शेरशाह सूरी: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Adding category Category:जीवनी साहित्य (Redirect Category:जीवनी साहित्य resolved) (को हटा दिया गया हैं।))
Line 48: Line 48:
[[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]]
[[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]]
[[Category:मुग़ल साम्राज्य]]
[[Category:मुग़ल साम्राज्य]]
[[Category:जीवनी साहित्य]]


__NOTOC__
__NOTOC__
__INDEX__
__INDEX__

Revision as of 11:54, 18 December 2010

शेरशाह सूरी
Shershah Suri|thumb|200px
(सन् 1540 − सन् 1545)
शेरशाह सूरी का नाम फ़रीद ख़ाँ था। वह वैजवाड़ा (होशियारपुर 1472 ई.) में अपने पिता हसन की अफ़ग़ान पत्‍नी से उत्पन्न था। उसका पिता हसन बिहार के सासाराम का ज़मींदार था। हुमायूँ को हराने वाला शेर ख़ाँ 'सूर' नाम के क़बीले का पठान सरदार था। वह 'शेरशाह' के नाम से बादशाह हुआ। उसने आगरा को राजधानी बनाया था। दिल्ली के सुल्तानों की हिन्दू विरोधी नीति के ख़िलाफ़ उसने हिन्दुओं से मित्रता की नीति अपनायी। जिससे उसे अपनी शासन व्यवस्था सृदृढ़ करने में सहायता मिली। उसका दीवान और सेनापति एक हिन्दू सरदार था, जिसका नाम हेमू (हेमचंद्र)था। उसकी सेना में हिन्दू वीरों की संख्या बहुत थी। उसने अपने राज्य में शांति कर जनता को सुखी और समृद्ध बनाने के प्रयास किये। उसने यात्रियों और व्यापारियों की सुरक्षा का प्रबंध किया। लगान और मालगुज़ारी वसूल करने की संतोषजनक व्यवस्था की। शेरशाह सूरी के फ़रमान फ़ारसी के साथ नागरी अक्षरों में भी होते थे। वह पहला बादशाह था, जिसने बंगाल के सोनागाँव से सिंध नदी तक दो हज़ार मील लंबी पक्की सड़क बनवाई थी। उस सड़क पर घुड़सवारों द्वारा डाक लाने−ले−जाने की व्यवस्था थी। यह मार्ग उस समय 'सड़क-ए-आज़म' कहलाता था। बंगाल से पेशावर तक की यह सड़क 500 कोस (शुद्ध= क्रोश) या 2500 किलो मीटर लम्बी थी। शेरशाह का भतीजा अदली था, जो शेरशाह के पुत्र और उत्तराधिकारी इस्लामशाह के बाद 1554 ई. में गद्दी पर बैठा।

बचपन

हसन ख़ाँ के आठ लड़के थे। फ़रीद ख़ाँ और निज़ाम ख़ाँ एक ही अफ़ग़ान माता से पैदा हुए थे। अली और यूसुफ एक मां से। ख़ुर्रम (कुछ ग्रंथों में यह नाम मुदहिर है) और शाखी ख़ाँ एक अन्य मां से और सुलेमान और अहमद चौथी मां से उत्पन्न हुए थे। फ़रीद की मां बड़ी सीधी-सादी, सहनशील और बुद्धिमान थी। फ़रीद के पिता ने इस विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त अन्य तीन दासियों को हरम में रख लिया था। बाद में इन्हें पत्नी का स्थान प्राप्त हुआ। फ़रीद और निज़ाम के अतिरिक्त शेष छह पुत्र इन्हीं की संतान थे। कुछ समय बाद हसन ख़ाँ, फ़रीद और निज़ाम की मां से उदासीन और दासियों के प्रति आसक्त रहने लगा। वह सुलेमान और अहमद ख़ाँ की मां के प्रति विशेष आसक्त था। वह इसे अधिक चाहने लगा था। इस कारण कौटुंबिक विवाद खड़ा होने लगा। हसन की यह चहेती (सुलेमान और अहमद ख़ाँ की मां) फ़रीद और निज़ाम की मां से जलती थी क्योंकि सबसे बड़ा होने के कारण फ़रीद जागीर का हकदार था। इस परिस्थिति में फ़रीद का दुखी होना स्वाभाविक। पिता उसकी ओर से उदासीन रहने लगा। thumb|200px|left|शेरशाह सूरी का मक़बरा, सासाराम बिहार पिता-पुत्र के आपसी संबंध कटु हो गए। इसका एक अच्छा फल भी हुआ। पिता की उदासीनता, विमाता की निष्ठुरता माता की गंभीरता और परिवार में बढ़ते हुए विद्वेषमय वातावरण से बालक फ़रीद शुरू से ही गंभीर, दृढ़निश्चयी और आत्मनिर्भर होने लगा। यद्यपि नारनौल से सहसराम और खवासपुर पहुंचकर तथा वहां बड़ी जागीर पा जाने से हसन ख़ाँ का दर्जा बढ़ गया था, तथापि फ़रीद और निज़ाम तथा इनकी माता के प्रति हसन के व्यवहार में अवनति ही होती गई। बार-बेटे का संबंध दिन पर दिन बिगड़ता ही गया। फ़रीद रुष्ट होकर जौनपुर चला गया और स्वयं जमाल ख़ाँ की सेवा में उपस्थित हो गया। जब हसन ख़ाँ को पता चला कि फ़रीद जौनपुर चला गया है तब उसे यह भय हुआ कि कहीं वह जमाल ख़ाँ से मेरी शिकायत न कर दे। अतः उसने जमाल ख़ाँ को पत्र लिखा कि फ़रीद मुझसे रुष्ट होकर आपके पास चला गया है। कृपया उसे मनाकर मेरे पास भेज देने का कष्ट करें। यदि वह आपके कहने पर भी घर वापस आने के लिए तैयार न हो तो आप उसे अपनी सेवा में रखकर उसके लिए धार्मिक आचार शास्त्र की शिक्षा का प्रबंध करने की अनुकंपा करें। [1]

