ताड़पत्र (लेखन सामग्री): Difference between revisions

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==प्राप्ती स्थान==
==प्राप्ति  स्थान==
खरताड़ के वृक्ष [[राजस्थान]], [[गुजरात]] और [[पंजाब]] में कहीं-कहीं मिल जाते हैं। इनके पत्ते मोटे और कम लम्बे होते हैं। ये सूखकर तड़कने लगते हैं और कच्चे तोड़ लेने पर जल्दी ही सड़ या गल जाते हैं। इसीलिए इनका उपयोग पोथियाँ लिखने में नहीं हुआ है। श्रीताड़ के वृक्ष [[मलाबार तट]], [[बंगाल]], [[म्यांमार]] और [[श्रीलंका]] में बड़ी तादाद में उगते हैं। इनके पत्ते एक मीटर से कुछ अधिक लम्बे और क़रीब दस सेंटीमीटर चौड़े होते हैं। श्रीताड़ के पत्ते ज़्यादा समय तक टिकते हैं, इसीलिए ग्रन्थ लेखन और चित्रांकन के लिए अधिकतर इन्हीं का उपयोग हुआ है।
खरताड़ के वृक्ष [[राजस्थान]], [[गुजरात]] और [[पंजाब]] में कहीं-कहीं मिल जाते हैं। इनके पत्ते मोटे और कम लम्बे होते हैं। ये सूखकर तड़कने लगते हैं और कच्चे तोड़ लेने पर जल्दी ही सड़ या गल जाते हैं। इसीलिए इनका उपयोग पोथियाँ लिखने में नहीं हुआ है। श्रीताड़ के वृक्ष [[मलाबार तट]], [[बंगाल]], [[म्यांमार]] और [[श्रीलंका]] में बड़ी तादाद में उगते हैं। इनके पत्ते एक मीटर से कुछ अधिक लम्बे और क़रीब दस सेंटीमीटर चौड़े होते हैं। श्रीताड़ के पत्ते ज़्यादा समय तक टिकते हैं, इसीलिए ग्रन्थ लेखन और चित्रांकन के लिए अधिकतर इन्हीं का उपयोग हुआ है।



Revision as of 09:40, 27 January 2011

प्राचीन भारत की लेखन सामग्री में ताड़पत्र लेखन का एक प्रमुख साधन रहा है। ताल या ताड़ वृक्ष दो प्रकार के होते हैं-

  1. खरताड़
  2. श्रीताड़

प्राप्ति स्थान

खरताड़ के वृक्ष राजस्थान, गुजरात और पंजाब में कहीं-कहीं मिल जाते हैं। इनके पत्ते मोटे और कम लम्बे होते हैं। ये सूखकर तड़कने लगते हैं और कच्चे तोड़ लेने पर जल्दी ही सड़ या गल जाते हैं। इसीलिए इनका उपयोग पोथियाँ लिखने में नहीं हुआ है। श्रीताड़ के वृक्ष मलाबार तट, बंगाल, म्यांमार और श्रीलंका में बड़ी तादाद में उगते हैं। इनके पत्ते एक मीटर से कुछ अधिक लम्बे और क़रीब दस सेंटीमीटर चौड़े होते हैं। श्रीताड़ के पत्ते ज़्यादा समय तक टिकते हैं, इसीलिए ग्रन्थ लेखन और चित्रांकन के लिए अधिकतर इन्हीं का उपयोग हुआ है।

पोथियाँ तैयार करना

ग्रन्थ लिखने के लिए जिन ताड़पत्रों का उपयोग होता था, उन्हें पहले सुखा देते थे। फिर उन्हें कुछ घंटों तक पानी में उबालकर या भिगोए रखकर पुनः सुखाया जाता। शंख, कौड़ी या चिकने पत्थर से उन्हें घोटते थे। फिर उन्हें इच्छित आकार में काटकर लोहे की कलम (शलाका) से उन पर अक्षर कुरेदे जाते थे। फिर पत्रों पर कज्जल पोत देने से अक्षर काले हो जाते थे। दक्षिण भारत में अधिकतर इसी तरह ताड़पत्र की पोथियाँ तैयार की जाती थीं। उत्तर भारत में ताड़पत्रों पर प्राय: स्याही से लेखनी द्वारा लिखा जाता था। संस्कृत में लिख् और धातु का अर्थ है कुरेदना, संस्कृत में लिप धातु का अर्थ है लीपना। अत: लगता है की ताड़पत्र पर कुरेदने (लिख्) से लेखन या लिखना शब्द बने और स्याही लेपन (लिपि) शब्द का प्रयोग शुरू हुआ।

जलवायु का प्रभाव

ताड़पत्रों के लिए गर्म जलवायु हानिकारक है, इसीलिए ज़्यादा संख्या में लिखे जाने पर भी ताड़पत्र पोथियाँ दक्षिण भारत में कम मिली हैं। राजस्थान, कश्मीर, नेपाल और तिब्बत जैसे सूखे और ठण्डे प्रदेशों में ताड़पत्र पोथियाँ अधिक संख्या में मिली हैं। नेपाल और तिब्बत की जलवायु इनके लिए ज़्यादा अनुकूल है। काग़ज़ और कपड़े पर ताम्रपत्र का विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। इसीलिए ताड़पत्रों के साथ इन्हें प्रायः नहीं रखा जाता है।

प्राचीनता

भारत में लिखने के लिए ताड़पत्रों का उपयोग बहुत प्राचीन काल से होता आ रहा है। जातक कथाओं में पण्ण (पत्र, पन्ना) शब्द सम्भवतः ताड़पत्र के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। चीनी यात्री युवानच्वांग की उनके एक शिष्य के द्वारा लिखी गई जीवनी से पता चलता है कि बुद्ध के निर्वाण के शीघ्र बाद हुई प्रथम संगीति में जो त्रिपिटक तैयार हुआ, उसे ताड़पत्रों पर लिखा गया था।

प्राचीन हस्तलिपि

ताड़पत्र की जो सबसे प्राचीन हस्तलिपि मिली है, वह ईसा की दूसरी सदी के एक नाटक की खण्डित प्रति है। यह ताड़पत्रों पर स्याही से लिखी गई है। जापान के होर्युजी मन्दिर में उष्णीशविजयधारणी नामक लगभग 600 ई. की एक ताड़पत्र पोथी सुरक्षित है। जैसलमेर के ग्रन्थ-भण्डार में ताड़पत्रों की कुछ प्राचीन हस्तलिपियाँ मिली हैं। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन (1893-1963 ई.) ताड़पत्रों की कई पोथियाँ तिब्बत से भारत लाए हैं।


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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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