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*[[कार्तिक]] सुदी [[एकादशी]] के दिन 'तुलसी विवाह' मनाया जाता है। | *[[कार्तिक]] सुदी [[एकादशी]] के दिन 'तुलसी विवाह' मनाया जाता है। | ||
*कार्तिक मास में कई घरों में तुलसी की पूजा की जाती है। | *कार्तिक मास में कई घरों में तुलसी की पूजा की जाती है। | ||
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तुलसी | धर्मध्वज की पत्नी का नाम माधवी तथा पुत्री का नाम तुलसी था। वह अतीव सुन्दरी थी। जन्म लेते ही वह नारीवत होकर बदरीनाथ में तपस्या करने लगी। ब्रह्मा ने दर्शन देकर उसे वर मांगने के लिए कहा। उसने ब्रह्मा को बताया कि वह पूर्वजन्म में श्रीकृष्ण की सखी थी। राधा ने उसे कृष्ण के साथ रतिकर्म में मग्न देखकर मृत्यृलोक जाने का शाप दिया था। कृष्ण की प्रेरणा से ही उसने ब्रह्मा की तपस्या की थी, अत: ब्रह्मा से उसने पुन: श्रीकृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने का वर मांगा। ब्रह्मा ने कहा -- '''तुम भी जातिस्मरा हो तथा सुदामा भी अभी जातिस्मर हुआ है, उसको पति के रूप में ग्रहण करो। नारायण के शाप अंश से तुम वृक्ष रूप ग्रहण करके वृंदावन में तुलसी अथवा वृंदावनी के नाम से विख्यात होगी। तुम्हारे बिना श्रीकृष्ण की कोई भी पूजा नहीं हो पायेगी। राधा को भी तुम प्रिय हो जाओगी।''' ब्रह्मा ने उसे षोडशाक्षर राधा मंत्र दिया। | ||
महायोगी शंखचूड़ नामक राक्षस ने महर्षि जैवीषव्य से कृष्णमंत्र पाकर बदरीनाथ में प्रवेश किया। अनुपम सौंदर्यवती तुलसी से मिलने पर उसने बताया कि वह ब्रह्मा की आज्ञा से उससे विवाह करने के निमित्त वहाँ पहुँचा था। तुलसी ने उससे विवाह कर लिया। वे लोग दानवों के अधिपति के रूप में निवास करने लगे। जब शंखचूर्ण का उपद्रव बहुत बढ़ गया तो एक दिन हरि ने अपना शूल देकर शिव से कहा कि वे शंखचूड़ को मार डालें। शिव ने उस पर आक्रमण किया। सबने विचारा कि जब तक उसकी पत्नी पतिव्रता है तथा उसके पास नारायण का दिया हुआ कवच है, उसे मारना असम्भव है। अत: नारायण ने बूढ़े ब्राह्मण के रूप में जाकर उससे कवच की भिक्षा मांगी। शंखचूड़ का कवच पहनकर स्वयं उसका सा रूप बनाकर वे उसके घर के सम्मुख दुंदुभी बजाकर अपनी देवताओं पर विजय की घोषणा किया। प्रसन्नता के आवेग में तुलसी ने उनके साथ समागम किया। तदनन्तर विष्णु को पहचानकर पतिव्रत धर्म नष्ट करने के कारण उसने शाप दिया -- '''तुम पत्थर हो जाओ। तुमने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अपने भक्त के हनन के निमित्त उसकी पत्नी से छल किया है।''' शिव ने प्रकट होकर उसके क्रोध का शमन किया और कहा -- '''तुम्हारा यह शरीर गंडक नामक नदी तथा केश तुलसी नामक पवित्र वृक्ष होकर विष्णु के अंश से बने समुद्र के साथ बिहार करोगी। तुम्हारे शाप से विष्णु गंडकी नदी के किनारे पत्थर के होंगे और तुम तुलसी के रूप में उन पर चढ़ाई जाओगी। शंखचूड़ पूर्वजन्म में सुदामा था, तुम उसे भूलकर तथा इस शरीर को त्यागकर अब तुम लक्ष्मीवत विष्णु के साथ विहार करो। शंखचूड़ की पत्नी होने के कारण नदी के रूप में तुम्हें सदैव शंख का साथ मिलेगा। तुलसी समस्त लोकों में पवित्रतम वृक्ष के रूप में रहोगी।''' शिव अंतर्धान हो गये और वह शरीर का परित्याग करके बैकुंठ चली गई। कहते हैं, तभी से विष्णु के शालिग्राम रूप की तुलसी की पत्तियों से पूजा होने लगी। | |||
श्रीकृष्ण ने कार्तिक की पूर्णिमा को तुलसी का पूजन करके गोलोक में रमा के साथ विहार किया, अत: वही तुलसी का जन्मदिन माना जाता है। प्रारम्भ में लक्ष्मी तथा गंगा ने तो उसे स्वीकार कर लिया था, किन्तु सरस्वती बहुत क्रुद्ध हुई। तुलसी वहाँ से अंतर्धान होकर वृंदावन में चली गई। नारायण पुन: उसे ढूँढकर लाये तथा सरस्वती से उसकी मित्रता करवा दी। सबके लिए आनंदायिनी होने के कारण वह नंदिनी भी कहलाती है। | |||
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Revision as of 19:53, 14 March 2011
- एक छोटा पौधा जिसे वैष्णव धर्मावलंबी अत्यंत पवित्र मानते और पूजा में इसकी पत्तियों का उपयोग करते हैं।
- आंगन में इसका पौधा लगाया जाता है।
- प्रात:काल इसमें जल चढ़ाते और सायं काल इसके नीचे दिया जलाते हैं।
- तुलसी के संबंध में पुराणों में एक कथा मिलती है।
- तुलसी का एक नाम वृन्दा है।
- वह अपने पतिव्रत धर्म के कारण विष्णु के लिए भी वंदनीय थी।
- इसी वृन्दा के नाम पर श्रीकृष्ण की लीलाभूमि का नाम वृन्दावन पड़ा।
- कार्तिक सुदी एकादशी के दिन 'तुलसी विवाह' मनाया जाता है।
- कार्तिक मास में कई घरों में तुलसी की पूजा की जाती है।
धर्मध्वज की पत्नी का नाम माधवी तथा पुत्री का नाम तुलसी था। वह अतीव सुन्दरी थी। जन्म लेते ही वह नारीवत होकर बदरीनाथ में तपस्या करने लगी। ब्रह्मा ने दर्शन देकर उसे वर मांगने के लिए कहा। उसने ब्रह्मा को बताया कि वह पूर्वजन्म में श्रीकृष्ण की सखी थी। राधा ने उसे कृष्ण के साथ रतिकर्म में मग्न देखकर मृत्यृलोक जाने का शाप दिया था। कृष्ण की प्रेरणा से ही उसने ब्रह्मा की तपस्या की थी, अत: ब्रह्मा से उसने पुन: श्रीकृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने का वर मांगा। ब्रह्मा ने कहा -- तुम भी जातिस्मरा हो तथा सुदामा भी अभी जातिस्मर हुआ है, उसको पति के रूप में ग्रहण करो। नारायण के शाप अंश से तुम वृक्ष रूप ग्रहण करके वृंदावन में तुलसी अथवा वृंदावनी के नाम से विख्यात होगी। तुम्हारे बिना श्रीकृष्ण की कोई भी पूजा नहीं हो पायेगी। राधा को भी तुम प्रिय हो जाओगी। ब्रह्मा ने उसे षोडशाक्षर राधा मंत्र दिया।
महायोगी शंखचूड़ नामक राक्षस ने महर्षि जैवीषव्य से कृष्णमंत्र पाकर बदरीनाथ में प्रवेश किया। अनुपम सौंदर्यवती तुलसी से मिलने पर उसने बताया कि वह ब्रह्मा की आज्ञा से उससे विवाह करने के निमित्त वहाँ पहुँचा था। तुलसी ने उससे विवाह कर लिया। वे लोग दानवों के अधिपति के रूप में निवास करने लगे। जब शंखचूर्ण का उपद्रव बहुत बढ़ गया तो एक दिन हरि ने अपना शूल देकर शिव से कहा कि वे शंखचूड़ को मार डालें। शिव ने उस पर आक्रमण किया। सबने विचारा कि जब तक उसकी पत्नी पतिव्रता है तथा उसके पास नारायण का दिया हुआ कवच है, उसे मारना असम्भव है। अत: नारायण ने बूढ़े ब्राह्मण के रूप में जाकर उससे कवच की भिक्षा मांगी। शंखचूड़ का कवच पहनकर स्वयं उसका सा रूप बनाकर वे उसके घर के सम्मुख दुंदुभी बजाकर अपनी देवताओं पर विजय की घोषणा किया। प्रसन्नता के आवेग में तुलसी ने उनके साथ समागम किया। तदनन्तर विष्णु को पहचानकर पतिव्रत धर्म नष्ट करने के कारण उसने शाप दिया -- तुम पत्थर हो जाओ। तुमने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अपने भक्त के हनन के निमित्त उसकी पत्नी से छल किया है। शिव ने प्रकट होकर उसके क्रोध का शमन किया और कहा -- तुम्हारा यह शरीर गंडक नामक नदी तथा केश तुलसी नामक पवित्र वृक्ष होकर विष्णु के अंश से बने समुद्र के साथ बिहार करोगी। तुम्हारे शाप से विष्णु गंडकी नदी के किनारे पत्थर के होंगे और तुम तुलसी के रूप में उन पर चढ़ाई जाओगी। शंखचूड़ पूर्वजन्म में सुदामा था, तुम उसे भूलकर तथा इस शरीर को त्यागकर अब तुम लक्ष्मीवत विष्णु के साथ विहार करो। शंखचूड़ की पत्नी होने के कारण नदी के रूप में तुम्हें सदैव शंख का साथ मिलेगा। तुलसी समस्त लोकों में पवित्रतम वृक्ष के रूप में रहोगी। शिव अंतर्धान हो गये और वह शरीर का परित्याग करके बैकुंठ चली गई। कहते हैं, तभी से विष्णु के शालिग्राम रूप की तुलसी की पत्तियों से पूजा होने लगी।
श्रीकृष्ण ने कार्तिक की पूर्णिमा को तुलसी का पूजन करके गोलोक में रमा के साथ विहार किया, अत: वही तुलसी का जन्मदिन माना जाता है। प्रारम्भ में लक्ष्मी तथा गंगा ने तो उसे स्वीकार कर लिया था, किन्तु सरस्वती बहुत क्रुद्ध हुई। तुलसी वहाँ से अंतर्धान होकर वृंदावन में चली गई। नारायण पुन: उसे ढूँढकर लाये तथा सरस्वती से उसकी मित्रता करवा दी। सबके लिए आनंदायिनी होने के कारण वह नंदिनी भी कहलाती है।