श्री कालिकारंजन क़ानूनगो ने लिखा है :- ‘‘बचपन में उसने साहित्य का जो अध्ययन किया उसने उस सैनिक जीवन के मार्ग से उसे पृथक कर दिया जिस पर शिवाजी, हैदरअली और रणजीत सिंह जैसे निरक्षण वीर साधारण परिस्थिति से ऊँचे उठकर राजा की मर्यादा प्राप्त कर लेते हैं। भारत के इतिहास में हमें दूसरा कोई व्यक्ति नहीं मिलता जो अपने प्रारंभिक जीवन में सैनिक रहे बिना ही एक राज्य की नींव डालने में समर्थ हुआ हो।’’

हुमायुँ और शेरशाह

आगरा से हुमायूँ की अनुपस्थिति के दौरान (फ़रवरी, 1535 से फ़रवरी, 1537 तक) शेरशाह ने अपनी स्थिति और मजबूत कर ली थी। वह बिहार का निर्विरोध स्वामी बन चुका था। नज़दीक और पास के अफ़ग़ान उसके नेतृत्व में इकट्ठे हो गये थे। हालाँकि वह अब भी मुग़लों के प्रति वफ़ादारी की बात करता था, लेकिन मुग़लों को भारत से निकालने के लिए उसने ख़ूबसूरती से योजना बनायी। बहादुरशाह से उसका गहरा सम्पर्क था। बहादुरशाह ने हथियार और धन आदि से उसकी बहुत सहायता भी की थी। इन स्रोतों के उपलब्ध हो जाने से उसने एक कुशल और बृहद सेना एकत्र कर ली थी। उसके पास 1200 हाथी भी थे। हुमायूँ के आगरा लौटने के कुछ ही दिन बाद शेरशाह ने अपनी सेना का उपयोग बंगाल के सुल्तान को हराने में किया था और उसे तुरन्त 1,300,000 दीनार (स्वर्ण मुद्रा) देने के लिए विवश किया था।

एक नयी सेना को लैस करके हुमायूँ ने वर्ष के अन्त में चुनार को घेर लिया। हुमायूँ ने सोचा था कि ऐसे शक्तिशाली क़िले को पीछे छोड़ना उचित नहीं होगा क्योंकि इससे उसकी रसद के मार्ग को ख़तरा हो सकता था। लेकिन अफ़ग़ानों ने दृढ़ता से क़िले की रक्षा की। कुशल तोपची रूमी ख़ाँ के प्रयत्नों के बावजूद हुमायूँ को चुनार का क़िला जीतने में छः महीने लग गये। इसी दौरान शेरशाह ने धोखे से रोहतास के शक्तिशाली क़िले पर अधिकार कर लिया। वहाँ वह अपने परिवार को सुरक्षित छोड़ सकता था। फिर उसने बंगाल पर दुबारा आक्रमण किया और उसकी राजधानी गौड़ पर अधिकार कर लिया।

बंगाल का सौदा

इस प्रकार शेरशाह ने हूमायूँ को लुका-छिपी पूरी तरह से मात दे दी। हुमायूँ को यह अनुभव कर लेना चाहिए था कि अधिक सावधानी से तैयारी के बिना वह इस स्थिति में नहीं हो सकता कि शेरशाह को सैनिक-चुनौती दे सके। लेकिन वह अपने सामने सैनिक और राजनीतिक स्थिति को नहीं समझ सका। गौड़ पर अपनी विजय के बाद शेरशाह ने हुमायूँ के पास प्रस्ताव भेजा कि यदि उसके पास बंगाल रहने दिया जाए तो वह बिहार उसे दे देगा, और दस लाख सलाना कर देगा। यह स्पष्ट नहीं है कि इस प्रस्ताव में शेरशाह कितना ईमानदार था। लेकिन हुमायूँ बंगाल को शेरशाह के पास रहने देने के लिए तैयार नहीं था। बंगाल सोने का देश था, उद्योगों में उन्नत था और विदेशी व्यापार का केन्द्र था। साथ ही बंगाल का सुल्तान, जो घायल अवस्था में हुमायूँ की छावनी में पहुँच गया था, का कहना था कि शेरशाह का विरोध अब भी जारी है। इन सब कारणों से हुमायूँ ने शेरशाह का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और बंगाल पर चढ़ाई करने का निर्णय लिया। बंगाल का सुल्तान अपने घावों के कारण जल्दी ही मर गया। अतः हुमायूँ को अकेले ही बंगाल पर चढ़ाई करनी पड़ी।

बंगाल की ओर हुमायूँ का कूच उद्देश्यहीन था और यह उस विनाश की पूर्वपीठिका थी, जो उसकी सेना में लगभग एक वर्ष बाद चौसा में हुआ। शेरशाह ने बंगाल छोड़ दिया था और दक्षिण बिहार पहुँच गया था। उसने बिना किसी प्रतिरोध के हुमायूँ को बंगाल की ओर बढ़ने दिया ताकि वह हुमायूँ की रसद-पंक्ति को तोड़ सके और उसे बंगाल में फँसा सके। गौड़ में पहुँच कर हुमायूँ ने तुरन्त क़ानून और व्यवस्था स्थापित करने का प्रयत्न किया। लेकिन इससे उसकी कोई समस्या हल नहीं हुई। उसके भाई हिंदाल द्वारा आगरा में स्वयं ताजपोशी के प्रयत्नों से उसकी स्थिति और बिगड़ गई। इस कारण से रसद और समाचारों से पूरी तरह कट गया।

इन हताशाओं के बावजूद हुमायूँ को शेरशाह के विरुद्ध अपनी सफलता पर विश्वास था। वह इस बात को भूल गया कि उसका सामना उस अफ़ग़ान सेना से है, जो एक साल पहले की सेना से एकदम अलग थी। उसने सर्वश्रेष्ठ अफ़ग़ान सेनापति के नेतृत्व में लड़ाईयों का अनुभव और आत्म-विश्वास प्राप्त किया था। शेरशाह की ओर से शांति के एक प्रस्ताव से धोखा खाकर हुमायूँ कर्मनाशा नदी के पूर्वी किनारे पर आ गया और इस प्रकार उसने वहाँ उपस्थित अफ़ग़ान घुड़सवारों को पूरा मौक़ा दे दिया। हुमायूँ ने ने केवल निम्न कोटि की राजनीतिक समझ का परिचय दिया वरन् निम्न कोटि के सेनापतित्व का भी परिचय दिया। उसने ग़लत मैदान चुना और शेरशाह को अपनी असावधानी से मौक़ा दिया।

जल्दबाज़ी में आगरा में इकट्ठी की गई हुमायूँ की सेना शेरशाह के मुक़ाबले कमज़ोर थी। लेकिन कन्नौज की लड़ाई (मई 1540) भयंकर थी। हुमायूँ के दोनों छोटे भाई अस्करी और हिन्दाल वीरता पूर्वक लड़े, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। कन्नौज की लड़ाई ने शेरशाह और मुग़लों के बीच निर्णय कर दिया।

हुमायूँ की असफलता

यह स्पष्ट है कि शेरशाह के विरुद्ध हुमायूँ की असफलता का सबसे बड़ा कारण उसके द्वारा अफ़ग़ान शक्ति को समझ पाने की असमर्थता थी। उत्तर-भारत में अनेकानेक अफ़ग़ान जातियों के फैले रहने के कारण वे कभी भी किसी योग्य नेता के नेतृत्व में एकत्र होकर चुनौती दे सकती थी। स्थानीय शासकों और ज़मींदारों को अपनी ओर मिलाये बिना मुग़ल संख्या में अफ़ग़ानों से कम ही रहते।

शेरशाह 5 वर्ष तक ही शासन कर सका। उस थोड़े काल में ही उसने अपनी योग्यता और प्रबंध−कुशलता का सिक्का जमा दिया था। 22 मई, सन् 1545 में कालिंजर के दुर्ग की घेराबंदी करते हुए बारूदख़ाने में आग लग जाने से उसकी अकाल मृत्यु हो गई थी।

शेरशाह सूर के निर्माण कार्य

[[चित्र:Shershah Tomb1.jpg|thumb|200px|शेरशाह सूरी का मक़बरा, सासाराम बिहार]] शेरशाह सूरी हुमायूँ को पराजित कर बादशाह बना। उसके निर्माण कार्यों में सड़कों, सरायों एवं मस्जिदों आदि का बनाया जाना प्रसिद्ध है। वह पहला मुस्लिम शासक था, जिसने यातायात की उत्तम व्यवस्था की और यात्रियों एवं व्यापारियों की सुरक्षा का संतोषजनक प्रबंध किया। उसने बंगाल के सोनागाँव से लेकर पंजाब में सिंधु नदी तक, आगरा से राजस्थान और मालवा तक पक्की सड़कें बनवाई थीं। सड़कों के किनारे छायादार एवं फल वाले वृक्ष लगाये गये थे, और जगह-जगह पर सराय, मस्जिद और कुओं का निर्माण कराया गया था। ब्रजमंडल के चौमुहाँ गाँव की सराय और छाता गाँव की सराय का भीतरी भाग उसी के द्वारा निर्मित हैं। दिल्ली में उसने शहर पनाह बनवाया था, जो आज वहाँ का 'लाल दरवाजा' है। दिल्ली का 'पुराना क़िला' भी उसी के द्वारा बनवाया माना जाता है।

शेरशाह की उपाधि

1539 ई. में चौसा के युद्ध में हुमायूँ को हरा, शेर ख़ाँ ने शेरशाह की उपाधि ली। 1540 ई. में शेरशाह ने हुमायूँ को दोबारा हराकर राजसिंहासन पर बैठा। शेरशाह का 10 जून, 1540 को आगरा में विधिवत राज्याभिषेक हुआ। उसके बाद 1540 ई. में लाहौर पर अधिकार कर लिया। बाद में ख्वास ख़ाँ और हैबत ख़ाँ ने पूरे पंजाब पर अधिकार कर लिया। फलतः शेरशाह ने भारत में पुनः द्वितीय अफ़ग़ान साम्राज्य की स्थापना की। इतिहास में इसे 'सूरवंश' के नाम से जाना जाता है। सिंहासन पर बैठते समय शेरशाह 68 वर्ष का हो चुका था और 5 वर्ष तक शासन सम्भालने के बाद मई 1545 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

मलिकमुहम्मद जायसी, फरिश्ता और बदाँयूनी ने शेरशाह के शासन की बड़ी प्रशंसा की है। बदाँयूनी ने लिखा है- बंगाल से पंजाब तक, तथा आगरा से मालवा तक, सड़क पर दोनों ओर छाया के लिए फल वाले वृक्ष लगाये गये थे। कोस−कोस पर एक सराय, एक मस्जिद और कुँए का निर्माण किया था। मस्जिद में एक इनाम और अजान देने वाला एक मुल्ला था। निर्धन यात्रियों का भोजन बनाने के लिए एक हिन्दू और मुसलमान नौकर था। 'प्रबंध की यह व्यवस्था थी कि बिल्कुल अशक्त बुड्ढ़ा अशर्फियों का थाल हाथ पर लिये चला जाय और जहाँ चाहे वहाँ पड़ा रहे। चोर या लुटेरे की मजाल नहीं कि आँख भर कर उसकी ओर देख सके'।

दस वर्ष की छोटी-सी अवधि में ही शेरशाह ने लगभग सारे राजस्थान को जीत लिया। उसका अंतिम अभियान कालिंजर के क़िले के विरुद्ध था। यह क़िला बहुत मज़बूत और बुन्देलखण्ड का द्वार था। घेरे के दौरान एक तोप फट गई, जिससे शेरशाह गंभीर रूप से घायल हो गया। वह क़िले पर फ़तह का समाचार सुनने के बाद मौत की नींद सो गया।

मक़बरा

बनारस-कोलकाता रोड पर सासाराम शेरशाह सूरी का शहर था। यहीं उसने अपने जीते जी अपना मक़बरा बनवाना शुरु कर दिया था। मक़बरा पत्थरों से बना है। मक़बरे के सबसे ऊपरी सिरे से पूरा सासाराम साफ दिखाई देता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (पुस्तक संदर्भ 'शेरशाह सूरी' लेखक 'विद्या भास्कर')