गुरबचन सिंह सालारिया: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
(''''कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया''' परमवीर चक्र से सम्म...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
m (Text replacement - "कार्यवाही" to "कार्रवाई")
 
(9 intermediate revisions by 4 users not shown)
Line 1: Line 1:
'''कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया''' [[परमवीर चक्र]] से सम्मानित भारतीय व्यक्ति हैं। इन्हें यह सम्मान सन [[1961]] में मरणोपरांत मिला। संयुक्त राष्ट्र संघ की शांति सेना के साथ कांगो के पक्ष में बेल्जियम के विरुद्ध बहादुरी पूर्वक प्राण न्योछावर करने वाले योद्धाओं में कैप्टन गुरबचन सिंह सालरिया का नाम लिया जाता है जिन्हें [[5 दिसम्बर]] [[1961]] को एलिजाबेथ विला में लड़ते हुए अद्भुत पराक्रम दिखाने के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र दिया गया। वह उस समय केवल 26 वर्ष के थे।
{{सूचना बक्सा सैनिक
|चित्र=Captain Gurbachan Singh Salaria.jpg
|चित्र का नाम=कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया
|पूरा नाम=कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया
|अन्य नाम=
|जन्म=[[29 नवम्बर]], [[1935]]
|जन्म भूमि=[[गुरदासपुर]], [[अखण्डित पंजाब|पंजाब]]
|शहादत=[[5 दिसम्बर]], [[1961]] (आयु- 26 वर्ष)
|स्थान=एलिजाबेथ विला, कांगो
|अभिभावक=
|पति/पत्नी=
|संतान=
|सेना=[[भारतीय थल सेना]]
|बटालियन=
|पद=
|रैंक=कैप्टन
|यूनिट=3/1 गोरखा राइफ़ल
|सेवा काल=[[1957]]–[[1961]]
|युद्ध=
|शिक्षा=
|विद्यालय=किंग जार्ज रॉयल मिलिट्री कॉलेज, [[बैंगलोर]]
|सम्मान=[[परमवीर चक्र]]
|प्रसिद्धि=
|विशेष योगदान=
|नागरिकता=भारतीय
|संबंधित लेख=
|शीर्षक 1=
|पाठ 1=
|शीर्षक 2=
|पाठ 2=
|शीर्षक 3=
|पाठ 3=
|शीर्षक 4=
|पाठ 4=
|शीर्षक 5=
|पाठ 5=
|अन्य जानकारी=[[संयुक्त राष्ट्र संघ]] की शांति सेना के साथ कांगो के पक्ष में बेल्जियम के विरुद्ध बहादुरी पूर्वक प्राण न्योछावर करने वाले योद्धाओं में कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया का नाम लिया जाता है।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
'''कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Gurbachan Singh Salaria'', जन्म: [[29 नवम्बर]], [[1935]]; शहादत: [[5 दिसम्बर]], [[1961]]) [[परमवीर चक्र]] से सम्मानित भारतीय सैनिक थे। इन्हें यह सम्मान सन [[1961]] में मरणोपरांत मिला। [[संयुक्त राष्ट्र संघ]] की शांति सेना के साथ कांगो के पक्ष में बेल्जियम के विरुद्ध बहादुरी पूर्वक प्राण न्योछावर करने वाले योद्धाओं में कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया का नाम लिया जाता है जिन्हें [[5 दिसम्बर]] [[1961]] को एलिजाबेथ विला में लड़ते हुए अद्भुत पराक्रम दिखाने के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र दिया गया। वह उस समय केवल 26 वर्ष के थे।
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
गुरबचन सिंह का जन्म [[29 नवम्बर]] [[1935]] को शकरगढ़ के जनवल गाँव में हुआ था। यह स्थान अब [[पाकिस्तान]] में है। इनके पिता भी फौजी थे और ब्रिटिश-इंडियन आर्मी के डोगरा स्क्वेड्रन, हडसन हाउस में नियुक्त थे। इनकी माँ एक साहसी महिला थीं तथा बहुत सुचारू रूप से गृहस्थी चलाते हुए बच्चों का भविष्य बनाने में लगी रहती थीं। पिता के बहादुरी के किस्सों ने गुरबचन सिंह को भी फौजी जिंदगी के प्रति आकृष्ट किया। इसी आकर्षण के कारण गुरबचन ने [[1946]] में [[बैंगलोर]] के किंग जार्ज रॉयल मिलिट्री कॉलेज में प्रवेश लिया। [[अगस्त]] [[1947]] में उनका स्थानांतरण उसी कॉलेज की जालंधर शाखा में हो गया। [[1953]] में वह नैशनल डिफेंस अकेडमी में पहुँच गये और वहाँ से पास होकर कारपोरल रैंक लेकर सेना में आ गए। वहाँ भी उन्होंने अपनी छवि वैसी ही बनाई जैसी स्कूल में थी यानी आत्म सम्मान के प्रति बेहद सचेत सैनिक माने गए।  
गुरबचन सिंह का जन्म [[29 नवम्बर]] [[1935]] को शकरगढ़ के जनवल गाँव में हुआ था। यह स्थान अब [[पाकिस्तान]] में है। इनके पिता भी फौजी थे और ब्रिटिश-इंडियन आर्मी के डोगरा स्क्वेड्रन, हडसन हाउस में नियुक्त थे। इनकी माँ एक साहसी महिला थीं तथा बहुत सुचारू रूप से गृहस्थी चलाते हुए बच्चों का भविष्य बनाने में लगी रहती थीं। पिता के बहादुरी के किस्सों ने गुरबचन सिंह को भी फौजी जिंदगी के प्रति आकृष्ट किया। इसी आकर्षण के कारण गुरबचन ने [[1946]] में [[बैंगलोर]] के किंग जार्ज रॉयल मिलिट्री कॉलेज में प्रवेश लिया। [[अगस्त]] [[1947]] में उनका स्थानांतरण उसी कॉलेज की जालंधर शाखा में हो गया। [[1953]] में वह नैशनल डिफेंस अकेडमी में पहुँच गये और वहाँ से पास होकर कारपोरल रैंक लेकर सेना में आ गए। वहाँ भी उन्होंने अपनी छवि वैसी ही बनाई जैसी स्कूल में थी यानी आत्म सम्मान के प्रति बेहद सचेत सैनिक माने गए। एक बार इन्हें एक छात्र ने तंग करने की कोशिश की। वह एक तगड़ा सा दिखने वाला लड़का था लेकिन इसी बात पर गुरबचन सिंह ने उसे बॉक्सिंग के लिए चुनौती दे डाली। मुकाबला तय हो गया। सबको यही लग रहा था कि गुरबचन सिंह हार जायेंगे, लेकिन रिंग के अंदर उतरकर जिस मुस्तैदी से गुरबचन सिंह ने मुक्कों की बरसात की, उसके आगे वह कुशल प्रतिद्वंद्वी भी ठहर नहीं पाया और जीत गुरबचन सिंह की हुई। एक बार एक बेचारा लड़का कुएँ में गिर गया, गुरबचन सिंह वहीं थे। उन्हें बच्चे पर तरस आया और वह उसे बचाने को कुएँ में कूदने को तैयार हो गये, जब कि उन्हें खुद भी तैरना नहीं आता था। खैर उनके साथियों ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया।  
एक बार इन्हें एक छात्र ने तंग करने की कोशिश की। वह एक तगड़ा सा दिखने वाला लड़का था लेकिन इसी बात पर गुरबचन सिंह ने उसे बॉक्सिंग के लिए चुनौती दे डाली। मुकाबला तय हो गया। सबको यही लग रहा था कि गुरबचन सिंह हार जायेंगे, लेकिन रिंग के अंदर उतरकर जिस मुस्तैदी से गुरबचन सिंह ने मुक्कों की बरसात की, उसके आगे वह कुशल प्रतिद्वंद्वी भी ठहर नहीं पाया और जीत गुरबचन सिंह की हुई।  
एक बार एक बेचारा लड़का कुएँ में गिर गया, गुरबचन सिंह वहीं थे। उन्हें बच्चे पर तरस आया और वह उसे बचाने को कुएँ में कूदने को तैयार हो गये, जब कि उन्हें खुद भी तैरना नहीं आता था। खैर उनके साथियों ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया।  
==भारतीय सेना में योगदान==
==भारतीय सेना में योगदान==
3/1 गोरखा राइफल्स के कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया को संयुक्त राष्ट्र के सैन्य प्रतिनिधि के रूप में एलिजाबेथ विला में दायित्व सौंपा गया था। 24 नवम्बर 1961 को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद ने यह प्रस्ताव पास किया था कि संयुक्त राष्ट्र की सेना कांगो के पक्ष में हस्तक्षेप करे और आवश्यकता पड़ने पर बल प्रयोग करके भी विदेशी व्यवसायियों पर अंकुश लगाए। संयुक्त राष्ट्र के इस निर्णय से शोम्बे के व्यापारी आदि भड़क उठे और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की सेनाओं के मार्ग में बाधा डालने का उपक्रम शुरु कर दिया। संयुक्त राष्ट्र के दो वरिष्ठ अधिकारी उनके केंद्र में आ गये। उन्हें पीटा गया। 3/1 गोरखा राइफल्स के मेजर अजीत सिंह को भी उन्होंने पकड़ लिया था और उनके ड्राइवर की हत्या कर दी थी। इन विदेशी व्यापारियों का मंसूबा यह था कि वह एलिजाबेथ विला के मोड़ से आगे का सारा संवाद तंत्र तथा रास्ता काट देंगे और फिर संयुक्त राष्ट्र की सैन्य टुकड़ियों से निपटेंगे।
3/1 गोरखा राइफल्स के कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया को [[संयुक्त राष्ट्र]] के सैन्य प्रतिनिधि के रूप में एलिजाबेथ विला में दायित्व सौंपा गया था। [[24 नवम्बर]] [[1961]] को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद ने यह प्रस्ताव पास किया था कि संयुक्त राष्ट्र की सेना कांगो के पक्ष में हस्तक्षेप करे और आवश्यकता पड़ने पर बल प्रयोग करके भी विदेशी व्यवसायियों पर अंकुश लगाए। संयुक्त राष्ट्र के इस निर्णय से शोम्बे के व्यापारी आदि भड़क उठे और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की सेनाओं के मार्ग में बाधा डालने का उपक्रम शुरु कर दिया। संयुक्त राष्ट्र के दो वरिष्ठ अधिकारी उनके केंद्र में आ गये। उन्हें पीटा गया। 3/1 गोरखा राइफल्स के मेजर अजीत सिंह को भी उन्होंने पकड़ लिया था और उनके ड्राइवर की हत्या कर दी थी। इन विदेशी व्यापारियों का मंसूबा यह था कि वह एलिजाबेथ विला के मोड़ से आगे का सारा संवाद तंत्र तथा रास्ता काट देंगे और फिर संयुक्त राष्ट्र की सैन्य टुकड़ियों से निपटेंगे।
5 दिसम्बर 1961 को एलिजाबेथ विला के रास्ते इस तरह बाधित कर दिये गए थे कि संयुक्त राष्ट्र के सैन्य दलों का आगे जाना एकदम असम्भव हो गया था। करीब 9 बजे 3/1 गोरखा राइफल्स को यह आदेश दिये गए कि वह एयरपोर्ट के पास के एलिजाबेथ विला के गोल चक्कर का रास्ता साफ करे। इस रास्ते पर विरोधियों के करीब डेढ़ सौ सशस्त्र पुलिस वाले रास्ते को रोकते हुए तैनात थे। योजना यह बनी कि 3/1 गोरखा राइफल्स की चार्ली कम्पनी आयरिश टैंक के दस्ते के साथ अवरोधकों पर हमला करेगी। इस कम्पनी की अगुवाई मेजर गोविन्द शर्मा कर रहे थे। कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया एयरपोर्ट साइट से आयारिश टैंक दस्तें के साथ धावा बोलेंगे इस तरह अवरोधकों को पीछे हटकर हमला करने का मौका न मिल सकेगा। कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया की ए कम्पनी के कुछ जवान रिजर्व में रखे जाएँगे। गुरबचन सिंह सालारिया न इस कार्यवाही के लिए दोपहर का समय तय किया, जिस समय उन सशस्त्र पुलिसबालों को हमले की ज़रा भी उम्मीद न हो। गोविन्द शर्मा तथा गुरबचन सिंह दोनों के बीच इस योजना पर सहमति बन गई। <br />
[[5 दिसम्बर]] [[1961]] को एलिजाबेथ विला के रास्ते इस तरह बाधित कर दिये गए थे कि संयुक्त राष्ट्र के सैन्य दलों का आगे जाना एकदम असम्भव हो गया था। क़रीब 9 बजे 3/1 गोरखा राइफल्स को यह आदेश दिये गए कि वह एयरपोर्ट के पास के एलिजाबेथ विला के गोल चक्कर का रास्ता साफ करे। इस रास्ते पर विरोधियों के क़रीब डेढ़ सौ सशस्त्र पुलिस वाले रास्ते को रोकते हुए तैनात थे। योजना यह बनी कि 3/1 गोरखा राइफल्स की चार्ली कम्पनी आयरिश टैंक के दस्ते के साथ अवरोधकों पर हमला करेगी। इस कम्पनी की अगुवाई मेजर गोविन्द शर्मा कर रहे थे। कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया एयरपोर्ट साइट से आयारिश टैंक दस्तें के साथ धावा बोलेंगे इस तरह अवरोधकों को पीछे हटकर हमला करने का मौका न मिल सकेगा। कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया की ए कम्पनी के कुछ जवान रिजर्व में रखे जाएँगे। गुरबचन सिंह सालारिया न इस कार्रवाई के लिए दोपहर का समय तय किया, जिस समय उन सशस्त्र पुलिसबालों को हमले की ज़रा भी उम्मीद न हो। गोविन्द शर्मा तथा गुरबचन सिंह दोनों के बीच इस योजना पर सहमति बन गई।  
कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया 5 दिसम्बर 1961 को एलिजाबेथ विला के गोल चक्कर पर दोपहर की ताक में बैठे थे कि उन्हें हमला करके उस सशस्त्र पुलिसवालों के व्यूह को तोड़ना है, ताकि फोजें आगे बढ़ सकें। इस बीच गुरबचन सिंह सालारिया अपनी टुकड़ी के साथ अपने तयशुदा ठिकाने पर पहुँचने में कामयाब हो गई। उन्होंने ठीक समय पर अपनी रॉकेट लांचन टीम की मदद से रॉकेट दाग कर दुश्मन की दोनों सशस्त्र कारें नष्ट कर दीं। यही ठीक समय था जब वह सशस्त्र पुलिस के सिपाहियों को तितर-बितर कर सकते थे। उन्हें लगा कि देर करने से फिर से संगठित होने का मौका मिल जाएगा। ऐसी नौबत न आने देने के लिए कमर तुरंत कस ली। उनके पास केवल सोलह सैनिक थे, जबकि सामने दुश्मन के सौ जवान थे। फिर भी, वह परवाह किए वह और उनका दल दुश्मन पर टूट पड़े। आमने-सामने मुठभेड़ होने लगी जिसमें गोरखा पलटन की खुखरी ने तहलका मचाना शुरू कर दिया। दुश्मन के सौ में से चालीस जवान वहीं ढेर हो गए लेकिन दुश्मन के बीच खलबली मच गई। और वह बौखला उठा तभी गुरबचन सिंह एक के दाब एक दो गोलियों का निशाना बन गए।         
==शहादत==
 
कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया [[5 दिसम्बर]] [[1961]] को एलिजाबेथ विला के गोल चक्कर पर दोपहर की ताक में बैठे थे कि उन्हें हमला करके उस सशस्त्र पुलिसवालों के व्यूह को तोड़ना है, ताकि फोजें आगे बढ़ सकें। इस बीच गुरबचन सिंह सालारिया अपनी टुकड़ी के साथ अपने तयशुदा ठिकाने पर पहुँचने में कामयाब हो गई। उन्होंने ठीक समय पर अपनी रॉकेट लांचन टीम की मदद से रॉकेट दाग कर दुश्मन की दोनों सशस्त्र कारें नष्ट कर दीं। यही ठीक समय था जब वह सशस्त्र पुलिस के सिपाहियों को तितर-बितर कर सकते थे। उन्हें लगा कि देर करने से फिर से संगठित होने का मौका मिल जाएगा। ऐसी नौबत न आने देने के लिए कमर तुरंत कस ली। उनके पास केवल सोलह सैनिक थे, जबकि सामने दुश्मन के सौ जवान थे। फिर भी, वह परवाह किए वह और उनका दल दुश्मन पर टूट पड़े। आमने-सामने मुठभेड़ होने लगी जिसमें गोरखा पलटन की खुखरी ने तहलका मचाना शुरू कर दिया। दुश्मन के सौ में से चालीस जवान वहीं ढेर हो गए लेकिन दुश्मन के बीच खलबली मच गई। और वह बौखला उठा तभी गुरबचन सिंह एक के दाब एक दो गोलियों का निशाना बन गए।         




Line 14: Line 52:
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
*पुस्तक- परमवीर चक्र विजेता | लेखक- अशोक गुप्ता | पृष्ठ संख्या- 51
==बाहरी कड़ियाँ==
==बाहरी कड़ियाँ==
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==

Latest revision as of 09:00, 10 February 2021

गुरबचन सिंह सालारिया
पूरा नाम कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया
जन्म 29 नवम्बर, 1935
जन्म भूमि गुरदासपुर, पंजाब
स्थान एलिजाबेथ विला, कांगो
सेना भारतीय थल सेना
रैंक कैप्टन
यूनिट 3/1 गोरखा राइफ़ल
सेवा काल 19571961
विद्यालय किंग जार्ज रॉयल मिलिट्री कॉलेज, बैंगलोर
सम्मान परमवीर चक्र
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी संयुक्त राष्ट्र संघ की शांति सेना के साथ कांगो के पक्ष में बेल्जियम के विरुद्ध बहादुरी पूर्वक प्राण न्योछावर करने वाले योद्धाओं में कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया का नाम लिया जाता है।

कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया (अंग्रेज़ी: Gurbachan Singh Salaria, जन्म: 29 नवम्बर, 1935; शहादत: 5 दिसम्बर, 1961) परमवीर चक्र से सम्मानित भारतीय सैनिक थे। इन्हें यह सम्मान सन 1961 में मरणोपरांत मिला। संयुक्त राष्ट्र संघ की शांति सेना के साथ कांगो के पक्ष में बेल्जियम के विरुद्ध बहादुरी पूर्वक प्राण न्योछावर करने वाले योद्धाओं में कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया का नाम लिया जाता है जिन्हें 5 दिसम्बर 1961 को एलिजाबेथ विला में लड़ते हुए अद्भुत पराक्रम दिखाने के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र दिया गया। वह उस समय केवल 26 वर्ष के थे।

जीवन परिचय

गुरबचन सिंह का जन्म 29 नवम्बर 1935 को शकरगढ़ के जनवल गाँव में हुआ था। यह स्थान अब पाकिस्तान में है। इनके पिता भी फौजी थे और ब्रिटिश-इंडियन आर्मी के डोगरा स्क्वेड्रन, हडसन हाउस में नियुक्त थे। इनकी माँ एक साहसी महिला थीं तथा बहुत सुचारू रूप से गृहस्थी चलाते हुए बच्चों का भविष्य बनाने में लगी रहती थीं। पिता के बहादुरी के किस्सों ने गुरबचन सिंह को भी फौजी जिंदगी के प्रति आकृष्ट किया। इसी आकर्षण के कारण गुरबचन ने 1946 में बैंगलोर के किंग जार्ज रॉयल मिलिट्री कॉलेज में प्रवेश लिया। अगस्त 1947 में उनका स्थानांतरण उसी कॉलेज की जालंधर शाखा में हो गया। 1953 में वह नैशनल डिफेंस अकेडमी में पहुँच गये और वहाँ से पास होकर कारपोरल रैंक लेकर सेना में आ गए। वहाँ भी उन्होंने अपनी छवि वैसी ही बनाई जैसी स्कूल में थी यानी आत्म सम्मान के प्रति बेहद सचेत सैनिक माने गए। एक बार इन्हें एक छात्र ने तंग करने की कोशिश की। वह एक तगड़ा सा दिखने वाला लड़का था लेकिन इसी बात पर गुरबचन सिंह ने उसे बॉक्सिंग के लिए चुनौती दे डाली। मुकाबला तय हो गया। सबको यही लग रहा था कि गुरबचन सिंह हार जायेंगे, लेकिन रिंग के अंदर उतरकर जिस मुस्तैदी से गुरबचन सिंह ने मुक्कों की बरसात की, उसके आगे वह कुशल प्रतिद्वंद्वी भी ठहर नहीं पाया और जीत गुरबचन सिंह की हुई। एक बार एक बेचारा लड़का कुएँ में गिर गया, गुरबचन सिंह वहीं थे। उन्हें बच्चे पर तरस आया और वह उसे बचाने को कुएँ में कूदने को तैयार हो गये, जब कि उन्हें खुद भी तैरना नहीं आता था। खैर उनके साथियों ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया।

भारतीय सेना में योगदान

3/1 गोरखा राइफल्स के कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया को संयुक्त राष्ट्र के सैन्य प्रतिनिधि के रूप में एलिजाबेथ विला में दायित्व सौंपा गया था। 24 नवम्बर 1961 को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद ने यह प्रस्ताव पास किया था कि संयुक्त राष्ट्र की सेना कांगो के पक्ष में हस्तक्षेप करे और आवश्यकता पड़ने पर बल प्रयोग करके भी विदेशी व्यवसायियों पर अंकुश लगाए। संयुक्त राष्ट्र के इस निर्णय से शोम्बे के व्यापारी आदि भड़क उठे और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की सेनाओं के मार्ग में बाधा डालने का उपक्रम शुरु कर दिया। संयुक्त राष्ट्र के दो वरिष्ठ अधिकारी उनके केंद्र में आ गये। उन्हें पीटा गया। 3/1 गोरखा राइफल्स के मेजर अजीत सिंह को भी उन्होंने पकड़ लिया था और उनके ड्राइवर की हत्या कर दी थी। इन विदेशी व्यापारियों का मंसूबा यह था कि वह एलिजाबेथ विला के मोड़ से आगे का सारा संवाद तंत्र तथा रास्ता काट देंगे और फिर संयुक्त राष्ट्र की सैन्य टुकड़ियों से निपटेंगे। 5 दिसम्बर 1961 को एलिजाबेथ विला के रास्ते इस तरह बाधित कर दिये गए थे कि संयुक्त राष्ट्र के सैन्य दलों का आगे जाना एकदम असम्भव हो गया था। क़रीब 9 बजे 3/1 गोरखा राइफल्स को यह आदेश दिये गए कि वह एयरपोर्ट के पास के एलिजाबेथ विला के गोल चक्कर का रास्ता साफ करे। इस रास्ते पर विरोधियों के क़रीब डेढ़ सौ सशस्त्र पुलिस वाले रास्ते को रोकते हुए तैनात थे। योजना यह बनी कि 3/1 गोरखा राइफल्स की चार्ली कम्पनी आयरिश टैंक के दस्ते के साथ अवरोधकों पर हमला करेगी। इस कम्पनी की अगुवाई मेजर गोविन्द शर्मा कर रहे थे। कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया एयरपोर्ट साइट से आयारिश टैंक दस्तें के साथ धावा बोलेंगे इस तरह अवरोधकों को पीछे हटकर हमला करने का मौका न मिल सकेगा। कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया की ए कम्पनी के कुछ जवान रिजर्व में रखे जाएँगे। गुरबचन सिंह सालारिया न इस कार्रवाई के लिए दोपहर का समय तय किया, जिस समय उन सशस्त्र पुलिसबालों को हमले की ज़रा भी उम्मीद न हो। गोविन्द शर्मा तथा गुरबचन सिंह दोनों के बीच इस योजना पर सहमति बन गई।

शहादत

कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया 5 दिसम्बर 1961 को एलिजाबेथ विला के गोल चक्कर पर दोपहर की ताक में बैठे थे कि उन्हें हमला करके उस सशस्त्र पुलिसवालों के व्यूह को तोड़ना है, ताकि फोजें आगे बढ़ सकें। इस बीच गुरबचन सिंह सालारिया अपनी टुकड़ी के साथ अपने तयशुदा ठिकाने पर पहुँचने में कामयाब हो गई। उन्होंने ठीक समय पर अपनी रॉकेट लांचन टीम की मदद से रॉकेट दाग कर दुश्मन की दोनों सशस्त्र कारें नष्ट कर दीं। यही ठीक समय था जब वह सशस्त्र पुलिस के सिपाहियों को तितर-बितर कर सकते थे। उन्हें लगा कि देर करने से फिर से संगठित होने का मौका मिल जाएगा। ऐसी नौबत न आने देने के लिए कमर तुरंत कस ली। उनके पास केवल सोलह सैनिक थे, जबकि सामने दुश्मन के सौ जवान थे। फिर भी, वह परवाह किए वह और उनका दल दुश्मन पर टूट पड़े। आमने-सामने मुठभेड़ होने लगी जिसमें गोरखा पलटन की खुखरी ने तहलका मचाना शुरू कर दिया। दुश्मन के सौ में से चालीस जवान वहीं ढेर हो गए लेकिन दुश्मन के बीच खलबली मच गई। और वह बौखला उठा तभी गुरबचन सिंह एक के दाब एक दो गोलियों का निशाना बन गए।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • पुस्तक- परमवीर चक्र विजेता | लेखक- अशोक गुप्ता | पृष्ठ संख्या- 51

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख