रसिकप्रिया

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रसिकप्रिया रीति काल के प्रसिद्ध कवि केशव द्वारा लिखा गया ग्रंथ है। जैसा कि नाम से ही ध्वनित होता है, केशव ने यह ग्रंथ रसिक जनों के प्रमोद के लिए रचा है। यह एक रीति-ग्रंथ है, जिसमें काव्यांगों के लक्षण प्रस्तुत किए गए हैं।

रचना सौंदर्य

कवि की रसिक मानसिकता इस रचना में पूर्णत: मुखरित हुई है। 'रसिकप्रिया' में केशव ने घने बादलों द्वारा फैलाए गए अंधकार की अत्यन्त सुन्दर और मार्मिक व्यंजना की है-

राति है आई चले घर कों, दसहूं दिसि मेह महा मढि आओ।
दूसरो बोल ही तें समुझै कवि “केसव’ यों छिति में तम छायो।।

रस भेद

इस ग्रंथ में केशवदास ने किसी विशेष रसग्रंथ से सहायता नहीं ली, वरन् रससिद्धांत का सम्यक अध्ययन कर स्वतंत्र रूप में ही लिखने का प्रयास किया है। रसों के इन्होंने 'प्रच्छन्न' और 'प्रकाश' नामक दो भेद किए हैं। ऐसा किसी अन्य आचार्य ने नहीं किया। भोजदेव ने अनुराग के ऐसे दो भेद किए हैं।

सोलह प्रकाश

केशवदास की इस रचना में कुल 16 प्रकाश हैं- शृंगार रस चूँकि 'रसराज' माना गया है, इसलिये मंगलाचरण के बाद प्रथम प्रकाश में इसी का, इसके भेदों के साथ, वर्णन किया गया है। दूसरे प्रकाश में नायकभेद और तीसरे में जाति, कर्म, अवस्था, मान के विचार से नायिका के भेद, चतुर्थ में प्रेमोत्पत्ति के चार मुख्य हेतुओं तथा पंचम में दोनों की प्रणय संबंधी चेष्टाओं, मिलनस्थलों, तथा अवसरों के साथ स्वयंदूतत्व का निरूण किया गया है। फिर छठे में भावविभावानुभाव, संचारी भावों के साथ हावादि का कथन हुआ है। अष्टम में पूर्वानुराग तथा प्रियमिलन न होने पर प्रमुख दशाओं का, नवम में मान और दशम में मानमोचन के उपायों का उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् वियोग शृंगार के रूपों तथा सखीभेद, आदि का विचार किया गय है। चौदहवें प्रकाश में अन्य आठ रसों का निरूपण किया गया है। इसमें आधार भरतमुनि का 'नाट्यशास्त्र' ही प्रतीत होता है। फिर भी यह मौलिक है।


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