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'''सी. विजयराघवा चारियर''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''C. Vijay Raghava Chariyer'',  जन्म- 1852 , सेलम ज़िला, [[तमिलनाडु]]; मृत्यु- 1943)  
'''सी. विजयराघवा चारियर''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''C. Vijay Raghava Chariyer'',  जन्म- 1852 , सेलम ज़िला, [[तमिलनाडु]]; मृत्यु- [[1943]]) प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता थे। [[1885]] से [[1901]] तक वे कहाँ लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य रहे थे। विजयराघवा चारियर [[नागपुर]] में हुए [[1920]] [[काँग्रेस]] के वार्षिक अधिवेशन का अध्यक्ष रहे थे। इस अधिवेशन में [[गाँधी जी]] के [[असहयोग आंदोलन]] के प्रस्ताव पर विचार हुआ था। लेकिन उनके विरोध के बाद भी काँग्रेस ने असहयोग का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया था।
प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता सी. विजयराघवा चारियर का जन्म 1852 ई. में सेलम (तमिलनाडु) में हुआ था। सार्वजनिक कार्यों के प्रति आरंभ से ही उनकी रुचि थी। देश पर अंग्रेजों का शासन उन्हें अखरता था। 1885 में काम्ग्रेस की स्थापना के लिए मुंबई में जो पहले अधिवेशन हुआ उसमें विजयराघवा चारियर ने भी भाग लिया। तब से अपने जीवन का महत्त्वपूर्ण समय उन्होंने इस संस्था के माध्यम से देश की सेवा में ही लगाया। काँग्रेस की स्थापना के बाद जब उसका संविधान बनाने की आवश्यकता पड़ी तो उनकी अध्यक्षता में तीन सदस्यों की समिति ने इसका निर्माण किया। मद्रास के सार्वजनिक जीवन में भी उनका महत्त्वपूर्ण स्थान था। 1885 से 1901 तक वे कहाँ लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य रहे।
==जन्म एवं परिचय==
 
सी. विजयराघवा चारियर का जन्म 1852 ई. में सेलम (तमिलनाडु) में हुआ था। सार्वजनिक कार्यों के प्रति आरंभ से ही उनकी रुचि थी। देश पर अंग्रेजों का शासन विजयराघवा चारियर को अखरता था। [[1885]] में [[कांग्रेस]] की स्थापना के लिए [[मुंबई]] में जो पहले अधिवेशन हुआ उसमें विजयराघवा चारियर ने भी भाग लिया। तब से अपने जीवन का महत्त्वपूर्ण समय उन्होंने इस संस्था के माध्यम से देश की सेवा में ही लगाया था।
काँग्रेस के 1907 के सूरत अधिवेशन में जब 'नरम' और 'गरम' दलों में मतभेद उत्पन्न हुआ तो विजयराघवा चारियर की सहानुभूति 'गरम' दल वालों के साथ थी। जब काँग्रेस के संविधान में संशोधन करके लोकमान्य तिलक आदि का काँग्रेस में प्रवेश रोक दिया गया तो वे भी काँग्रेस से अलग हो गए थे। लेकिन 1916 की लखनऊ काँग्रेस में तिलक के साथ वे पुन: काँग्रेस में आ गए।
==लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य==
 
काँग्रेस की स्थापना के बाद जब उसका [[संविधान]] बनाने की आवश्यकता पड़ी तो उनकी अध्यक्षता में तीन सदस्यों की समिति ने इसका निर्माण किया। [[मद्रास]] के सार्वजनिक जीवन में भी सी. विजयराघवा चारियर का महत्त्वपूर्ण स्थान था। [[1885]] से [[1901]] तक वे कहाँ लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य रहे। काँग्रेस के [[1907]] के [[सूरत]] अधिवेशन में जब 'नरम' और 'गरम' दलों में मतभेद उत्पन्न हुआ तो विजयराघवा चारियर की सहानुभूति 'गरम' दल वालों के साथ थी। जब काँग्रेस के संविधान में संशोधन करके [[लोकमान्य तिलक]] आदि का काँग्रेस में प्रवेश रोक दिया गया तो वे भी काँग्रेस से अलग हो गए थे। लेकिन [[1916]] की [[लखनऊ]] काँग्रेस में तिलक के साथ वे पुन: काँग्रेस में आ गए।
नागपुर में हुए 1920 काँग्रेस के वार्षिक अधिवेशन का अध्यक्ष विजयराघवा चारियर को चुना गया। उस समय राज गोपालाचारी, मोतीलाल नेहरू और एम.ए. अंसारी जैसे लोग काँग्रेस के महामंत्री थे। इस अधिवेशन में गाँधी जी के असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव पर विचार हुआ। वे असहयोग के पक्ष में नहीं थे। लेकिन उनके विरोध के बाद भी काँग्रेस ने असहयोग का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस विचार-भेद के कारण वे 35 वर्ष के बाद काँग्रेस से अलग हो गए। फिर उनका झुकाव हिंदू महा सभा की ओर हुआ। उसके एक अधिवेशन का उन्होंने सभापतित्व भी किया। 1943 ई. में निधन हो गया।
==काँग्रेस के वार्षिक अधिवेशन के अध्यक्ष==
[[नागपुर]] में हुए [[1920]] काँग्रेस के वार्षिक अधिवेशन के अध्यक्ष विजयराघवा चारियर को चुने गये। उस समय राज गोपालाचारी, [[मोतीलाल नेहरू]] और एम.ए. अंसारी जैसे लोग काँग्रेस के महामंत्री थे। इस अधिवेशन में [[गाँधी जी]] के [[असहयोग आंदोलन]] के प्रस्ताव पर विचार हुआ था। वे असहयोग के पक्ष में नहीं थे। लेकिन उनके विरोध के बाद भी काँग्रेस ने असहयोग का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस विचार-भेद के कारण वे 35 वर्ष के बाद काँग्रेस से अलग हो गए। फिर उनका झुकाव हिंदू महा सभा की ओर हुआ। उसके एक अधिवेशन का उन्होंने सभापतित्व भी किया।  
==निधन==
1943 ई. में निधन हो गया।

Revision as of 12:12, 23 December 2016

माधवी 2
पूरा नाम सारंगधर दास
जन्म 19 अक्टूबर, 1887
जन्म भूमि ज़िला ढेंकनाल रियासत ब्रिटिश भारत
मृत्यु 18 सितंबर, 1957
नागरिकता भारतीय
धर्म हिन्दू
आंदोलन भारत छोड़ों आंदोलन
शिक्षा बी.ए.
अन्य जानकारी 1948 में वे समाजवादी पार्टी में सम्मिलित हो गए और लोकसभा के लिए चुन कर वहाँ अपने पार्टी के नेता रहे थे।
अद्यतन‎ 04:31, 18 दिसम्बर-2016 (IST)

सारंगधर दास (अंग्रेज़ी: Sarangadhar Das, जन्म- 19 अक्टूबर, 1887, ज़िला ढेंकनाल रियासत ब्रिटिश भारत; मृत्यु- 18 सितंबर, 1957) एक स्वतंत्रता सेनानी थे। इन्होंने चीनी उड़ीसा में उद्योग स्थापित किया था। सारंगधर दास ने 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में वे गिरफ्तार हुए थे और 1946 तक जेल में बंद रहे। उड़ीसा असेम्बली के सदस्य चुने गए थे। 1948 में वे समाजवादी पार्टी में सम्मिलित हो गए और लोकसभा के सदस्य रहे थे।। उन्होंने केंद्र सरकार के कर्मचारियों के संघ की अध्यक्षता भी की।[1]

जन्म एवं शिक्षा

सारंगधर दास का उड़ीसा की देशी रियासत धेनकनाल में 19 अक्टूबर, 1887 को जन्म हुआ था। इनका जीवन शिक्षा, उद्योग और राजनीति तीनों क्षेत्रों में बड़ा संघर्ष पूर्ण थहै। कटक से बी.ए. पास करन के के बाद आगे के अध्ययन के लिए छात्रवृत्ति लेकर वे जापान गए। वे वर्ष भर टोकियो के टेकनिकल इंस्टीट्यूट में रह कर अमरीका पहुँचे और कैलिफॉर्निया यूनिवर्सिटी से रसायन और कृषि में उच्च डिग्री प्राप्त की। कुछ वर्षों तक अमेरिका और बर्मा की चीनी मिलों में काम करने के बाद वे भारत वापस आ गए।

चीनी मिल की स्थापना

भारत आकर सारंगधर दास ने अपने गाँव हरिकृष्णपुर के निकट एक चीनी मिल की स्थापना की थी। उस आदिवासी क्षेत्र की उन्नति के लिए यह वरदान सिद्ध हुई। इससे आदिवासियों की आर्थिक हालत सुधरी और उसके बीच सारंगधर दास का प्रभाव भी बढ़ा था। उनके बढ़ते प्रभाव से रियासत धेनकलाल का शासक संकित हो उठा था।

ब्रिटिश अत्याचारों के खिलाफ आवाज

1928 में जब सारंगधर दास इलाज के लिए कोलकाता गए थे, रियासर के शासक ने झूठे अभियोग लगाकर उनकी चीनी मिल के गन्ने के खेतों को जब्त करके नीलाम करा दिया। लौटने पर इस अन्याय की शिकायत जन उन्होंने रियासत के ब्रिटिश पोलिटिकल एजेंट और बिहार-उड़ीसा के गवर्नर से की तो वहाँ भी कोई सुनबाई नहीं हुई थी। इस पर सारंगधर दास ने जनता को संगठित करके रियासत के अत्याचारों का सामना करने का निश्चय किया। उन्होंने 'उड़ीसा राज्य प्रजामंडक' बनाया जिस का पहला सम्मेलन 1931 ई. में पट्टाभि सीतारामय्या की अध्यक्षता में हुआ। इसके बाद प्रांत की अन्य रियासतों पर भी इसका प्रभाव पड़ा और लोग अपने अधिकारों के लिए संगठित होने लगे। कई जगह खुला संघर्ष हुआ और लोगों को पुलिस की गोलियाँ झेलनी पड़ीं। इस प्रकार सारंगधर दास जिन्होंने उड़ीसा में उद्योग स्थापित करने का काम आरंभ किया था, विदेशी सरकार और उसके समर्थक देशी रजवाड़ों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित हो गए। 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में वे गिरफ्तार हुए और 1946 तक जेल में बंद रहे। जेल से छूटने पर उड़ीसा असेम्बली के सदस्य चुने गए। 1948 में वे समाजवादी पार्टी में सम्मिलित हो गए और लोकसभा के लिए चुन कर वहाँ अपने पार्टी के नेता रहे थे। उन्होंने केंद्र सरकार के कर्मचारियों के संघ की अध्यक्षता भी की थी।

निधन

18 सितंबर, 1957 को सारंगधर दास का देहांत हो गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 916 |

संबंधित लेख



माधवी 2
पूरा नाम संत सिंगा जी
जन्म 1519
जन्म भूमि खजूरी गाँव
मृत्यु जीवित समाधि
मृत्यु स्थान नर्मदा नदी
संतान पुत्र- 4
कर्म भूमि मालवा
मुख्य रचनाएँ पदों की संख्या 800
विषय भक्ति
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी 16वीं या 17वीं शताब्दी के काल का माना जाता है। कहा जाता है की सिंगा जी एक कवि व करामाती संत थे।
अद्यतन‎ 04:41, 23 दिसम्बर-2016 (IST)
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

संत सिंगा जी (अंग्रेज़ी: Sant Singa, जन्म- 1519 , खजूरी गाँव) भारत में मध्य प्रदेश के नीमार के एक मशहूर संत थे। उन्हे पशु रक्षक देव के रूप मे पूजा जाता है। इन्होंने कुछ वर्ष डाक-वाहक की नौकरी भी की थी। सिंगा जी ने जीवित समाधि लेकर अपने प्राण त्याग दिए थे।[1]

जन्म एवं परिचय

मालवा के प्रसिद्ध संत सिंगा जी का जन्म 1519 ई. में पिपलिया नामक कस्बे के निकट खजूरी गाँव में एक ग्वाला परिवार में हुआ था। इनके जन्मस्थान (खजूरी ग्राम) का नामकरण उन्ही के नाम पर किया गया है। सिंगा जी मध्य प्रदेश में खांडवा से 28 मील उत्तर पूर्व मे हरसूद तहसील का एक छोटा गाँव है। हरसूद का निर्माण हर्षवर्धन द्वारा किया गया था। इसी गाँव मे सिंगा जी एक सामान्य गोपाल या अहीर परिवार में जन्मे थे। वे बचपन से ही एकांत स्वभाव के थे। जब वन में जानवरों को चराने जाते तो वहाँ प्रकृति के बीच रमे रहते थे। सिंगा जी का विवाह हुआ, चार पुत्र भी पैदा हुए, परंतु उनका मन घर-गृहस्थी में नहीं लगता था।

नौकरी

16वीं शताब्दी में सिंगा जी की प्रतिभा से प्रेरित होकर गाँव के जमींदार ने उन्हें अपना सरदार नियुक्त कर दिया था। सिंगा जी ने बारह साल जमींदार की सेवा की तथा अपनी आध्यात्मिक करामाती शक्तियों से जमींदार के लिए कई लड़ाइयों में विजय भी प्राप्त की। सिंगा जी के पिता ने एक राजा के यहाँ उन्हें एक रुपया प्रतिमास वेतन पर डाक-वाहक की नौकरी दिला दी।

गृहस्थ जीवन का त्याग

इस बीच सिंगा जी के साथ एक घटना घटी। सिंगा जी घोड़े पर बैठकर डाक ले जा रहे थे। तभी उनके कानों में किसी महात्मा के द्वारा गाए जा रहे ये शब्द पड़े-समुझि लेवो रे भाई, अंत न होय कोई आपणा।' सिंगा जी पर इसकी तत्काल प्रतिक्रिया हुई। वे भजन गा रहे महात्मा मन रंगगीर के पास गए और उनसे अपना शिष्य बना लेने का अनुरोध किया। महात्मा ने कहा- तुम गृहस्थ हो, अपने धर्म का पालन करो। साधना-मार्ग बहुत कठिन है। फिर भी तुम इसे अपनाना ही चाहते हो तो पहले माया-मोह का त्याग करो। सिंगा जी ने नौकरी छोड़ने का निश्चय किया, वेतन बढ़ाने का राजा का प्रलोभन भी उन्हें न रोक सका। अंत में उन्होंने सन 1558 ई. में हुरु से दीक्षा ले ली।

संत जीवन

संत सिंगा जी को 16वीं या 17वीं शताब्दी के काल का माना जाता है। कहा जाता है की सिंगा जी एक कवि व करामाती संत थे। वे साक्षर नहीं थे। परंतु भक्ति के आवेश में जो पद बना कर गाते थे, उन्हें उनके अनुयायियों ने लिपिबद्ध कर लिया। ऐसे पदों की संख्या 800 बताई जाती है। उन्होंने समाज के दलित और उपेक्षित वर्ग को ऊपर उठाने के लिए बहुत काम किया। माखनलाल चतुर्वेदी ने उन्हें नर्मदा की तरह अमर प्राणवर्धक और युग की सीमा-रेखा बनाने वाला संत कहा। उसे क्षेत्र की जन जातियाँ आज भी अपना आराध्य मानती हैं और उनके समाधि-स्थल पर प्रतिवर्ष बड़ा मेला लगता है।

निधन

मान्यता है कि गुरु मुख से क्रोध में निकली बात को मानकर सिंगा जी ने दीक्षा लेने के एक वर्ष के भीतर ही जीवित समाधि लेकर अपने प्राण दे दिए थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 918 |

संबंधित लेख



सी. विजयराघवा चारियर (अंग्रेज़ी: C. Vijay Raghava Chariyer, जन्म- 1852 , सेलम ज़िला, तमिलनाडु; मृत्यु- 1943) प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता थे। 1885 से 1901 तक वे कहाँ लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य रहे थे। विजयराघवा चारियर नागपुर में हुए 1920 काँग्रेस के वार्षिक अधिवेशन का अध्यक्ष रहे थे। इस अधिवेशन में गाँधी जी के असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव पर विचार हुआ था। लेकिन उनके विरोध के बाद भी काँग्रेस ने असहयोग का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया था।

जन्म एवं परिचय

सी. विजयराघवा चारियर का जन्म 1852 ई. में सेलम (तमिलनाडु) में हुआ था। सार्वजनिक कार्यों के प्रति आरंभ से ही उनकी रुचि थी। देश पर अंग्रेजों का शासन विजयराघवा चारियर को अखरता था। 1885 में कांग्रेस की स्थापना के लिए मुंबई में जो पहले अधिवेशन हुआ उसमें विजयराघवा चारियर ने भी भाग लिया। तब से अपने जीवन का महत्त्वपूर्ण समय उन्होंने इस संस्था के माध्यम से देश की सेवा में ही लगाया था।

लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य

काँग्रेस की स्थापना के बाद जब उसका संविधान बनाने की आवश्यकता पड़ी तो उनकी अध्यक्षता में तीन सदस्यों की समिति ने इसका निर्माण किया। मद्रास के सार्वजनिक जीवन में भी सी. विजयराघवा चारियर का महत्त्वपूर्ण स्थान था। 1885 से 1901 तक वे कहाँ लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य रहे। काँग्रेस के 1907 के सूरत अधिवेशन में जब 'नरम' और 'गरम' दलों में मतभेद उत्पन्न हुआ तो विजयराघवा चारियर की सहानुभूति 'गरम' दल वालों के साथ थी। जब काँग्रेस के संविधान में संशोधन करके लोकमान्य तिलक आदि का काँग्रेस में प्रवेश रोक दिया गया तो वे भी काँग्रेस से अलग हो गए थे। लेकिन 1916 की लखनऊ काँग्रेस में तिलक के साथ वे पुन: काँग्रेस में आ गए।

काँग्रेस के वार्षिक अधिवेशन के अध्यक्ष

नागपुर में हुए 1920 काँग्रेस के वार्षिक अधिवेशन के अध्यक्ष विजयराघवा चारियर को चुने गये। उस समय राज गोपालाचारी, मोतीलाल नेहरू और एम.ए. अंसारी जैसे लोग काँग्रेस के महामंत्री थे। इस अधिवेशन में गाँधी जी के असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव पर विचार हुआ था। वे असहयोग के पक्ष में नहीं थे। लेकिन उनके विरोध के बाद भी काँग्रेस ने असहयोग का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस विचार-भेद के कारण वे 35 वर्ष के बाद काँग्रेस से अलग हो गए। फिर उनका झुकाव हिंदू महा सभा की ओर हुआ। उसके एक अधिवेशन का उन्होंने सभापतित्व भी किया।

निधन

1943 ई. में निधन हो गया।