गुरु हनुमान: Difference between revisions

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'''गुरु हनुमान''' [[भारत]] के महान कुश्ती प्रशिक्षक (कोच) थे। वे स्वयं भी महान पहलवान थे उन्‍होंने सम्‍पूर्ण विश्‍व में भारतीय कुश्‍ती को महत्‍वपूर्ण स्‍थान दिलाया। उनकी कुश्‍ती के क्षेत्र विशेष में उपलब्धियों के कारण इन्हें सन 1988 में [[द्रोणाचार्य पुरस्कार]] और सन 1983 में [[पद्मश्री]] से सम्मानित किया गया।
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==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
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गुरु हनुमान का जन्म [[राजस्थान]] के [[झुंझुनू ज़िला]] के चिड़ावा तहसील में 1901 में हुआ था। गुरु हनुमान का बचपन का नाम विजय पाल था। बचपन में कमज़ोर सेहत का होने के कारण अक्सर ताकतवर लड़के इन्हें तंग करते थे। इसलिए उन्होंने सेहत बनाने के लिए बचपन में ही पहलवानी को अपना लिया था। [[कुश्ती]] के प्रति अपने आगाध प्रेम के चलते इन्होंने 20 साल की उम्र में [[दिल्ली]] की और प्रस्थान किया। भारतीय मल्लयुद्ध के [[हनुमान|भगवान हनुमान]] से प्ररित होकर इन्होंने अपना नाम हनुमान रख लिया और ताउम्र ब्रह्मचारी रहने का प्रण कर लिया। उनके अनुसार उनकी शादी तो कुश्ती से ही हुई थी। ये बात कोई अतिशयोक्ति भी नहीं थी, क्योंकि जितने पहलवान उनके सान्निध्य में आगे निकले हैं, शायद किसी और गुरु को इतना सम्मान मिल पाया है। कुश्ती के प्रति उनके प्रेम के चलते मशहूर भारतीय उद्योगपति के.के बिरला ने उन्हें दिल्ली में अखाड़ा चलाने के लिए ज़मीन दान में दे दी थी। सन [[1940]] में वो आजादी की लड़ाई में शामिल हो गये। [[1947]] में [[भारत का विभाजन|भारत विभाजन]] के समय [[पाकिस्तान]] से शरणार्थियों की उन्होंने खूब सेवा की। 1947 के बाद हनुमान अखाड़ा दिल्ली पहलवानों का मंदिर हो गया। [[1980]] में इनको पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
उनका जन्म [[राजस्थान]] के झुंझुनू जिला के चिडावा तहसील में 1901 में हुआ था। उनका बचपन का नाम विजय पाल था।
==कुश्ती के हनुमान एवं शिष्यों के द्रोणाचार्य==
====पहलवानी का शौक एवं आजादी की लड़ाई में योगदान====
गुरु हनुमान एक गुरु ही नहीं बल्कि अपने शिष्यों के लिए पिता तुल्य थे। कुश्ती का जितना सूक्ष्म ज्ञान उन्हें था, शायद ही किसी को हो! गुरु हनुमान ने जब ये देखा की उनके पहलवानों को बुढ़ापे में आर्थिक तंगी होती है तो उन्होंने सरकार से पहलवानों के लिए रोज़गार के लिए सिफारिश की परिणामस्वरूप आज बहुत से राष्ट्रीय प्रतियोगिता जीतने वाले पहलवानों को भारतीय रेलवे में हाथों हाथ लिया जाता है। इस तरह उन्होंने हमेशा अपने शिष्यों की सहायता अपने बच्चो के समान की। उनका रहन सहन बिल्कुल गाँव वालों की तरह ही था। उन्होंने अपने जीवन के तमाम वर्ष एक धोती कुरते में ही गुजर दिए। भारतीय स्टाइल की कुश्ती के वे माहिर थे, उन्होंने भारतीय स्टाइल और अंतर्राष्ट्रीय स्टाइल का मेल कराकर अनेक एशियाई चैम्पियन दिए।  पहलवानों को कुश्ती की गुर सिखाने के लिए उनकी लाठी कुश्ती जगत् में मशहूर थी जिसके प्रहार से उन्होंने [[सतपाल सिंह|महाबली सतपाल]], करतार सिंह, 1972 के ओलम्पियन प्रेमनाथ, सैफ विजेता वीरेंदर ठाकरान (धीरज पहलवान), सुभाष पहलवान, हंसराम पहलवान जैसे अनगिनत पहलवान कुश्ती की मिसाल बने। ये उनकी लाठी का ही कमाल था जो [[अखाड़ा|अखाड़े]] के पहलवानों को 3 बजे ही कसरत करने के लिए जगा देता था। उनके अखाड़े में रहकर खिलाड़ी केवल पहलवानी ही नहीं बल्कि ब्रह्मचारी, आत्मनिर्भर और शाकाहार की ताकत सीखते थे। अपने यहाँ आने वालो को भी वो [[चाय]] के स्थान पर [[बादाम]] की लस्सी पिलाते थे। उनके शिष्य महाबली सतपाल छत्रसाल स्टेडियम में पहलवानों को अत्याधुनिक तरीके से मैट पर प्रशिक्षण देते है जिसके परिणामस्वरूप [[सुशील कुमार पहलवान|पहलवान सुशील कुमार]] और योगेश्वर दत्त एवं नरसिंह यादव जैसे पहलवान राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन कर रहे है। गुरु के रूप में उनका योगदान यादगार है, कुश्ती के प्रति अपने प्रेम के चलते वो जीवन भर प्रात: 3 बजे ही उठ जाते थे।
बचपन में कमजोर सेहत का होने के कारण अक्सर ताकतवर लड़के इन्हें तंग करते थे। इसलिए उन्होंने सेहत बनाने के लिए बचपन में ही पहलवानी को अपना लिया था। कुश्ती के प्रति अपने आगाध प्रेम के चलते इन्होंने 20 साल की उम्र में [[दिल्ली]] की और प्रस्थान किया। भारतीय मल्लयुद्ध के भगवान [[हनुमान]] से प्ररित होकर इन्होंने अपना नाम हनुमान रख लिया और ताउम्र ब्रह्मचारी रहने का प्रण कर लिया। उनके अनुसार उनकी शादी तो कुश्ती से ही हुई थी। ये बात कोई अतिश्योक्ति भी नहीं थी क्योंकि जितने पहलवान उनके सानिध्य में आगे निकले है शायद किसी और गुरु को इतना सम्मान मिल पाया है। कुश्ती के प्रति उनके प्रेम के चलते मशहूर भारतीय उद्योगपति के.के बिरला ने उन्हें दिल्ली में अखाडा चलने के लिए जमीन दान में दे दी थी। सन 1940 में वो आजादी की लड़ाई में शामिल हो गये। 1947 में [[भारत का विभाजन|भारत विभाजन]] के समय [[पाकिस्तान]] से शरणार्थियों की उन्होंने खूब सेवा की। 1947 के बाद हनुमान अखाडा दिल्ली पहलवानों का मंदिर हो गया। 1980 में इनको पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
 
=====कुश्ती के हनुमान एवं शिष्यों के द्रोणाचार्य=====  
गुरु हनुमान एक गुरु ही नहीं बल्कि अपने शिष्यों के लिए पिता तुल्य थे। कुश्ती का जितना सूक्ष्म ज्ञान उन्हें था शायद ही किसी को हो! गुरु हनुमान ने जब ये देखा की उनके पहलवानों को बुढ़ापे में आर्थिक तंगी होती है तो उन्होंने सरकार से पहलवानों के लिए रोजगार के लिए सिफारिश की परिणामस्वरुप आज बहुत से राष्ट्रीय प्रतियोगिता जीतने वाले पहलवानों को भारतीय रेलवे में हाथों हाथ लिया जाता है। इस तरह उन्होंने हमेशा अपने शिष्यों की सहायता अपने बच्चो के समान की। उनका रहन सहन बिल्कुल गाँव वालों की तरह ही था। उन्होंने अपने जीवन के तमाम वर्ष एक धोती कुरते में ही गुजर दिए। भारतीय स्टाइल की कुश्ती के वे माहिर थे, उन्होंने भारतीय स्टाइल और अंतर्राष्ट्रीय स्टाइल का मेल कराकर अनेक एशियाई चैम्पियन दिए।  पहलवानों को कुश्ती की गुर सिखाने के लिए उनकी लाठी कुश्ती जगत में मशहूर थी जिसके प्रहार से उन्होंने महाबली सतपाल, करतार सिंह, 1972 के ओलम्पियन प्रेमनाथ, सैफ विजेता वीरेंदर ठाकरान (धीरज पहलवान), सुभाष पहलवान, हंसराम पहलवान जैसे अनगिनत पहलवान कुश्ती की मिसाल बने। ये उनकी लाठी का ही कमाल था जो अखाड़े के पहलवानों को 3 बजे ही कसरत करने के लिए जगा देता था। उनके अखाड़े में रहकर खिलाड़ी केवल पहलवानी ही नहीं बल्कि ब्रह्मचारी, आत्मनिर्भर और शाकाहार की ताकत सीखते थे। अपने यहाँ आने वालो को भी वो [[चाय]] के स्थान पर [[बादाम]] की लस्सी पिलाते थे। उनके शिष्य महाबली सतपाल छत्रसाल स्टेडियम में पहलवानों को अत्याधुनिक तरीके से मैट पर प्रशिक्षण देते है जिसके परिणामस्वरूप [[सुशील कुमार पहलवान|पहलवान सुशील कुमार]] और योगेश्वर दत्त एवं नरसिंह यादव जैसे पहलवान राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन कर रहे है। गुरु के रूप में उनका योगदान यादगार है, कुश्ती के प्रति अपने प्रेम के चलते वो जीवन भर प्रात: 3 बजे ही उठ जाते थे।
==सम्मान और पुरस्कार==
==सम्मान और पुरस्कार==
कुश्ती के प्रति उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें सन 1988 में "[[द्रोणाचार्य पुरस्कार]]" से सम्मानित किया गया। उनके तीन चेले सुदेश कुमार, प्रेम नाथ, वेदप्रकाश ने 1972 कार्डिफ़ कॉमनवेल्थ खेल में स्वर्ण पदक जीता था। सतपाल पहलवान और करतार सिंह ने 1982 और 1986 के एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीता। उनके 8 चेलों ने [[भारत]] का सर्वोच खेल सम्मान [[अर्जुन पुरस्कार]] जीता है।  
[[कुश्ती]] के प्रति उनके योगदान के लिए [[भारत सरकार]] ने उन्हें सन [[1988]] में "[[द्रोणाचार्य पुरस्कार]]" से सम्मानित किया गया। उनके तीन चेले सुदेश कुमार, प्रेम नाथ, वेदप्रकाश ने [[1972]] कार्डिफ़ कॉमनवेल्थ खेल में स्वर्ण पदक जीता था। [[सतपाल सिंह|सतपाल पहलवान]] और करतार सिंह ने [[1982]] और [[1986]] के एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीता। उनके 8 चेलों ने [[भारत]] का खेल सम्मान [[अर्जुन पुरस्कार]] जीता है।  
==निधन==
==निधन==
वे कुँवारे थे और उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत लिया था। वे [[24 मई]], 1999 को कार दुर्घटना में [[हरिद्वार]] में उनकी मृत्यु हो गयी।   
वे कुँवारे थे और उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत लिया था। वे [[24 मई]], [[1999]] को कार दुर्घटना में [[हरिद्वार]] में उनकी मृत्यु हो गयी।   




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==बाहरी कड़ियाँ==
==संबंधित लेख==
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Latest revision as of 07:56, 6 February 2021

गुरु हनुमान
पूरा नाम गुरु हनुमान
अन्य नाम विजय पाल (वास्तविक नाम)
जन्म 15 मार्च 1901
जन्म भूमि चिड़ावा तहसील, राजस्थान
मृत्यु 24 मई, 1999
मृत्यु स्थान मेरठ, उत्तर प्रदेश
कर्म भूमि भारत
खेल-क्षेत्र कुश्ती
पुरस्कार-उपाधि द्रोणाचार्य पुरस्कार, पद्मश्री
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी गुरु हनुमान, महाबली सतपाल, करतार सिंह, 1972 के ओलम्पियन प्रेमनाथ, सैफ विजेता धीरज ठाकरान, सुभाष पहलवान, हंसराम पहलवान जैसे अनगिनत पहलवानों के कोच थे।
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गुरु हनुमान (अंग्रेज़ी: Guru Hanuman, जन्म: 15 मार्च, 1901; मृत्यु: 24 मई, 1999) भारत के महान् कुश्ती प्रशिक्षक (कोच) थे। वे स्वयं भी महान् पहलवान थे, उन्‍होंने सम्‍पूर्ण विश्‍व में भारतीय कुश्‍ती को महत्त्वपूर्ण स्‍थान दिलाया। उनकी कुश्‍ती के क्षेत्र विशेष में उपलब्धियों के कारण इन्हें सन 1988 में द्रोणाचार्य पुरस्कार और सन 1983 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

जीवन परिचय

गुरु हनुमान का जन्म राजस्थान के झुंझुनू ज़िला के चिड़ावा तहसील में 1901 में हुआ था। गुरु हनुमान का बचपन का नाम विजय पाल था। बचपन में कमज़ोर सेहत का होने के कारण अक्सर ताकतवर लड़के इन्हें तंग करते थे। इसलिए उन्होंने सेहत बनाने के लिए बचपन में ही पहलवानी को अपना लिया था। कुश्ती के प्रति अपने आगाध प्रेम के चलते इन्होंने 20 साल की उम्र में दिल्ली की और प्रस्थान किया। भारतीय मल्लयुद्ध के भगवान हनुमान से प्ररित होकर इन्होंने अपना नाम हनुमान रख लिया और ताउम्र ब्रह्मचारी रहने का प्रण कर लिया। उनके अनुसार उनकी शादी तो कुश्ती से ही हुई थी। ये बात कोई अतिशयोक्ति भी नहीं थी, क्योंकि जितने पहलवान उनके सान्निध्य में आगे निकले हैं, शायद किसी और गुरु को इतना सम्मान मिल पाया है। कुश्ती के प्रति उनके प्रेम के चलते मशहूर भारतीय उद्योगपति के.के बिरला ने उन्हें दिल्ली में अखाड़ा चलाने के लिए ज़मीन दान में दे दी थी। सन 1940 में वो आजादी की लड़ाई में शामिल हो गये। 1947 में भारत विभाजन के समय पाकिस्तान से शरणार्थियों की उन्होंने खूब सेवा की। 1947 के बाद हनुमान अखाड़ा दिल्ली पहलवानों का मंदिर हो गया। 1980 में इनको पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

कुश्ती के हनुमान एवं शिष्यों के द्रोणाचार्य

गुरु हनुमान एक गुरु ही नहीं बल्कि अपने शिष्यों के लिए पिता तुल्य थे। कुश्ती का जितना सूक्ष्म ज्ञान उन्हें था, शायद ही किसी को हो! गुरु हनुमान ने जब ये देखा की उनके पहलवानों को बुढ़ापे में आर्थिक तंगी होती है तो उन्होंने सरकार से पहलवानों के लिए रोज़गार के लिए सिफारिश की परिणामस्वरूप आज बहुत से राष्ट्रीय प्रतियोगिता जीतने वाले पहलवानों को भारतीय रेलवे में हाथों हाथ लिया जाता है। इस तरह उन्होंने हमेशा अपने शिष्यों की सहायता अपने बच्चो के समान की। उनका रहन सहन बिल्कुल गाँव वालों की तरह ही था। उन्होंने अपने जीवन के तमाम वर्ष एक धोती कुरते में ही गुजर दिए। भारतीय स्टाइल की कुश्ती के वे माहिर थे, उन्होंने भारतीय स्टाइल और अंतर्राष्ट्रीय स्टाइल का मेल कराकर अनेक एशियाई चैम्पियन दिए। पहलवानों को कुश्ती की गुर सिखाने के लिए उनकी लाठी कुश्ती जगत् में मशहूर थी जिसके प्रहार से उन्होंने महाबली सतपाल, करतार सिंह, 1972 के ओलम्पियन प्रेमनाथ, सैफ विजेता वीरेंदर ठाकरान (धीरज पहलवान), सुभाष पहलवान, हंसराम पहलवान जैसे अनगिनत पहलवान कुश्ती की मिसाल बने। ये उनकी लाठी का ही कमाल था जो अखाड़े के पहलवानों को 3 बजे ही कसरत करने के लिए जगा देता था। उनके अखाड़े में रहकर खिलाड़ी केवल पहलवानी ही नहीं बल्कि ब्रह्मचारी, आत्मनिर्भर और शाकाहार की ताकत सीखते थे। अपने यहाँ आने वालो को भी वो चाय के स्थान पर बादाम की लस्सी पिलाते थे। उनके शिष्य महाबली सतपाल छत्रसाल स्टेडियम में पहलवानों को अत्याधुनिक तरीके से मैट पर प्रशिक्षण देते है जिसके परिणामस्वरूप पहलवान सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त एवं नरसिंह यादव जैसे पहलवान राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन कर रहे है। गुरु के रूप में उनका योगदान यादगार है, कुश्ती के प्रति अपने प्रेम के चलते वो जीवन भर प्रात: 3 बजे ही उठ जाते थे।

सम्मान और पुरस्कार

कुश्ती के प्रति उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें सन 1988 में "द्रोणाचार्य पुरस्कार" से सम्मानित किया गया। उनके तीन चेले सुदेश कुमार, प्रेम नाथ, वेदप्रकाश ने 1972 कार्डिफ़ कॉमनवेल्थ खेल में स्वर्ण पदक जीता था। सतपाल पहलवान और करतार सिंह ने 1982 और 1986 के एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीता। उनके 8 चेलों ने भारत का खेल सम्मान अर्जुन पुरस्कार जीता है।

निधन

वे कुँवारे थे और उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत लिया था। वे 24 मई, 1999 को कार दुर्घटना में हरिद्वार में उनकी मृत्यु हो गयी।


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