विक्रम बत्रा: Difference between revisions
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मिशन लगभग पूरा हो चुका | मिशन लगभग पूरा हो चुका था। जब कैप्टन अपने कनिष्ठ अधिकारी लेफ्टीनेंट नवीन को बचाने के लिये लपके। लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में लेफ्टीनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गये थे। जब कैप्टन बत्रा लेफ्टीनेंट को बचाने के लिए पीछे घसीट रहे थे तब उनकी की छाती में गोली लगी और वे “जय माता दी” कहते हुये वीरगति को प्राप्त हुये।<ref name="J18">{{cite web |url=http://josh18.in.com/showstory.php?id=259051 |title=कारगिल शहादत कैप्टन विक्रम बत्रा को श्रद्धांजलि |accessmonthday=31 अगस्त |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=पी.एच.पी |publisher=जोश 18 |language=हिन्दी}}</ref> | ||
<blockquote>16 जून को कैप्टन ने अपने जुड़वां भाई विशाल को द्रास सेक्टर से चिट्ठी में लिखा –“प्रिय कुशु, माँ और पिताजी का ख्याल रखना ... यहाँ कुछ भी हो सकता है।”<ref name="J18"/></blockquote> | <blockquote>16 जून को कैप्टन ने अपने जुड़वां भाई विशाल को द्रास सेक्टर से चिट्ठी में लिखा –“प्रिय कुशु, माँ और पिताजी का ख्याल रखना ... यहाँ कुछ भी हो सकता है।”<ref name="J18"/></blockquote> | ||
==परमवीर चक्र सम्मान== | ==परमवीर चक्र सम्मान== | ||
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Latest revision as of 05:52, 9 September 2018
विक्रम बत्रा
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पूरा नाम | कैप्टन विक्रम बत्रा |
प्रसिद्ध नाम | शेरशाह, कारगिल का शेर |
जन्म | 9 सितंबर, 1974 |
जन्म भूमि | पालमपुर, हिमाचल प्रदेश |
स्थान | कारगिल, जम्मू और कश्मीर |
अभिभावक | पिता- जी. एल. बत्रा, माता- कमलकांता बत्रा |
सेना | भारतीय थल सेना |
रैंक | कैप्टन |
यूनिट | 13 जे एंड के राइफ़ल |
सेवा काल | 1996–1999 |
युद्ध | कारगिल युद्ध |
शिक्षा | स्नातक (विज्ञान) |
विद्यालय | सेंट्रल स्कूल पालमपुर, डीएवी कॉलेज, चंडीगढ़ |
सम्मान | परमवीर चक्र (1999 में मरणोपरांत) |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | विक्रम बत्रा ने 18 वर्ष की आयु में ही अपने नेत्र दान करने का निर्णय ले लिया था। वह नेत्र बैंक के कार्ड को हमेशा अपने पास रखते थे। |
कैप्टन विक्रम बत्रा (अंग्रेज़ी: Captain Vikram Batra, जन्म- 9 सितंबर, 1974, पालमपुर, हिमाचल प्रदेश; शहादत- 7 जुलाई, 1999, कारगिल) परमवीर चक्र से सम्मानित भारत के सैनिक थे। इन्हें यह सम्मान सन् 1999 में मरणोपरांत मिला।
जीवन परिचय
पालमपुर निवासी जी.एल. बत्रा और कमलकांता बत्रा के घर 9 सितंबर, 1974 को दो बेटियों के बाद दो जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ। माता कमलकांता की श्रीरामचरितमानस में गहरी श्रद्धा थी तो उन्होंने दोनों का नाम लव-कुश रखा। लव यानी विक्रम और कुश यानी विशाल। पहले डीएवी स्कूल, फिर सेंट्रल स्कूल पालमपुर में दाखिल करवाया गया। सेना छावनी में स्कूल होने से सेना के अनुशासन को देख और पिता से देश प्रेम की कहानियां सुनने पर विक्रम में स्कूल के समय से ही देश प्रेम प्रबल हो उठा। स्कूल में विक्रम शिक्षा के क्षेत्र में ही अव्वल नहीं थे, बल्कि टेबल टेनिस में अव्वल दर्जे के खिलाड़ी होने के साथ उनमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेने का भी जज़्बा था। जमा दो तक की पढ़ाई करने के बाद विक्रम चंडीगढ़ चले गए और डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ में विज्ञान विषय में स्नातक की पढ़ाई शुरू कर दी। इस दौरान वह एनसीसी के सर्वश्रेष्ठ कैडेट चुने गए और उन्होंने गणतंत्र दिवस की परेड में भी भाग लिया। उन्होंने सेना में जाने का पूरा मन बना लिया और सीडीएस (सम्मिलित रक्षा सेवा) की भी तैयारी शुरू कर दी। हालांकि विक्रम को इस दौरान हांगकांग में भारी वेतन में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी, लेकिन देश सेवा का सपना लिए विक्रम ने इस नौकरी को ठुकरा दिया।[1]
सेना में चयन
विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया। जुलाई, 1996 में उन्होंने भारतीय सेना अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया। दिसंबर 1997 में शिक्षा समाप्त होने पर उन्हें 6 दिसंबर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए। 1 जून, 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून, 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया।[1]
शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध
विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें ‘कारगिल का शेर’ की भी संज्ञा दे दी गई। अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में आया तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा। इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया। इसकी भी बागडोर विक्रम को सौंपी गई। उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा।[1]
कैप्टन के पिता जी.एल. बत्रा कहते हैं कि उनके बेटे के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल वाय.के.जोशी ने विक्रम को शेर शाह उपनाम से नवाजा था।[2]
अंतिम समय
मिशन लगभग पूरा हो चुका था। जब कैप्टन अपने कनिष्ठ अधिकारी लेफ्टीनेंट नवीन को बचाने के लिये लपके। लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में लेफ्टीनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गये थे। जब कैप्टन बत्रा लेफ्टीनेंट को बचाने के लिए पीछे घसीट रहे थे तब उनकी की छाती में गोली लगी और वे “जय माता दी” कहते हुये वीरगति को प्राप्त हुये।[2]
16 जून को कैप्टन ने अपने जुड़वां भाई विशाल को द्रास सेक्टर से चिट्ठी में लिखा –“प्रिय कुशु, माँ और पिताजी का ख्याल रखना ... यहाँ कुछ भी हो सकता है।”[2]
परमवीर चक्र सम्मान
अदम्य साहस और पराक्रम के लिए कैप्टन विक्रम बत्रा को 15 अगस्त, 1999 को परमवीर चक्र के सम्मान से नवाजा गया जो उनके पिता जी.एल. बत्रा ने प्राप्त किया। विक्रम बत्रा ने 18 वर्ष की आयु में ही अपने नेत्र दान करने का निर्णय ले लिया था। वह नेत्र बैंक के कार्ड को हमेशा अपने पास रखते थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 दीक्षित, मनीष। शेरशाह के नाम से कांपते थे दुश्मन भी (हिन्दी) (पी.एच.पी) जागरण जंक्शन। अभिगमन तिथि: 31 अगस्त, 2011।
- ↑ 2.0 2.1 2.2 कारगिल शहादत कैप्टन विक्रम बत्रा को श्रद्धांजलि (हिन्दी) (पी.एच.पी) जोश 18। अभिगमन तिथि: 31 अगस्त, 2011।
बाहरी कड़ियाँ
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