साहित्य के सरोकार -विद्यानिवास मिश्र

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साहित्य के सरोकार -विद्यानिवास मिश्र
लेखक विद्यानिवास मिश्र
मूल शीर्षक साहित्य के सरोकार
प्रकाशक वाणी प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 3 मार्च, 2007
ISBN 81-8143-639-3
देश भारत
पृष्ठ: 184
भाषा हिंदी
विधा निबंध संग्रह
विशेष विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था।

साहित्य के सरोकार हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद विद्यानिवास मिश्र का निबंध संग्रह है।

सारांश

लेखक का सरोकार लेखक को अपने प्रति, अपने भीतर के मनुष्य के प्रति तो है, पर उसके बारे में प्रश्न करने वाला भी भीतर का ही आदमी होगा, जो मेरे मन की आवाज़ सुन नहीं सकता वह आदमी क्यों मुझसे प्रश्न करे ? मेरे लिखने का स्रोत बाहर तो है नहीं, भीतर है। इसीलिए मेरी दृष्टि में सरोकार से अधिक साहित्य का रिश्ता चिंता से है। साहित्य भीतर की बेचैनी से ही उकसता है। उसी तरह जैसे कि बीज धरती में डाला जाता है और थोड़ी ऊष्मा से तपता है तो अँखुआ बना जाता है। यदि ठंडे स्थान में रहता है तो वह बीज ही बना रहता है। कालिदास ने इसी व्यापार को पर्युत्सुकी भाव कहा है जो उत्सुक नहीं है, उत्कंठित नहीं है, चैन से है, उसको किसी अनजानी, अनहोनी चिंता से किसी अप्रत्यक्ष दिशा की ओर आकुल कर देने वाला व्यापार ही पर्युत्सुकी भाव है। यही साहित्य का धर्म है। जहाँ कोई हो, वहाँ से उसका विस्थापित होना, चाहे थोड़े ही समय के लिए क्यों न हो, साहित्य के प्रभाव का सबसे सटीक प्रमाण है। पर यह बेचैनी देश और काल की सीमाओं को लाँघ करके होती है।

पुस्तक के कुछ अंश

इस जमाने में सरोकार का बाजार बड़ा गरम है। उसका असर साहित्य और संस्कृति जैसे व्यापारों पर भी पड़ता है और प्रश्न पूछा जाता है कि साहित्य का, विशेषकर आज के साहित्य का सरोकार क्या है ? संस्कृति का सरोकार होना चाहिए, वह कितना है ? जाने क्यों मैं इस सरोकार शब्द से घबड़ाता हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि कोई बाहर का आदमी हमसे जवाब माँग रहा थाः तुम्हें यह करना था, तुमने क्यों नहीं किया ? देश और समय हमसे इस प्रकार के सवाल नहीं करते। क्यों तुम देश की बात नहीं कर रहे हो ? क्यों तुम समय की बात नहीं कर रहे हो ? अपने देश और समय में क्यों नहीं जी रहे हो ? मुझसे जब ऐसे प्रश्न नागरिक की हैसियत से किए जाते हैं तो मैं इन प्रश्नों का औचित्य समझता हूँ और अपने को इन सबके प्रति, समाज, देश और समय के प्रति अपनी जवाबदेही मानता हूँ। परन्तु जिस क्षण मैंने अपने व्यक्ति को पूरी तरह अपनी भाषा बोलने वाले में विलीन कर दिया, उस क्षण मुझसे इन प्रश्नों के उत्तर की अपेक्षा क्यों ? मुझसे पूछा जा सकता है लेखक के रूप में तुमने अपने किसी पात्र के साथ ऐसा क्यों किया ? तुम्हारे भीतर कौन-सी गूँज थी जिसने तुमसे यह पंक्ति लिखवाई ? तो मैं लेखक के रूप में ऐसे प्रश्नों का अवश्य उत्तर दूँगा। लेखक का सरोकार लेखक को अपने प्रति, अपने भीतर के मनुष्य के प्रति तो है, पर उसके बारे में प्रश्न करने वाला भी भीतर का ही आदमी होगा, जो मेरे मन की आवाज को सुन नहीं सकता वह आदमी क्यों मुझसे प्रश्न करे ? मेरे लिखने का स्रोत बाहर तो है नहीं, भीतर है। इसीलिए मेरी दृष्टि में सरोकार से अधिक साहित्य का रिश्ता चिंता से है। साहित्य भीतर की बेचैनी से ही उकसता है। उसी तरह जैसे कि बीज धरती में डाला जाता है और छोड़ी ऊष्मा से तपता है तो अँखुवा बन जाता है। यदि ठंडे स्थान में रहता है तो वह बीज ही बना रहता है। कालिदास ने इसी व्यापार की पर्युत्सुकी भाव कहा है जो उत्सुक नहीं है, उत्कंठित नहीं है, चैन से है, उसको किसी अनजानी, अनहोनी चिंता से किसी अप्रत्यक्ष दिशा की ओर आकुल कर देने वाला व्यापार ही पर्युत्सुकी भाव है।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. साहित्य के सरोकार (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 9 अगस्त, 2014।

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