 'वीरसिंहदेव-चरित' अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ [[नागरी प्रचारिणी सभा]], [[काशी]] द्वारा प्रकाशित है।  
इस प्रकार साहित्यिक एवं ऐतिहासिक, दोनों दृष्टियों से 'वीरसिंहदेव-चरित' अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ [[नागरी प्रचारिणी सभा]], [[काशी]] द्वारा प्रकाशित है।  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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*सहायक ग्रंथ- हिन्दी वीरकाव्य (1600-1800 ई.) टीकमसिंह तोमर, हिन्दुस्तानी अकादमी, उ.प्र. इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1954 ई.।
*सहायक ग्रंथ- हिन्दी वीरकाव्य (1600-1800 ई.) टीकमसिंह तोमर, हिन्दुस्तानी अकादमी, उ. प्र. इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1954 ई.।
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Latest revision as of 08:52, 17 July 2017

केशवदास कृत 'वीरसिंह-चरित' की रचना सन् 1607 ई. (सं. 1664 ई,) के प्रारम्भ में वसंत ऋतु के शुक्ल पक्ष की अष्टमी बुधवार को प्रारम्भ हुई थी।[1] इसकी समाप्ति सन् 1608 ई. के लगभग हुई होगी क्योंकि इसमें सन् 1608 ई. तक की ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख है। कतिपय विद्वान इसका रचनाकाल सन् 1607 ई. (सं.1664 वि.) मानते हैं, जो अशुद्ध है।

ऐतिहासिक कथानक

'वीरसिंहदेव चरित' 14 प्रकाशों में विभक्त है। लोभ और दान के संवाद से ग्रंथ का प्रारम्भ हुआ है, जो दूसरे प्रकाश तक चला है। आगे चलकर बुन्देल-वंशोत्पत्ति, वीरसिंहदेव की प्रारम्भिक विजय, मुराद की मृत्यु, अकबर की दक्षिण यात्रा, सलीम की भेंट और अबुलफज़ल की हत्या के साथ 5 वां प्रकाश समाप्त हुआ है। तदनंतर वीरसिंह देव और अकबर के विविध युद्धों, अकबर की मृत्यु, जहाँगीर का राज्याभिषेक तथा उसके द्वारा वीरसिंहदेव के सम्मानित किये जाने का चित्रण है। अंत में शाहजादा खुसरो का विद्रोह, अब्दुल्लाह का ओरछा पर आक्रमण तथा वीरसिंहदेव के बुन्देलखण्ड में पुनः लौटने का वर्णन है। इसी घटना के साथ 'वीरसिंहदेव-चरित' समाप्त होता होता है। इसमें बुन्देलखण्ड संबंधी तत्कालीन ऐतिहासिक घटनाओं का जितना सूक्ष्म विवेचन मिलता है, उतना अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।

भाषा शैली

'वीरसिंहदेव'-चरित' में, वर्णनात्मक शैली की प्रधानता है। इसमें प्रमुख रूप से वीर-रस और प्रासंगिक रूप से रौद्र, करुण, वीभत्स एवं श्रृंगार रसों का चित्रण हुआ है। केशव ने इसमें अनुप्रास, श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि विविध अलंकारों का प्रचुरता से प्रयोग किया है। इस रचना में चौपई, दोहा, छप्पय, कवित्त, सवैया आदि 15 प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया गया है। इसमें संवादों की प्रधानता है। इन्होंने वीर-काव्य की परम्परागत सूची गिनाने की पद्धति का बहिष्कार किया है पर ऐतिहासिक इतिवृत्तात्कता का प्राधान्य है। इसकी भाषा ब्रजभाषा है, जिस पर बुन्देलखण्ड का अधिक प्रभाव है।

प्रकाशन

इस प्रकार साहित्यिक एवं ऐतिहासिक, दोनों दृष्टियों से 'वीरसिंहदेव-चरित' अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा प्रकाशित है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रथम-प्रकाश, छंद. 4-5, पृष्ठ.1
  • सहायक ग्रंथ- हिन्दी वीरकाव्य (1600-1800 ई.) टीकमसिंह तोमर, हिन्दुस्तानी अकादमी, उ. प्र. इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1954 ई.।

धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 557।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख