जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण: Difference between revisions

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==जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण / Jaiminiyopnishad Brahman==
==जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण / Jaiminiyopnishad Brahman==
*सम्पूर्ण जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण चार अध्यायों में विभक्त है। अध्यायों का अवान्तर विभाजन अनुवाकों और खण्डों में है। इसका विशेष महत्व पुरातन भाषा, शब्दावली, वैयाकरणिक रूपों और ऐसे ऐतिहासिक तथा देवशास्त्रीय आख्यानों के कारण है, जिनमें बहुविध प्राचीन विश्वास और रीतियाँ सुरक्षित हैं।  
*सम्पूर्ण जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण चार अध्यायों में विभक्त है। अध्यायों का अवान्तर विभाजन अनुवाकों और खण्डों में है। इसका विशेष महत्व पुरातन भाषा, शब्दावली, वैयाकरणिक रूपों और ऐसे ऐतिहासिक तथा देवशास्त्रीय आख्यानों के कारण है, जिनमें बहुविध प्राचीन विश्वास और रीतियाँ सुरक्षित हैं।  

Revision as of 07:47, 25 March 2010

जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण / Jaiminiyopnishad Brahman

  • सम्पूर्ण जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण चार अध्यायों में विभक्त है। अध्यायों का अवान्तर विभाजन अनुवाकों और खण्डों में है। इसका विशेष महत्व पुरातन भाषा, शब्दावली, वैयाकरणिक रूपों और ऐसे ऐतिहासिक तथा देवशास्त्रीय आख्यानों के कारण है, जिनमें बहुविध प्राचीन विश्वास और रीतियाँ सुरक्षित हैं।
  • यह कौथुम-शाखा के सभी ब्राह्मणों से अधिक प्राचीन है और इसे सरलता से प्राचीन ब्राह्मणों के मध्य रखा जा सकता है। इसमें कतिपय ऐसी प्राचीन धार्मिक मान्यताएँ निहित हैं, जिनका अन्य ब्राह्मणों में उल्लेख नहीं मिलता। उदाहरणार्थ मृत व्यक्तियों का पुन: प्राकट्य तथा प्रेतात्मा के द्वारा उन व्यक्तियों का मार्ग-निर्देशन, जो रहस्यात्मक शक्तियों की उपलब्धि के लिए पुरोहितों, साधकों की खोज में निरत थे।
  • निशीथ-वेला में श्मशान-साधना से सम्बद्ध उन कृत्यों का भी उल्लेख है जो अतिमानवीय शक्ति पाने के लिए चिता-भस्म के समीप किये जाते हैं। आरम्भ में ओंकार और हिङ्कार की महत्ता पर विशेष बल दिया गया है।
  • सृष्टि-प्रक्रिया का सम्बन्ध तीनों वेदों से प्रदर्शित है।
  • ब्राह्मणकार पौन:पुन्येन ओङ्कार का महत्व निरूपित करता है कि यही वह अक्षर है, जिसके ऊपर कोई भी नहीं उठा सका; यही ओम् परम ज्ञान और बुद्धि का आदिकारण है।
  • ओम् से ही अष्टाक्षरा गायत्री की रचना हुई है; गायत्री से ही प्रजापति को भी अमरता प्राप्त हुई; इसी से अन्य देवों और ॠषियों ने अमरता प्राप्त की-

तदेतदमृतं गायत्रम्।
एतेन वै प्रजापतिरमृतत्वमगच्छत्।
एतेन देवा:...।
एतेनर्षय:.....।

  • जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण के अनुसार गायत्री रूप में यह पवित्र ज्ञान ब्रह्म से प्रजापति को सीधे प्राप्त हुआ और तत्पश्चात परमेष्ठी, सवित अग्नि और इन्द्र के माध्यम से कश्यप को प्राप्त हुआ। कश्यप से गुप्त लौहित्य तक ॠषियों की सुदीर्घ नामावली दी गई है।
  • वंश ब्राह्मण के अनुसार भी सर्वप्रथम कश्यप को ही पवित्र ज्ञान प्राप्त हुआ।
  • जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण का समापन इस कथन से हुआ है-

सैषा शाट्यायनी गायत्रस्योपनिषद एवमुपासितव्या।

  • इसके अनन्तर केनोपनिषद प्रारम्भ हो जाती है।
  • अन्य ब्राह्मणग्रन्थों के समान जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण में यागविधियों का विशेष उल्लेख नहीं है। इसमें वर्णित विषय-वस्तु किसी ब्राह्मणग्रन्थ की अपेक्षा आरण्यक अथवा उपनिषद के अधिक निकट है।
  • तुलनात्मक दृष्टि से ओङ्कार, हिङ्कार और गायत्रसामादि की उपासना पर अधिक बल देने और आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक दृष्टियों से सामगानगत तत्वों की व्याख्या करने का कारण इसका छान्दोग्य उपनिषद से घनिष्ठ सादृश्य प्रतीत होता है। दोनों के मध्य विद्यमान अतिशय सादृश्य को देखकर कभी-कभी तो प्रतीत होता है कि छान्दोग्य उपनिषद की रचना मूलत: जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण की आधार सामग्री से ही हुई; अथवा छान्दोग्य उपनिषद, जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण का ही परिष्कृत रूप है।
  • आख्यान और आख्यायिकाओं की दृष्टि से तो यह आधार ग्रन्थ है। गंगा और यमुना नदियों की अन्तर्वेदि में स्थित कुरु-पंचाल जनपदों के विद्वान ब्राह्मणों को ब्राह्मणकार ने विशेष महत्व दिया है।
  • जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण ने उन राजाओं का उल्लेख किया है जो कुरु-पंचाल जनपदों के इन विद्वान ब्राह्मणों के समीप आकर अपनी शंकाओं का निवारण किया करते थे।
  • शतपथ आदि अन्य ब्राह्मणों में जहाँ यागीय विधियों और वस्तुओं की विस्तार से मीमांसा की गई है, वहाँ इस ब्राह्मण में साम और उसकी पाँच भक्तियों की ही विस्तृत व्याख्या की गई है। प्रतीत होता है कि प्रकृत ब्राह्मणकार की दृष्टि में यागीय विधियों का इतना महत्व नहीं है, जितना यज्ञ में सामों के समुचित गान का, जो सामवेदीय ब्राह्मण के लिए सर्वथा स्वाभाविक है।
  • सामों की रहस्यात्मक और निगूढ़ शक्तियों को महत्व देने के लिए उनका गुप्तसाम, अशरीरसाम आदि के रूप में उल्लेख किया गया है। स्तोभों में अतिदेवीय शक्ति की परिकल्पना की गई है। 'अशरीरसाम' से तात्पर्य यहाँ लुप्तर्च साम से है, जिसका गान मात्र स्तोभात्मकस्वरूप में ही किया जाता है।

जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण के संस्करण

जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण के दो संस्करण प्रकाशित हुए हैं-

  • रामदेव के द्वारा सम्पादित तथा 1921 में लाहौर से प्रकाशित।
  • डॉ॰ बी॰आर॰ शर्मा के द्वारा सम्पादित तथा तिरुपति से 1967 में प्रकाशित।

विस्तार में देखें:- जैमिनिशाखीय ब्राह्मण