चांदनगांव

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चांदनगांव हिंडौन ज़िला, राजस्थान में स्थित है। पश्चिम रेल की मथुरा-नागदा शाखा पर 'चांदनगांव' या वर्तमान 'महावीरजी' जैन धर्म के मानने वालों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। यह गंभीरा नदी के तट पर अवस्थित है। इस तीर्थ का महत्व मुख्य रूप से एक लाल रंग के पत्थर की प्रतिमा के कारण है, जो 1600 ई. के लगभग एक प्राचीन टीले के अंदर से प्राप्त हुई थी।[1]

इतिहास

राजस्थान के ख्यातों से ज्ञात होता है कि यह स्थान प्राचीन समय में चांदनगांव कहलाता था। यहाँ उस समय बड़े-बड़े व्यापारियों की बस्ती थी। एक स्थानीय किंवदंती के अनुसार यहाँ एक बड़े व्यापारी के पास 'घृत' (घी) का इतना विशाल संग्रह था कि इस स्थान से नाली में डालकर घृत दिल्ली तक पहुँचाया जा सकता था। चांदनगांव के नीचे की ओर गंभीरा नदी पर एक बांध बना हुआ था। इस स्थान का बंटवारा तीन भाइयों में हुआ था और नए दो गांवों के नाम क्रमश: तत्कालीन शासकों के नाम पर 'अकबरपुर' और 'नौरंगाबाद' हुए थे। वर्तमान महावीरजी, नौरंगाबाद का ही परिवर्तित नाम है।

निवासियों की शत्रुता

मुग़ल काल में निकटवर्ती कैमला ग्राम के निवासियों की यहाँ के निवासियों से शत्रुता होने के कारण यह बस्ती उजड़ गई। कैमलावासियों ने चांदनगांव का बाँध तोड़कर नगर को नष्ट भ्रष्ट कर दिया था, जिसके स्मारक रूप अनेक खंडहर आज भी देखे जा सकते हैं। महावीरजी के मंदिर की मूर्ति 1500 ई. से पूर्व की जान पड़ती है। यह संभव है कि शत्रुओं के आक्रमण के समय किसी ने इस मूर्ति को भूमि में गाड़ दिया हो और कालांतर में मंदिर के बनने के समय यह बाहर निकाली गई हो। यह निश्चित है कि मंदिर का निर्माण 'बसवा' (जयपुर) के सेठ अमरचंद विलाला ने 1688 ई. के कुछ पूर्व करवाया था। जयपुर के प्राचीन राजस्व के काग़ज़ों में इस सन में मंदिर के विद्यमान होने का उल्लेख है।

स्थापत्य

जयपुर सरकार की ओर से 1688 ई. में मंदिर में पूजा के लिए कुछ निश्चित धन दिया गया था। कहा जाता है कि 1830 ई. में जयपुर के दीवान जोधराज को तत्कालीन महाराजा ने किसी बात से रुष्ट होकर गोली से उड़ा देने का आदेश दिया था, किंतु चांदनगांव के महावीर स्वामी की मनौती के कारण वे तीन गोलियाँ दागी जाने के बाद भी बच गए। इसी चमत्कार से प्रभावित होकर महाराजा तथा दीवान दोनों ने यहाँ के मंदिर को विस्तृत करवाया था। इस मंदिर में मुग़ल वास्तुकला की पूरी-पूरी छाप दिखाई देती है, जिसके उदाहरण इसके गुंबद, गोल छत्रियाँ और आले हैं। मंदिर के तैयार होने पर सरकार द्वारा एक मेला यहाँ लगवाया गया था, जो आज भी प्रतिवर्ष बैसाख में लगता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |पृष्ठ संख्या: 329 |

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