सांख्य दर्शन अहिर्बुध्न्यसंहिता: Difference between revisions

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  • अहिर्बुध्न्यसंहिता<balloon title="इसके अन्तर्गत सांख्य दर्शन का परिचय आचार्य उदयवीर शास्त्रीकृत सां.द.इ. तथा अणिम सेनगुप्ताकृत ESST के आधार पर तैयार किया गया है।" style=color:blue>*</balloon> पांचरात्र सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के 12वें अध्याय के 18वें श्लोक में सांख्य दर्शन को विष्णु के संकल्प रूप में बताकर कहा गया है-

षष्टिभेदस्मृतं तन्त्रं सांख्यं नाम महामुने।
प्राकृतं वैकृतं चेति मण्डले द्वे समासत:॥

  • कपिल के सांख्य दर्शन में साठ (पदार्थों) के भेद का विवेचन है (ऐसा) कहा जाता है। संक्षेप में प्राकृत तथा वैकृत मण्डल (भाग) है।
  • प्राकृत मण्डल में 32 तथा वैकृत मण्डल में 28 पदार्थ हैं।
  • प्रथम मण्डल के पदार्थ 'तन्त्र' और द्वितीय मण्डल के पदार्थ 'काण्ड' कहे गए।
  • प्राकृत मण्डल में निम्नलिखित पदार्थ हैं-
  1. ब्रह्मतंत्र,
  2. पुरुषतंत्र,
  3. शक्ति,
  4. नियत,
  5. कालतंत्र,
  6. गुणतंत्र,
  7. अक्षरतंत्र,
  8. प्राणतंत्र,
  9. कर्तृतंत्र समित (स्वामि) तन्त्र,
  10. ज्ञानक्रिया,
  11. मात्रतन्त्र तथा
  12. भूततन्त्र।
  • इनमें गुणतन्त्र में सत्त्व, रजस, तमस ज्ञानतन्त्र में पंचज्ञान साधन, क्रियातन्त्र में पंचकर्मसाधन, मात्रतन्त्र में पंवतन्मात्र, भूततन्त्र में पंचस्थूलभूत निहित मानें तो कुल 32 पदार्थ हो जाते हैं।
  • वैकृत मण्डल में 28 पदार्थ निम्नालिखित हैं-
  1. कृत्यकाण्ड में पांच,
  2. भोगकाण्ड, वृत्तकाण्ड में एक-एक,
  3. क्लेशकाण्ड में पांच,
  4. प्रमाणकाण्ड में तीन, तथा
  5. ख्याति,
  6. धर्म,
  7. वैराग्य,
  8. ऐश्वर्य गुण,
  9. लिंग,
  10. दृष्टि,
  11. आनुश्रविक,
  12. दुख,
  13. सिद्धि,
  14. काषाय,
  15. समय तथा
  16. मोक्षकाण्ड।
  • षष्टितन्त्र के विभिन्न साठ पदार्थों की इस प्रकार की गणना, सांख्य के प्रचलित व उपलब्ध ग्रन्थों में उल्लिखित साठ पदार्थों की गणना से भिन्न तो प्रतीत होती है तथापि सांख्यभिमत के सर्वथा अनुकूल है।
  • सांख्यशास्त्रीय परम्परा में पांच विपर्यय, नौ तुष्टियाँ, आठ सिद्धियाँ, अट्ठाइस अशक्तियाँ तथा दस मौलिकार्थ-इस प्रकार साठ पदार्थ माने जाते है।
  • सांख्यदर्शन, परम्परा में परिगणित 20 तत्त्व (ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, तन्मात्र तथा स्थूलभूत प्राकृत मण्डल में सम्मिलित हैं। साथ ही पुरुष और त्रिगुण भी सम्मिलित हैं।
  • संहिता में तीनों गुणों के गुणतन्त्र के अन्तर्गत रखा गया लेकिन प्रकृति की पृथक् गणना नहीं की गई।
  • प्राकृततन्त्र में मन, बुद्धि, अहंकार का संकेत स्पष्ट नहीं है, ऐसा उदयवीर शास्त्री स्वीकार करते हैं। किन्तु अणिमा सेनगुप्ता के अनुसार कर्तृतन्त्र में इनका अन्तर्भाव किया जा सकता है। क्योंकि ये तीन अन्त:करण पुरुष के समस्त भोग कर्म के आधारभूत हैं<balloon title="इ.सां. स्कूल पृष्ठ 103 तथा ओ.डे.सि. पृष्ठ 119 भी द्रष्टव्य" style=color:blue>*</balloon>।
  • वैकृत मण्डल में प्रस्तुत अट्ठाइस पदार्थों में कुछ का सांख्य दर्शन में प्रसंगवश उल्लेख तो होता हैं तथापि इन्हें पृथक् तत्त्वरूप में नहीं जाना जाता। त्रिविध प्रमाण, बुद्धि के आठ भावों में से सात्त्विक भाव ज्ञान (ख्याति), धर्म, वैराग्य, ऐश्वर्य, सिद्धि, (सिद्धिकाण्ड) मोक्ष आदि की चर्चा सांख्य दर्शन में उपलब्ध है। पुरुषार्थ रूप भोग का भी वैकृत मण्डल में उल्लेख है। पंचविपर्यय कलेश रूप में उल्लिखित है। प्रकृति, परमात्मा तथा जीवात्मा (दो चेतन तत्त्वों) की मान्यता संहिताकार की जानकारी में रही होगी ऐसा माना जा सकता है<balloon title="इ.सां. स्कूल पृष्ठ - 103" style=color:blue>*</balloon>। यहाँ ब्रह्म शब्द प्रकृति के अर्थ में लिए जाने की संभावना युक्तिसंगत इसलिए नहीं कही जा सकती, क्योंकि प्रकृति और गुणत्रय की तात्विक अभिन्नता है और गुणतंत्र की गणना भी प्राकृत मण्डल में है।
  • प्राकृत मण्डल में उल्लिखित नियति, काल, अक्षर, सामि पदार्थों का स्पष्ट कथन सांख्य साहित्य में नहीं पाया जाता, तथापि इनके किन्हीं अर्थों को सांख्य दर्शन में मान्य तत्त्वों के साथ सामंजस्य रूप में स्वीकार अवश्य किया जा सकता है। पुरुष और प्रकृति सत्ता की दृष्टि से अक्षर कहे जा सकते हैं।<balloon title="शांति पर्व 107/11, 12" style=color:blue>*</balloon>
  • इसी तरह सामि (स्वामी) अधिष्ठानुभूत परमात्मा के सम्बन्ध में समझा जा सकता हैं।<balloon title="इ.सां. स्कूल पृष्ठ- 103" style=color:blue>*</balloon>नियति यदि स्वभाव के अर्थ में लिया जाय तो सृष्टि वैषम्य की स्वाभाविता प्रकृति में तथा भोगापवर्गोन्मुखता जीवात्मा पुरुष के स्वभाव के रूप में लिया ही जा सकता है।
  • अहिर्बुध्न्यसंहिता के इस षष्टिभेद के बारे में उदयवीर शास्त्री का मत है कि 'वार्षगण्य के योग संबंधी व्याख्या-ग्रन्थों के आधार पर और कुछ इधर-उधर से सुन-जानकर संहिताकार ने साठ पदार्थों की संख्या पूरी गिनाने का प्रयास किया<balloon title="सां. द. इ. पृष्ठ 212-13" style=color:blue>*</balloon>'।
  • दूसरी ओर अणिमा सेनगुप्ता का मत है कि संहिताकार व्यक्तिगत (साक्षात्) रूप से षष्टितन्त्र के विषयवस्तु से परिचित रहे होंगे। अत: यह (संहिता) कपिल के मूल विचारों पर ही आधृत कही जा सकती है<balloon title="इ.सां. स्कूल पृष्ठ 104" style=color:blue>*</balloon>। संहिताकार षष्टितन्त्र से सुपरिचित या अल्पपरिचित रहा हो या यत्र-तत्र उपलब्ध जानकारी के आधार पर साठ पदार्थों की गणना की हो- एक तथ्य स्पष्ट है कि षष्टितन्त्र के कपिलप्रोक्त सांख्य दर्शन का नाम होने के विषय में संदेह मात्र भी न था। यह सम्भवत: उसके अन्तर्गत प्रचलित हो गई हो जैसा कि भागवत और शांतिपर्व में भी परिलक्षित होता है।

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