वास्तुकला

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मुग़लों ने भव्य महलों, क़िलों, द्वारों, मस्जिदों, बावलियों आदि का निर्माण किया। उन्होंने बहते पानी तथा फ़व्वारों से सुसज्जित कई बाग़ लगवाये। वास्तव में महलों तथा अन्य विलास-भवनों में बहते पानी का उपयोग मुग़ल की विशेषता थी। बाबर स्वयं बाग़ों का बहुत शौकीन था और उसने आगरा तथा लाहौर के नज़दीक कई बाग़ भी लगवाए। जैसे काश्मीर का निशात बाग़, लाहौर का शालीमार बाग़ तथा पंजाब तराई में पिंजोर बाग़, आज भी देखे जा सकते हैं।

शेरशाह ने वास्तुकला को नयी दिशा दी। सासाराम (बिहार) में उसका प्रसिद्ध मक़बरा तथा दिल्ली के पुराने क़िले में उसकी मस्जिद वास्तुकला के आश्चर्यजनक नमूने हैं। ये मुग़ल-पूर्वकाल के वास्तुकला के चर्मोंत्कर्ष तथा नई शैली के पाररंम्भिक नमूने हैं।

अकबर पहला मुग़ल सम्राट था जिसके पास बड़े पैमान पर निर्माण करवाने के लिए समय और साधन थे। उसने कई क़िलों का निर्माण किया जिसमें सबसे प्रसिद्ध आगरे का क़िला है। लाल पत्थर से बने इस किले में कई भव्य द्वार हैं। क़िला निर्माण का चर्मोंत्कर्ष शाहजहाँ द्वारा निर्मित दिल्ली का लाल क़िला है।

1572 में अकबर ने आगरा से 36 किलोमीटर दूर फ़तेहपुर सीकरी में क़िलेनुमा महल का निर्माण आरम्भ किया। यह आठ वर्षां में पूरा हुआ। पहाड़ी पर बसे इस महल में एक बड़ी कृत्रिम झील भी थी। इसके अलावा इसमें गुजरात तथा बंगाल शैली में बने कई भवन थे। इनमें गहरी गुफाएँ, झरोखे तथा छतरियाँ थी। हवाखोरी के लिए बनाए गए पंचमहल की सपाट छत को सहारा देने के लिए विभिन्न स्तम्भों, जो विभिन्न प्रकार के मन्दिरों के निर्माण में प्रयोग किए जाते थे, का इस्तेमाल किया गया था। राजपूती पत्नी या पत्नियों के लिए बने महल सबसे अधिक गुजरात शैली में हैं। इस तरह के भवनों का निर्माण आगरा के क़िले में भी हुआ था। यद्यपि इनमें से कुछ ही बचे हैं। अकबर आगरा और फतेहपुर सीकरी दोनों जगहों के काम में व्यक्तीगत रुचि लेता था। दीवारों तथा छतों की शोभा बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किए गए चमकीले नीले पत्थरों में ईरानी या मध्य एशिया का प्रभाव देखा जा सकता है। फ़तेहपुर सीकरी का सबसे प्रभावशाली वहाँ की मस्जिद तथा बुलन्द दरवाज़ा है जो अकबर ने अपनी गुजरात विजय के स्मारक के रूप मे बनवाया था। दरवाज़ा आधे गुम्बद की शैली में बना हुआ है। गुम्बर का आधा हिस्सा दरवाज़े के बाहर वाले हिस्से के ऊपर है तथा उसके पीछे छोटे-छोटे दरवाज़े हैं। यह शैली ईरान से ली गई थी और बाद के मुग़ल भवनों में आम रूप से प्रयोग की जाने लगी।

मुग़ल साम्राज्य के विस्तार के साथ मुग़ल वास्तुकला भी अपने शिखर पर पहुँच गई। जहाँगीर के शासनकाल के अन्त तक ऐसे भवनों का निर्माण आरम्भ हो गया था जो पूरी तरह संगमरमर के बने थे और जिनकी दीवारों पर क़ीमती पत्थरों की नक़्क़ाशी की गई थी। यह शैली शाहजहाँ के समय और भी लोकप्रिय हो गयी। शाहजहाँ ने इसे ताजमहल, जो निर्माण कला का रत्न माना जाता है, में बड़े पैमाने पर प्रयोग किया। ताजमहल में मुग़लों द्वारा विकसित वास्तुकला की सभी शैलियों का सुन्दर समन्वय है। अकबर के शासनकाल के प्रारम्भ में दिल्ली में निर्मित हुमायूँ का मकबरा, जिसमें संगमरमर का विशाल गुम्बद है, ताज का पूर्वगामी माना जा सकता है। इस भवन की एक दूसरी विशेषता दो गुम्बदों का प्रयोग है। इसमें एक बड़े गुम्बद के अन्दर एक छोटा गुम्बद भी बना हुआ है। ताज की प्रमुख विशेषता उसका विशाल गुम्बद तथा मुख्य भवन के चबूतरे के किनारों पर खड़ी चार मीनारें हैं। इसमें सजावट का काम बहुत कम है लेकिन संगमरमर के सुन्दर झरोखों, जड़े हुए क़ीमती पत्थरों तथा छतरियों से इसकी सुन्दरता बहुत बढ़ गयी है। इसके अलावा इसके चारों तरफ़ लगाए गए, सुसज्जित बाग़ से यह और प्रभावशाली दिखता है।

शाहजहाँ के शासनकाल में मस्जिद निर्माण कला भी अपने शिखर पर थी। दो सबसे सुन्दर मस्जिदें हैं आगरा के क़िले की मोती मस्जिद जो ताज की तरह पूरी संगमरमर की बनी है तथा दिल्ली की जाता मस्जिद जो लाल पत्थर की है। जामा मस्जिद की विशेषताएँ उसका विशाल द्वार, ऊँची मीनारें तथा गुम्बद हैं।

यद्यपि मितव्ययी औरंगजेब ने बहुत भवनों का निर्माण नहीं किया तथापि हिन्दू, तुर्क तथा ईरानी शैलियों के समन्वय पर आधारित मुग़ल वास्तुकला की परम्परा अठाहरवीं तथा उन्नसवीं शताब्दी के आरम्भ तक बिना रोक जारी रही। मुग़ल परम्परा ने कई प्रान्तीय स्थानीय राजाओं के क़िलों तथा महलों की वास्तुकला को प्रभावित किया। अमृतसर में सिखों का स्वर्ण मन्दिर जो इस काल में कई बार, वह भी गुम्बद तथा मेहराब के सिद्धांत पर निर्मित हुआ था और इससे मुग़ल वास्तुकला की परम्परा की कई विशेषताएँ प्रयोग में लाई गईं।



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