रसकुसुमाकर
रसकुसुमाकर 515 छन्दों का ग्रंथ है। यह एक उत्कृष्ट रीति ग्रंथ माना जाता है, जिसके रचयिता अयोध्या के महाराज ददुआ साहब थे। लक्षण ग्रंथों की परम्परा में इसका महत्त्व इसलिए भी स्वीकार किया जाता है कि जहाँ पूर्ववर्त्ती अन्य लक्षण ग्रंथों में विषय का प्रतिपादन पंचशैली में हुआ है, वहीं इसमें गद्य के माध्यम से लक्षणों का रोचक एवं सरस निरूपण हुआ है।[1]
- यह ग्रंथ संवत 1849 में पूर्ण हुआ और संवत 1951 में प्रयाग (वर्तमान इलाहाबाद) के 'इण्डियन प्रेस' से मुद्रित हुआ।
- 'रसकुसुमाकर' पन्द्रह कुसुमों में लिखा गया है। प्रथम में परिचय है, द्वितीय में स्थायी भावों का निरूपण है। इसी प्रकार तृतीय में संचारी भाव, चतुर्थ में अनुमान और पंचम में घरों का लालित्यपूर्ण वर्णन हुआ है। शेष अन्य कुसुमों में, सखा, सखी, दूती, ऋतुवर्णन और परकीया आदि नायिकाओं का उल्लेख हुआ है।
- इस ग्रंथ की एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि रीति काल के उत्तम शृंगारिक कवियों से उदाहरण चुनने में ददुआ साहब ने बड़ी सहृदयता प्रदर्शित की है।
- ग्रंथ में स्थल-स्थल पर देव, बिहारी, पद्माकर, बेनी, द्विजदेव, लीलाधर, कमलापति, लछिराम और संकु आदि के टकसाली छन्द आसानी से मिल जायेंगे।[1]
- 'रसकुसुमाकर' में यथा स्थलों पर भावों के अनुरूप कुछ विशिष्ट चित्र भी दिए गये हैं। इन चित्रों से ग्रंथ की महत्ता निश्चय ही बढ़ गई है।[2]
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