सरसी छन्द: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
(''''सरसी''' मात्रिक सम छन्दों का एक भेद है। भिखारीदास न...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
'''सरसी''' मात्रिक सम छन्दों का एक भेद है। [[भिखारीदास]] ने इस 27 मात्रा के चरण वाले [[छन्द]] को 'हरिपद' कहा है। उनके द्वारा प्रस्तुत उदाहरण में चरण के अंत में ग-ल (ऽ।) भी है- | '''सरसी''' मात्रिक सम छन्दों का एक भेद है। [[भिखारीदास]] ने इस 27 मात्रा के चरण वाले [[छन्द]] को 'हरिपद' कहा है। उनके द्वारा प्रस्तुत उदाहरण में चरण के अंत में ग-ल (ऽ।) भी है- | ||
<blockquote>"अजौ न कछू नसान्यो मूरख, कह्यो हमारी मानि।"<ref> | <blockquote>"अजौ न कछू नसान्यो मूरख, कह्यो हमारी मानि।"<ref>छन्दोर्णव, पृ. 32</ref></blockquote> | ||
*भानु द्वारा इसका यही लक्षण प्रस्तुत किया गया है, 16, 11, अंत में ऽ।<ref>छन्द प्रभाकर, पृ. 66</ref> | *भानु द्वारा इसका यही लक्षण प्रस्तुत किया गया है, 16, 11, अंत में ऽ।<ref>छन्द प्रभाकर, पृ. 66</ref> |
Latest revision as of 09:47, 3 June 2015
सरसी मात्रिक सम छन्दों का एक भेद है। भिखारीदास ने इस 27 मात्रा के चरण वाले छन्द को 'हरिपद' कहा है। उनके द्वारा प्रस्तुत उदाहरण में चरण के अंत में ग-ल (ऽ।) भी है-
"अजौ न कछू नसान्यो मूरख, कह्यो हमारी मानि।"[1]
- भानु द्वारा इसका यही लक्षण प्रस्तुत किया गया है, 16, 11, अंत में ऽ।[2]
- हिन्दी की पद शैली का यह सर्वप्रचलित छन्द माना जा सकता है। इसका प्रयोग सूरदास, तुलसीदास, मीरां तथा नन्ददास आदि ने पद शैली के अंतर्गत किया है। केशव आदि कुछ अन्य कवियों ने मुक्त रूप में भी प्रयुक्त किया है।[3]
- सूरदास ने 'सूरसागर' में और तुलसीदास ने 'विनय पत्रिका', 'गीतावली' तथा 'कृष्ण गीतावली' में गम्भीर भावाभिव्यक्ति के क्षणों में इस छन्द के पदों का प्रयोग किया है। इसके साथ निकटता और समानता के कारण विष्णुषद तथा सार छन्दों को मिला दिया गया है-
"सुनु कपि अपने प्रान को पहरो, कब लगि देति रहौ? वे अति चपल चल्यो चाहत है, करत न कछू विचार।"[4]
इसके प्रथम चरण के अंत में ल-ग (ऽ।) होने से सरसी है। शुद्ध सरसी का प्रयोग भी व्यापक रूप से इन कवियों में मिलता है-
"इत राधिका सहित चन्द्रावली, ललिता घोष अपार।"[5] तथा "विषय बारि मन मीन भिन्न नहि, होत कबहुँ पल एक।"[6]
- भानु के अनुसार होली के अवसर पर कबीर के बानी की बानी के उलटे अर्थ वाले जो कबेर कहे जाते हैं, वे प्राय: इसी शैली में होते है।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
- REDIRECT साँचा:साहित्यिक शब्दावली