चिड़िया रैन बसेरा -विद्यानिवास मिश्र: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
No edit summary
Line 21: Line 21:
|ISBN = 81-7315-390-6
|ISBN = 81-7315-390-6
|भाग =
|भाग =
|शीर्षक 1=पुस्तक क्रमांक
|शीर्षक 1=
|पाठ 1=2649
|पाठ 1=
|शीर्षक 2=
|शीर्षक 2=
|पाठ 2=
|पाठ 2=

Revision as of 11:31, 8 August 2014

चिड़िया रैन बसेरा -विद्यानिवास मिश्र
लेखक विद्यानिवास मिश्र
मूल शीर्षक चिड़िया रैन बसेरा
प्रकाशक प्रभात प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 3 मार्च, 2002
ISBN 81-7315-390-6
देश भारत
पृष्ठ: 150
भाषा हिंदी
विधा निबंध संग्रह
विशेष विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था।

चिड़िया रैन बसेरा हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद विद्यानिवास मिश्र का निबंध संग्रह है।

संक्षिप्त भूमिका

‘चिड़िया रैन बसेरा’ जिन-जिन स्थानों में नीड़ बनाता रहा या नीड़ मिलते गए उन स्थानों और उनसे जुड़े लोगों का पार्श्व चित्र है। इसका आधार न कोई डायरी है, न कोई नोट बुक। इसका आधार प्रत्यक्ष की तरफ अनुभूत होने वाली स्मृति है। ऐसे प्रत्यक्ष में यह नहीं लगता कि ये स्थान, ये लोग व्यतीत हो गये हैं; ऐसा लगता है कि अभी भी सामने हों और संवाद के लिए उदग्र हों। वैसे इसकी योजना बहुत दिनों से मन में थी। इस शीर्षक से एक निबंध भी लिखा था; पर इसकी कड़ियों को आगे बड़ाने का श्रेय ‘जनसत्ता’ के संपादक ओम थानवी को जाता है। मैंने अपने जीवन के तिथि-क्रम से ये कड़ियाँ नहीं लिखीं। जो भी स्थान मेरे सामने किसी व्याज से आ गया तो उससे जुड़े हुए संस्मरण अनायास चित्रपट की रील की तरह उभरने लगे। इन कड़ियों में क्रम का कोई महत्त्व नहीं है। कोई ऐसा उद्देश्य भी नहीं है जैसा फ्लैशबैक में होता है। एक तरह से सोचें तो ये सभी कड़ियाँ फ्लैश-बैक हैं। केवल अतर्कित मन की रागात्मिका वृत्ति कभी किसी शहर से जुड़कर कुछ कहना चाहती है, कभी किसी गाँव से। कभी किसी शहर से। सभी स्थानों के बारे में अभी तक नहीं लिख पाया हूँ। कभी लिख पाऊँगा, यह आश्वासन भी नहीं दे सकता। हाँ, उन्हें भी लिखने की इच्छा है। वे स्थान वैसे हैं जहाँ पर पंद्रह दिन, एक महीना रहना हुआ है या वहाँ स्नेह-सूत्रों के कारण बार-बार जाना हुआ है। ये स्थान देश में भी हैं, विदेश में भी हैं।
अंतिम कड़ी के रूप में मैं काशी के बारे में लिखना चाहता हूँ, जहाँ बीच-बीच में कई बार अंतराल आए हैं। और वहीं लौटना लगभग तैंतीस वर्षों से अपरिहार्यत: होता रहा है। इसीलिए काशी एक प्रकार से मेरे लिए अतीत से अधिक भविष्यत् है, वर्तमान तो है ही। सोचता हूँ, केवल काशी पर और काशी निवास में आए अंतरालों पर अलग से लिखूँ, जब भी लिखूँ। -विद्यानिवास मिश्र

पुस्तक के कुछ अंश

बसेरे की सुधि दो ही समय आती है-या तो तब जब आदमी थककर चूर होता है या फिर तब जब बसेरा सदा के लिए छूटने को होता है। आज जिस मोड़ पर मैं हूँ उसमें एक ओर तो बसेरा का बड़ा मोह होता है, या यों कहें, बसेरों का बड़ा मोह होता है, क्योंकि बसेरे भी बहुत बने, उजड़ा कोई नहीं; पर मेरा कुछ-न-कुछ अंश जरूर उजड़ता गया है। कबीर का पद याद आता है, जिसका अर्थ यही है-‘हंस’ सरोवर कैसे छोड़े, जिस सरोवर में मोती चुगता रहा, जिसमें रहकर कमलों से केलि की, वह सरोवर भी छूट रहा है और वह कैसे छूटे ?

ऊँचे गगन का निमंत्रण है तो भी क्या ? खुलेपन का निमंत्रण है तो क्या ? अमरत्व का निमंत्रण है तो भी क्या ? मोक्ष का निमंत्रण है तो भी क्या ? सरोवर मानसरोवर भी नहीं था। मामूली पोखर, जिसमें जल का अंश नाम मात्र को रह जाता है, धूप है-झलमल चमकने भर को। जल कम, कीच ही अधिक रहती थी। कमल जरूर खिलते थे और परिश्रम से खिलते थे। ऐसे पोखर को भी छोड़ते समय दर्द तो होता ही है।

हंसा प्यारे सरवर तजि कहँ जाय
जेहि सरवर बिच मोतिया चुगते, बहुविधि केलि कराय
सूखे ताल पुरइन जल छाड़े, कमल गए कुम्हिलाय
कहे कबीर जो अबकी बिछुरे, बहुरि मिलो कब आए।[1]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चिड़िया रैन बसेरा (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 7 अगस्त, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख