जवाहर सिंह: Difference between revisions

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'''जवाहर सिंह (शासन काल सन 1763-1768)'''<br />
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वह जाट राजा [[सूरजमल]] का प्रतापी ज्येष्ठ पुत्र था। वह अपने बाबा−दादा के सद्श्य वीर और साहसी था, लेकिन वह उनके समान नीति−निपुण एवं विनम्र नहीं था। उसके उद्धत स्वभाव और उग्र व्यवहार से पिता सूरजमल उससे अप्रसन्न रहता था। प्रमुख [[जाट]] सरदार भी उससे असंतुष्ट रहते थे, किंतु उसकी वीरता के सभी प्रशंसक थे। सूरजमल की मृत्यु के पश्चात जब जवाहर सिंह जाटों का राजा हो गया, तब सभी जाट सरदार उसके साथ हो गये। उनकी दूरदर्शिता से जाटों की शक्ति गृह−कलह से क्षीण नहीं हो सकी थी। एक बार जवाहर सिंह [[डीग भरतपुर|डीग]] के राजमहल में अपनी माता को प्रणाम करने के लिए गया। उसके सिर पर शानदार पगड़ी बँधी हुई थी। उस पगड़ी को देख कर राजमाता ने रोते हुए कहा − '''"बेटा तेरे बाप की पगड़ी तो [[दिल्ली]] में पड़ी हुई मुग़लों की ठोकर खा रही है; और तू यह शानदार पगड़ी बाँधे हुए है। इसकी शान तो तब रहेगी जब अपने पिता की मृत्यु का बदला दिल्ली के शासकों से लेगा।"''' इसका वर्णन एक कवि ने इस प्रकार किया है,−
वह जाट राजा [[सूरजमल]] का प्रतापी ज्येष्ठ पुत्र था। वह अपने बाबा−दादा के सद्श्य वीर और साहसी था, लेकिन वह उनके समान नीति−निपुण एवं विनम्र नहीं था। उसके उद्धत स्वभाव और उग्र व्यवहार से पिता सूरजमल उससे अप्रसन्न रहता था। प्रमुख [[जाट]] सरदार भी उससे असंतुष्ट रहते थे, किंतु उसकी वीरता के सभी प्रशंसक थे। सूरजमल की मृत्यु के पश्चात् जब जवाहर सिंह जाटों का राजा हो गया, तब सभी जाट सरदार उसके साथ हो गये। उनकी दूरदर्शिता से जाटों की शक्ति गृह−कलह से क्षीण नहीं हो सकी थी। एक बार जवाहर सिंह [[डीग भरतपुर|डीग]] के राजमहल में अपनी माता को प्रणाम करने के लिए गया। उसके सिर पर शानदार पगड़ी बँधी हुई थी। उस पगड़ी को देख कर राजमाता ने रोते हुए कहा − '''"बेटा तेरे बाप की पगड़ी तो [[दिल्ली]] में पड़ी हुई मुग़लों की ठोकर खा रही है; और तू यह शानदार पगड़ी बाँधे हुए है। इसकी शान तो तब रहेगी जब अपने पिता की मृत्यु का बदला दिल्ली के शासकों से लेगा।"''' इसका वर्णन एक कवि ने इस प्रकार किया है,−


'''"पड़ी बाप की पगड़ी दिल्ली, रही मुग़ल की ठोकर खाय ।'''
'''"पड़ी बाप की पगड़ी दिल्ली, रही मुग़ल की ठोकर खाय ।'''
'''दिल्ली सर कर इन कथन हाथन तें, छत्रिन की लेइ लाज बचाय ।।"'''
'''दिल्ली सर कर इन कथन हाथन तें, छत्रिन की लेइ लाज बचाय ।।"'''
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माता के मर्मस्पर्शी वचनों को सुन वीरवर जवाहरसिंह का ख़ून खौलने लगा। उसने माता को चरण छू प्रतिज्ञा की, कि वह शीघ्र ही उस अपमान का बदला लेने के लिए दिल्ली प्रस्थान कर देगा। कुछ धन का प्रबंध करना बाक़ी है। कहते हैं, राजामाता ने अपने निजी कोश से उस युद्ध के लिए आवश्यक धन की पूरी व्यवस्था कर दी थी।<balloon title="हिस्ट्री ऑफ दि जाट्स, पृष्ठ 113" style=color:blue>*</balloon>
माता के मर्मस्पर्शी वचनों को सुन वीरवर जवाहरसिंह का ख़ून खौलने लगा। उसने माता को चरण छू प्रतिज्ञा की, कि वह शीघ्र ही उस अपमान का बदला लेने के लिए दिल्ली प्रस्थान कर देगा। कुछ धन का प्रबंध करना बाक़ी है। कहते हैं, राजामाता ने अपने निजी कोश से उस युद्ध के लिए आवश्यक धन की पूरी व्यवस्था कर दी थी।<ref>हिस्ट्री ऑफ दि जाट्स, पृष्ठ 113</ref>
==दिल्ली अभियान==
==दिल्ली अभियान==
सं. 1821 (अक्टूबर, सन् 1763) में जवाहरसिंह ने विशाल सेना के साथ दिल्ली की ओर कूच कर दिया। उसके साथ 60 हज़ार जवान और 100 तोपों की जाट सेना थी, 25 हज़ार मरहठों की सेना मल्हारराव होल्कर की कमान में थी, और 15 हज़ार सिक्ख सेना थी।<balloon title="हिस्ट्री ऑफ दि जाट्स, पृष्ठ 114" style=color:blue>*</balloon> जवाहरसिंह का उद्देश्य दिल्ली के नवाब वजीर नजीबुद्दोला रूहेले से सूरजमल के ख़ून का बदला लेना और पानीपत में हार जाने से हिन्दुओं के स्वाभिमान को जो ठेस पहुँची थी, उसका बदला लेना भी था।  
सं. 1821 (अक्टूबर, सन् 1763) में जवाहरसिंह ने विशाल सेना के साथ दिल्ली की ओर कूच कर दिया। उसके साथ 60 हज़ार जवान और 100 तोपों की जाट सेना थी, 25 हज़ार मरहठों की सेना मल्हारराव होल्कर की कमान में थी, और 15 हज़ार सिक्ख सेना थी।<ref>हिस्ट्री ऑफ दि जाट्स, पृष्ठ 114</ref> जवाहरसिंह का उद्देश्य दिल्ली के नवाब वजीर नजीबुद्दोला रूहेले से सूरजमल के ख़ून का बदला लेना और पानीपत में हार जाने से हिन्दुओं के स्वाभिमान को जो ठेस पहुँची थी, उसका बदला लेना भी था।  
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जब रूहेला वज़ीर ने जाटों के प्रतिहिंसात्मक युद्ध अभियान का समाचार सुना, तो उसने सहायता के लिए अहमदशाह अब्दाली के पास विशेष दूत भेजा और उसे बुलाया और दूसरे रूहेले सरदारों को भी बुलावा भेजा। उसने शाही खजाने और स्त्री−बच्चों को सुरक्षित स्थान पर भेजने का प्रबंध किया। उसके बाद दिल्ली के चारों ओर नाकेबंदी कर दीर्घकालीन संघर्ष के लिए तैयार हो गया। उसका साहस जाटों से युद्ध करने का नहीं हुआ, वह दिल्ली के चारों ओर के फाटकों को बंद करा आत्मरक्षा की व्यवस्था करता रहा। सेना ने चारों ओर से दिल्ली को घेर कर गोलाबारी आरंभ कर दी । गोलाबारी को विफल करने के लिए शाही सेना के कई दलों ने जाटों से संघर्ष किया, किंतु उन्हें सदैव पीछे हटना पड़ा। उसी समय जवाहरसिंह ने दिल्ली के निकटवर्ती शाहदरा नगर को लूटा और दिल्ली के किले पर प्रभावशाली गोलाबारी करने के लिए अपना तोपखाना जमा दिया। तोपों के गोले दिल्ली नगर की सीमा में गिरे, जिससे वहाँ भीषण बर्बादी होने लगी।<br />
जब रूहेला वज़ीर ने जाटों के प्रतिहिंसात्मक युद्ध अभियान का समाचार सुना, तो उसने सहायता के लिए अहमदशाह अब्दाली के पास विशेष दूत भेजा और उसे बुलाया और दूसरे रूहेले सरदारों को भी बुलावा भेजा। उसने शाही ख़ज़ाने और स्त्री−बच्चों को सुरक्षित स्थान पर भेजने का प्रबंध किया। उसके बाद दिल्ली के चारों ओर नाकेबंदी कर दीर्घकालीन संघर्ष के लिए तैयार हो गया। उसका साहस जाटों से युद्ध करने का नहीं हुआ, वह दिल्ली के चारों ओर के फाटकों को बंद करा आत्मरक्षा की व्यवस्था करता रहा। सेना ने चारों ओर से दिल्ली को घेर कर गोलाबारी आरंभ कर दी । गोलाबारी को विफल करने के लिए शाही सेना के कई दलों ने जाटों से संघर्ष किया, किंतु उन्हें सदैव पीछे हटना पड़ा। उसी समय जवाहरसिंह ने दिल्ली के निकटवर्ती शाहदरा नगर को लूटा और दिल्ली के क़िले पर प्रभावशाली गोलाबारी करने के लिए अपना तोपखाना जमा दिया। तोपों के गोले दिल्ली नगर की सीमा में गिरे, जिससे वहाँ भीषण बर्बादी होने लगी।<br />
इस घेराबंदी और गोलाबारी में तीन महीने निकल गये। दिल्ली की जनता को बड़ी कठिनाई और परेशानियाँ उठानी पड़ी, खाद्य वस्तुओं के अभाव में लोगों के भूखे मरने की नौबत आ गई। नजीबुद्दोला ने समझाने−बुझाने की बहुत चेष्टा की, किंतु भूखी जनता नगर के फाटकों को तोड़ कर बाहर निकल पड़ी और जाट सेना के शिविर में जा कर खाद्यान की भीख माँगने लगी। जवाहरसिंह ने उस अवसर पर खाद्यान का वितरण कराया। उस विषम परिस्थिति से घबराकर रूहेला वज़ीर−नजीबुद्दोला ने जाटों के साथ संधि का प्रस्ताव किया, जवाहरसिंह ने अपने पिता सूरजमल की मृत्यु के बदले में पूरा मुआवजा लेकर संधि कर ली।  
इस घेराबंदी और गोलाबारी में तीन महीने निकल गये। दिल्ली की जनता को बड़ी कठिनाई और परेशानियाँ उठानी पड़ी, खाद्य वस्तुओं के अभाव में लोगों के भूखे मरने की नौबत आ गई। नजीबुद्दोला ने समझाने−बुझाने की बहुत चेष्टा की, किंतु भूखी जनता नगर के फाटकों को तोड़ कर बाहर निकल पड़ी और जाट सेना के शिविर में जा कर खाद्यान की भीख माँगने लगी। जवाहरसिंह ने उस अवसर पर खाद्यान का वितरण कराया। उस विषम परिस्थिति से घबराकर रूहेला वज़ीर−नजीबुद्दोला ने जाटों के साथ संधि का प्रस्ताव किया, जवाहरसिंह ने अपने पिता सूरजमल की मृत्यु के बदले में पूरा मुआवजा लेकर संधि कर ली।  


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जवाहर सिंह राजपूत राजाओं पर अपना रौब जमाना चाहता था। उसने जाटों की सेना के साथ पुष्कर−यात्रा के लिए प्रस्थान किया। [[जयपुर]] के राजा माधवसिंह को सूचना दिये बगैर राज्य की सीमा से होकर जाटों की पताका फहराता वह पुष्कर पहुँच गया। जयपुर की सेना का उसे रोकने का साहस नहीं हुआ, जब वह वहाँ से वापिस लौटा तब दोनों सेनाओं में युद्ध छिड़ गया। जवाहरसिंह अपनी सेना के साथ राजपूतों से वीरतापूर्वक लड़ता हुआ जयपुर की सीमा पार कर सकुशल [[आगरा]] आ गया, किंतु उसे बड़ी हानि उठानी पड़ी। इस युद्ध में [[राजपूत|राजपूतों]] के साथ जाटों के भी अनेक योद्धा मारे गये। तबसे जयपुर नरेश और जवाहरसिंह में कटुता और विद्वेष की वृद्धि होती रही, जिससे दोनों की शक्ति क्षीण हुई । सं. 1825 में आगरा में किसी अज्ञात सैनिक ने जवाहरसिंह का धोखे से वध कर दिया। कहा जाता है, वह एक गुप्त षड़्यंत्र था, जिसमें जयपुर नरेश का हाथ था।  
जवाहर सिंह राजपूत राजाओं पर अपना रौब ज़माना चाहता था। उसने जाटों की सेना के साथ पुष्कर−यात्रा के लिए प्रस्थान किया। [[जयपुर]] के राजा माधवसिंह को सूचना दिये बगैर राज्य की सीमा से होकर जाटों की पताका फहराता वह पुष्कर पहुँच गया। जयपुर की सेना का उसे रोकने का साहस नहीं हुआ, जब वह वहाँ से वापिस लौटा तब दोनों सेनाओं में युद्ध छिड़ गया। जवाहरसिंह अपनी सेना के साथ राजपूतों से वीरतापूर्वक लड़ता हुआ जयपुर की सीमा पार कर सकुशल [[आगरा]] आ गया, किंतु उसे बड़ी हानि उठानी पड़ी। इस युद्ध में [[राजपूत|राजपूतों]] के साथ जाटों के भी अनेक योद्धा मारे गये। तबसे जयपुर नरेश और जवाहरसिंह में कटुता और विद्वेष की वृद्धि होती रही, जिससे दोनों की शक्ति क्षीण हुई । सं. 1825 में आगरा में किसी अज्ञात सैनिक ने जवाहरसिंह का धोखे से वध कर दिया। कहा जाता है, वह एक गुप्त षड़्यंत्र था, जिसमें जयपुर नरेश का हाथ था।  


'''जवाहरसिंह का मूल्यांकन'''
'''जवाहरसिंह का मूल्यांकन'''


जवाहरसिंह सन 1763 से 1768 तक के वर्षों तक ही[[भरतपुर]] की राजगद्दी पर रहा, उसी समय में वह अपने अद्भुत साहस और अनुपम शौर्य से अपना नाम अमर कर गया और जाट राज्य के गौरव को भी चरम सीमा पर पहुँचा दिया था। जाट राजवंश में चूड़ामन से लेकर अब तक जो वीर पुरुष हुए थे, उनमें जवाहरसिंह किसी से कम नहीं था। यदि वीरता और साहस के साथ उसमें गंभीरता, नीतिज्ञता और व्यवहार−कुशलता भी होती तो वह [[ब्रज]] के इतिहास को एक नया मोड़ दे सकता था। किंतु उसने अपनी शक्ति को व्यर्थ के युद्धों में नष्ट कर दिया, इस कारण उसके बाद ही जाट राज्य का महत्व कम होने लगा। जवाहरसिंह साहसी योद्धा होने के साथ ही साथ साहित्य और कला का प्रेमी तथा प्रोत्साहनकर्त्ता भी था। उसके आश्रित कवियों में भूधर, रंगलाल और मोतीराम के नाम उल्लेखनीय हैं। [[ब्रजभाषा]] का विख्यात महाकवि देव अपनी वृद्धावस्था में उसके दरबार में उपस्थित हुआ था।
जवाहरसिंह सन् 1763 से 1768 तक के वर्षों तक ही[[भरतपुर]] की राजगद्दी पर रहा, उसी समय में वह अपने अद्भुत साहस और अनुपम शौर्य से अपना नाम अमर कर गया और जाट राज्य के गौरव को भी चरम सीमा पर पहुँचा दिया था। जाट राजवंश में चूड़ामन से लेकर अब तक जो वीर पुरुष हुए थे, उनमें जवाहरसिंह किसी से कम नहीं था। यदि वीरता और साहस के साथ उसमें गंभीरता, नीतिज्ञता और व्यवहार−कुशलता भी होती तो वह [[ब्रज]] के इतिहास को एक नया मोड़ दे सकता था। किंतु उसने अपनी शक्ति को व्यर्थ के युद्धों में नष्ट कर दिया, इस कारण उसके बाद ही जाट राज्य का महत्त्व कम होने लगा। जवाहरसिंह साहसी योद्धा होने के साथ ही साथ साहित्य और कला का प्रेमी तथा प्रोत्साहनकर्त्ता भी था। उसके आश्रित कवियों में भूधर, रंगलाल और मोतीराम के नाम उल्लेखनीय हैं। [[ब्रजभाषा]] का विख्यात महाकवि देव अपनी वृद्धावस्था में उसके दरबार में उपस्थित हुआ था।


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Latest revision as of 07:41, 23 June 2017

जवाहर सिंह (शासन काल सन् 1763-1768)

जवाहर सिंह
Jawahar Singh|thumb|200px
वह जाट राजा सूरजमल का प्रतापी ज्येष्ठ पुत्र था। वह अपने बाबा−दादा के सद्श्य वीर और साहसी था, लेकिन वह उनके समान नीति−निपुण एवं विनम्र नहीं था। उसके उद्धत स्वभाव और उग्र व्यवहार से पिता सूरजमल उससे अप्रसन्न रहता था। प्रमुख जाट सरदार भी उससे असंतुष्ट रहते थे, किंतु उसकी वीरता के सभी प्रशंसक थे। सूरजमल की मृत्यु के पश्चात् जब जवाहर सिंह जाटों का राजा हो गया, तब सभी जाट सरदार उसके साथ हो गये। उनकी दूरदर्शिता से जाटों की शक्ति गृह−कलह से क्षीण नहीं हो सकी थी। एक बार जवाहर सिंह डीग के राजमहल में अपनी माता को प्रणाम करने के लिए गया। उसके सिर पर शानदार पगड़ी बँधी हुई थी। उस पगड़ी को देख कर राजमाता ने रोते हुए कहा − "बेटा तेरे बाप की पगड़ी तो दिल्ली में पड़ी हुई मुग़लों की ठोकर खा रही है; और तू यह शानदार पगड़ी बाँधे हुए है। इसकी शान तो तब रहेगी जब अपने पिता की मृत्यु का बदला दिल्ली के शासकों से लेगा।" इसका वर्णन एक कवि ने इस प्रकार किया है,−

"पड़ी बाप की पगड़ी दिल्ली, रही मुग़ल की ठोकर खाय । दिल्ली सर कर इन कथन हाथन तें, छत्रिन की लेइ लाज बचाय ।।"


माता के मर्मस्पर्शी वचनों को सुन वीरवर जवाहरसिंह का ख़ून खौलने लगा। उसने माता को चरण छू प्रतिज्ञा की, कि वह शीघ्र ही उस अपमान का बदला लेने के लिए दिल्ली प्रस्थान कर देगा। कुछ धन का प्रबंध करना बाक़ी है। कहते हैं, राजामाता ने अपने निजी कोश से उस युद्ध के लिए आवश्यक धन की पूरी व्यवस्था कर दी थी।[1]

दिल्ली अभियान

सं. 1821 (अक्टूबर, सन् 1763) में जवाहरसिंह ने विशाल सेना के साथ दिल्ली की ओर कूच कर दिया। उसके साथ 60 हज़ार जवान और 100 तोपों की जाट सेना थी, 25 हज़ार मरहठों की सेना मल्हारराव होल्कर की कमान में थी, और 15 हज़ार सिक्ख सेना थी।[2] जवाहरसिंह का उद्देश्य दिल्ली के नवाब वजीर नजीबुद्दोला रूहेले से सूरजमल के ख़ून का बदला लेना और पानीपत में हार जाने से हिन्दुओं के स्वाभिमान को जो ठेस पहुँची थी, उसका बदला लेना भी था। [[चित्र:Kusum-Sarovar-4.jpg|कुसुम सरोवर, गोवर्धन
Kusum Sarovar, Govardhan|thumb|250px|left]] जब रूहेला वज़ीर ने जाटों के प्रतिहिंसात्मक युद्ध अभियान का समाचार सुना, तो उसने सहायता के लिए अहमदशाह अब्दाली के पास विशेष दूत भेजा और उसे बुलाया और दूसरे रूहेले सरदारों को भी बुलावा भेजा। उसने शाही ख़ज़ाने और स्त्री−बच्चों को सुरक्षित स्थान पर भेजने का प्रबंध किया। उसके बाद दिल्ली के चारों ओर नाकेबंदी कर दीर्घकालीन संघर्ष के लिए तैयार हो गया। उसका साहस जाटों से युद्ध करने का नहीं हुआ, वह दिल्ली के चारों ओर के फाटकों को बंद करा आत्मरक्षा की व्यवस्था करता रहा। सेना ने चारों ओर से दिल्ली को घेर कर गोलाबारी आरंभ कर दी । गोलाबारी को विफल करने के लिए शाही सेना के कई दलों ने जाटों से संघर्ष किया, किंतु उन्हें सदैव पीछे हटना पड़ा। उसी समय जवाहरसिंह ने दिल्ली के निकटवर्ती शाहदरा नगर को लूटा और दिल्ली के क़िले पर प्रभावशाली गोलाबारी करने के लिए अपना तोपखाना जमा दिया। तोपों के गोले दिल्ली नगर की सीमा में गिरे, जिससे वहाँ भीषण बर्बादी होने लगी।
इस घेराबंदी और गोलाबारी में तीन महीने निकल गये। दिल्ली की जनता को बड़ी कठिनाई और परेशानियाँ उठानी पड़ी, खाद्य वस्तुओं के अभाव में लोगों के भूखे मरने की नौबत आ गई। नजीबुद्दोला ने समझाने−बुझाने की बहुत चेष्टा की, किंतु भूखी जनता नगर के फाटकों को तोड़ कर बाहर निकल पड़ी और जाट सेना के शिविर में जा कर खाद्यान की भीख माँगने लगी। जवाहरसिंह ने उस अवसर पर खाद्यान का वितरण कराया। उस विषम परिस्थिति से घबराकर रूहेला वज़ीर−नजीबुद्दोला ने जाटों के साथ संधि का प्रस्ताव किया, जवाहरसिंह ने अपने पिता सूरजमल की मृत्यु के बदले में पूरा मुआवजा लेकर संधि कर ली।

जाटों की गौरव−वृद्धि

दिल्ली अभियान के बाद जवाहरसिंह ने पूरी तरह शासन−सत्ता सँभाल ली। उसने सेना को नये ढंग से संगठित किया; और राज्य को समृद्ध किया। उसने बड़े−बड़े युद्ध किये और उन सब में सफलता प्राप्त की। उसके रण−कौशल, साहस और पराक्रम की दुंदभी चारों ओर बज रही थी। उसका यश, वैभव शौर्य चरम सीमा पर था। उससे वह बड़ा अभिमानी और दु:साहसी हो गया था। यही दुर्गुण बाद में उसके पतन का कारण बना।

पुष्कर−यात्रा और मृत्यु [[चित्र:Kusum-Sarovar-5.jpg|कुसुम सरोवर गोवर्धन, गोवर्धन
Kusum Sarovar, Govardhan|thumb|250px]]

जवाहर सिंह राजपूत राजाओं पर अपना रौब ज़माना चाहता था। उसने जाटों की सेना के साथ पुष्कर−यात्रा के लिए प्रस्थान किया। जयपुर के राजा माधवसिंह को सूचना दिये बगैर राज्य की सीमा से होकर जाटों की पताका फहराता वह पुष्कर पहुँच गया। जयपुर की सेना का उसे रोकने का साहस नहीं हुआ, जब वह वहाँ से वापिस लौटा तब दोनों सेनाओं में युद्ध छिड़ गया। जवाहरसिंह अपनी सेना के साथ राजपूतों से वीरतापूर्वक लड़ता हुआ जयपुर की सीमा पार कर सकुशल आगरा आ गया, किंतु उसे बड़ी हानि उठानी पड़ी। इस युद्ध में राजपूतों के साथ जाटों के भी अनेक योद्धा मारे गये। तबसे जयपुर नरेश और जवाहरसिंह में कटुता और विद्वेष की वृद्धि होती रही, जिससे दोनों की शक्ति क्षीण हुई । सं. 1825 में आगरा में किसी अज्ञात सैनिक ने जवाहरसिंह का धोखे से वध कर दिया। कहा जाता है, वह एक गुप्त षड़्यंत्र था, जिसमें जयपुर नरेश का हाथ था।

जवाहरसिंह का मूल्यांकन

जवाहरसिंह सन् 1763 से 1768 तक के वर्षों तक हीभरतपुर की राजगद्दी पर रहा, उसी समय में वह अपने अद्भुत साहस और अनुपम शौर्य से अपना नाम अमर कर गया और जाट राज्य के गौरव को भी चरम सीमा पर पहुँचा दिया था। जाट राजवंश में चूड़ामन से लेकर अब तक जो वीर पुरुष हुए थे, उनमें जवाहरसिंह किसी से कम नहीं था। यदि वीरता और साहस के साथ उसमें गंभीरता, नीतिज्ञता और व्यवहार−कुशलता भी होती तो वह ब्रज के इतिहास को एक नया मोड़ दे सकता था। किंतु उसने अपनी शक्ति को व्यर्थ के युद्धों में नष्ट कर दिया, इस कारण उसके बाद ही जाट राज्य का महत्त्व कम होने लगा। जवाहरसिंह साहसी योद्धा होने के साथ ही साथ साहित्य और कला का प्रेमी तथा प्रोत्साहनकर्त्ता भी था। उसके आश्रित कवियों में भूधर, रंगलाल और मोतीराम के नाम उल्लेखनीय हैं। ब्रजभाषा का विख्यात महाकवि देव अपनी वृद्धावस्था में उसके दरबार में उपस्थित हुआ था।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिस्ट्री ऑफ दि जाट्स, पृष्ठ 113
  2. हिस्ट्री ऑफ दि जाट्स, पृष्ठ 114

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