राई और पर्वत -रांगेय राघव: Difference between revisions

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'''राई और पर्वत''' प्रसिद्ध [[हिन्दी]] साहित्यकार [[रांगेय राघव]] के द्वारा लिखा गया उपन्यास है। राघव जी का यह उपन्यास [[1 जनवरी]], [[2004] को प्रकाशित हुआ था। यह उपन्यास 'किताबघर प्रकाशन' ने प्रकाशित किया था।   
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'''राई और पर्वत''' प्रसिद्ध [[हिन्दी]] साहित्यकार [[रांगेय राघव]] के द्वारा लिखा गया उपन्यास है। राघव जी का यह उपन्यास 'किताबघर प्रकाशन' ने प्रकाशित किया था।   
==उपन्यास के कुछ अंश==
==उपन्यास के कुछ अंश==
रंगीन कपड़े उतरे, सफ़ेद धोती आई, सुहागिनों ने मन के भीतर कहीं हौंस से भरकर, दूसरी ओर अपने भविष्य को डर डरकर प्रणाम करते हुए उसके हाथों की चूड़ियाँ तोड़ दीं, और अब उँगलियों में जवानी की किलकारियाँ मारने वाले बिछिया नहीं रहे। जिन बालों पर कभी मास्टर के हाथ सिहर उठते थे, वे रूखे हो गए और माथे की बिंदिया चूल्हे की लपटों में थरथराने लगी। उसे वह देख सकती थी, मगर छू नहीं सकती थी, क्योंकि अब उसमें भस्म कर देने की शक्ति थी। यौवन के वह उभार जो अंग-अंग में आ रहे थे, जैसे बेल बढ़ती है; अब वह उन सबसे लजाने लगी। फूल-सी कहलाती थी जो आयु, वह अब पहाड़- सी कहलाने लगी। [[ब्राह्मण]] जाति में पति एक पुल है, जो स्त्री के लिए जन्म और मृत्यु के [[पर्वत|पर्वतों]] को मिलाता है। जीवन की भयानक नदी को निरापद बनाता है। यदि वह न रहे, तो कहाँ जाए स्त्री? कब से होता आ रहा है ऐसा और अब यह शाश्वत-सा हो गया है।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=5735 |title=राई और पर्वत |accessmonthday=24 जनवरी|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
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Latest revision as of 05:51, 25 January 2013

राई और पर्वत -रांगेय राघव
लेखक रांगेय राघव
प्रकाशक किताबघर प्रकाशन
ISBN 81-7016-666-7
देश भारत
पृष्ठ: 148
भाषा हिन्दी
प्रकार उपन्यास

राई और पर्वत प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार रांगेय राघव के द्वारा लिखा गया उपन्यास है। राघव जी का यह उपन्यास 'किताबघर प्रकाशन' ने प्रकाशित किया था।

उपन्यास के कुछ अंश

रंगीन कपड़े उतरे, सफ़ेद धोती आई, सुहागिनों ने मन के भीतर कहीं हौंस से भरकर, दूसरी ओर अपने भविष्य को डर डरकर प्रणाम करते हुए उसके हाथों की चूड़ियाँ तोड़ दीं, और अब उँगलियों में जवानी की किलकारियाँ मारने वाले बिछिया नहीं रहे। जिन बालों पर कभी मास्टर के हाथ सिहर उठते थे, वे रूखे हो गए और माथे की बिंदिया चूल्हे की लपटों में थरथराने लगी। उसे वह देख सकती थी, मगर छू नहीं सकती थी, क्योंकि अब उसमें भस्म कर देने की शक्ति थी। यौवन के वह उभार जो अंग-अंग में आ रहे थे, जैसे बेल बढ़ती है; अब वह उन सबसे लजाने लगी। फूल-सी कहलाती थी जो आयु, वह अब पहाड़- सी कहलाने लगी। ब्राह्मण जाति में पति एक पुल है, जो स्त्री के लिए जन्म और मृत्यु के पर्वतों को मिलाता है। जीवन की भयानक नदी को निरापद बनाता है। यदि वह न रहे, तो कहाँ जाए स्त्री? कब से होता आ रहा है ऐसा और अब यह शाश्वत-सा हो गया है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. राई और पर्वत (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 24 जनवरी, 2013।

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