महादेव

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महादेव / Mahadev

  • महादेव कल्याणकारी होने के कारण शिव कहलाते हैं तथा
  • रू (दु:ख) का नाम करने के कारण रुद्र नाम से अभिहित हैं। वे प्रसन्न भी शीघ्र होते हैं और रूष्ट भी। एक बार शिव दक्ष पर कुपित हो गये थे। उन्होंने विधि-विधान से किये जाने वाले यज्ञ को तथा प्रकृति के समस्त मूल तत्त्वों को नष्ट कर डाला। पूषा [1] पर आक्रमण किया। वह पुरोडाश (यव, तंडुल) खा रहा था। शिव ने उसके समस्त दांत तोड़ डालें। देवताओं आदि ने भयभीत होकर शिव की शरण ग्रहण की, तब यज्ञ पूर्ण हो पाया।
  • पूर्वकाल में तीन असुरों ने आकाश में तीन नगरों का निर्माण किया:
  1. लोहे का- विद्युन्माली के अधिकार में,
  2. चांदी का- तारकाक्ष के अधिकार में तथा
  3. सोने का- कमलाक्ष के अधिकार में था।
  • इन्द्र अनेक प्रयत्नों के उपरांत भी उन पर विजय प्राप्त न कर पाया, तो उसने शिव की शरण ग्रहण की। शिव ने गंधमादन और विंध्याचल को रथ की पार्श्ववर्ती दो ध्वजाओं के रूप में ग्रहण किया। पृथ्वी को रथ, शेष को रथ का धुरा, चंद्र-सूर्य को पहिये, एलपत्र के पुत्र और पुष्पदंत को जुए की कीलें बनाया, मलयाजल को यूप, तक्षक को जुआ बांधने की रस्सी, वेदों को घोड़े तथा उपवेदों को लगाम और गायत्री तथा सावित्री को प्रग्रह बना लिया। तदुपरांत ओंकार को चाबुक, ब्रह्मा को सारथी, मंदराचल को गांडीव, वासुकि नाग को प्रत्यंचा, विष्णु को उत्तम बाण, अग्नि को बाण का फल, वायु को उसके पंख तथा वैवस्वत यम को उसकी पूंछ बनाकर मेरूपर्वत को प्रधान ध्वजा का स्थान दिया। इस प्रकार घमासान युद्ध के लिए कटिबद्ध हो शिव ने त्रिपुर पर आक्रमण कर उन्हें विदीर्ण कर डाला। उसी समय पार्वती एक पांच शिखा वाले बालक को गोद में लेकर देवताओं के सम्मुख आयीं और पूछने लगीं कि क्या वे लोग उस बालक को पहचानते हैं? इन्द्र ने बालक पर वज्र से प्रहार करना चाहा, पर हंसकर शिव ने उनकी भुजा स्तंभित कर दी। इन्द्र सहित समस्त देवता ब्रह्मा के पास पहुंचे। ब्रह्मा ने बताया कि पार्वती को प्रसन्न करने के निमित्त बाल रूप में शिव ही थे। वे एक होकर भी अनेक रूपधारी हैं। उनकी आराधना करने से इन्द्र की बांह पूर्ववत ठीक हो पायी। शिव का व्यक्तित्व विशाल है, अनेक आयामों से देखकर उनके अनेक नाम रखे गये हैं:
  1. महेश्वर- महाभूतों के ईश्वर होने के कारण तथा सूंपूर्ण लोकों की महिमा से युक्त।
  2. बडवामुख- समुद्र में स्थित मुख जलमय हविष्य का पान करता है।
  3. अनंत रुद्र- यजुर्वेद में शतरूप्रिय नामक स्तुति है।
  4. विभु और प्रभु- विश्व व्यापक होने के कारण।
  5. पशुपति- सर्पपशुओं का पालन करने के कारण।
  6. बहुरूप- अनेक रूप होने के कारण।
  7. सर्वविश्वरूप- सब लोकों में समाविष्ट हैं।
  8. धूर्जटि- धूम्रवर्ण हैं।
  9. त्र्यंबक- आकाश, जल, पृथ्वी तीनों अंबास्वरूपा देवियों को अपनाते हैं।
  10. शिव- कल्याणकारी, समृद्धि देनेवाले हैं।
  11. महादेव- महान विश्व का पालन करते हैं।
  12. स्थाणु- लिंगमय शरीर सदैव स्थिर रहता है।
  13. व्योमकेश- सूर्य-चंद्रमा की किरणें जो कि आकाश में प्रकाशित होती हैं, उनके केश माने गये हैं।
  14. भूतभव्यभवोद्भय- तीनों कालों में जगत का विस्तार करनेवाले हैं।
  15. वृषाकपि- कपि अर्थात श्रेष्ठ, वृष धर्म का नाम है।
  16. हर- सब देवताओं को काबू में करके उनका ऐश्वर्य हरनेवाले।
  17. त्रिनेत्र- अपने ललाट पर बलपूर्वक तीसरा नेत्र उत्पन्न किया था।
  18. रुद्र- रौद्र भाव के कारण।
  19. सोम- जंघा से ऊपर का भाग सोममय है। वह देवताओं के काम आता है और अग्नि- जंघा के नीचे का भाग अग्निवत् है। मनुष्य-लोक में अग्नि अथवा 'घोर' शरीर का उपयोग होता है।
  20. श्रीकंठ- शिव की श्री प्राप्त करने की इच्छा से इन्द्र ने वज्र का प्रहार किया था। वज्र शिव ने कंठ को दग्ध कर गया था, अत: वे श्रीकंठ कहलाते हैं। [2]

टीका-टिप्पणी

  1. (सूर्य, बारह आदित्यों में से एक)
  2. महाभारत, द्रोणपर्व, 202। दानधर्मपर्व, 141 । 8


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