अभिषेक: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - " भारत " to " भारत ") |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "==टीका टिप्पणी और संदर्भ==" to "{{संदर्भ ग्रंथ}} ==टीका टिप्पणी और संदर्भ==") |
||
Line 17: | Line 17: | ||
*मुख्य स्नान के समय राजा रानी के साथ आसन पर बैठता था और केवल राजपुरोहित ही नहीं अपितु अन्य मन्त्री, सम्बन्धी एवं नागरिक आदि भी उसको अभिषिक्त करते थे। संस्कार [[इन्द्र]] की प्रार्थना के साथ पूरा होता था जिससे राजा को देवों के राजा इन्द्र के तुल्य समझा जाता था। राज्यारोहण के पश्चात राजा उपहार वितरण करता था एवं पुरोहित तथा ब्राह्मण दक्षिणा पाते थे। | *मुख्य स्नान के समय राजा रानी के साथ आसन पर बैठता था और केवल राजपुरोहित ही नहीं अपितु अन्य मन्त्री, सम्बन्धी एवं नागरिक आदि भी उसको अभिषिक्त करते थे। संस्कार [[इन्द्र]] की प्रार्थना के साथ पूरा होता था जिससे राजा को देवों के राजा इन्द्र के तुल्य समझा जाता था। राज्यारोहण के पश्चात राजा उपहार वितरण करता था एवं पुरोहित तथा ब्राह्मण दक्षिणा पाते थे। | ||
{{संदर्भ ग्रंथ}} | |||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> |
Revision as of 08:02, 21 March 2011
- मन्त्रपाठ के साथ पवित्र जल-सिंचन या स्नान। यजुर्वेद, अनेक ब्राह्मण एवं चारों वेदों की श्रौत क्रियाओं में हम अभिषेचनीय कृत्य को राजसूय के एक अंग के रूप में पाते हैं।
- ऐतरेय ब्राह्मण में तो अभिषेक ही मुख्य विषय है। धार्मिक अभिषेक व्यक्ति अथवा वस्तुओं की शुद्धि के रूप में विश्व की अति प्राचीन पद्धति है। अन्य देशों में अनुमान लगाया जाता है कि अभिषेक रुधिर से होता था जो वीरता का सूचक समझा जाता था। शतपथ ब्राह्मण[1] के अनुसार इस क्रिया द्वारा तेजस्विता एवं शक्ति व्यक्ति विशेष में जागृत की जाती है। ऐतरेय ब्राह्मण का मत है कि यह धार्मिक कृत्य साम्राज्यशक्ति की प्राप्ति के लिए किया जाता था।
- महाभारत में युधिष्ठिर का अभिषेक दो बार हुआ था, पहला सभापर्व[2] की दिग्विजयों के पश्चात अधिकृत राजाओं की उपस्थिति में राजसूय के एक अंश के रूप में तथा दूसरा भारत युद्ध के पश्चात।
- महाराज अशोक का अभिषेक राज्यारोहण के चार वर्ष बाद एवं हर्ष शीलादित्य का अभिषेक भी ऐसे ही विलम्ब से हुआ था। प्राय: सम्राटों का ही अभिषेक होता था। इसके उल्लेख बृहत्कथा, क्षेमेन्द्र[3], सोमदेव[4] तथा अभिलेखों में[5] पाये जाते हैं।
- साधारण राजाओं के अभिषेक के उदाहरण कम ही प्राप्त हैं, किन्तु स्वतन्त्र होने की स्थिति में ये भी अपना अभिषेक कराते थे।
- महाभारत (शल्य पर्व) राजा के अभिषेक को किसी भी देश के लिए आवश्यक बतलाता है।
- युवराजों के अभिषेक के उदाहरण भी पर्याप्त प्राप्त होते हैं, यथा राम के ‘यौवराज्यभिषेक’ का रामायण में विशद वर्णन है, यद्यपि यह राम के अन्तिम राज्यारोहण के समय ही पूर्ण हुआ है। यह पुष्याभिषेक का उदाहरण है।
- अथर्ववेद परिशिष्ट[6], वराहमिहिर की बृहत्संहिता[7] एवं कालिकापुराण[8] में बताया गया है कि यह संस्कार चन्द्रमा तथा पुष्य नक्षत्र के संयोग काल (पौषमास) में होना चाहिए।
- अभिषेक मन्त्रियों का भी होता था। हर्षचरित में राजपरिवार के सभासदों के अभिषेक (मूर्धाभिषिक्ता अमात्या राजान:) एवं पुरोहितों के लिए ‘बृहस्पतिसव’ का उल्लेख है।
- मूर्तियों का अभिषेक उनकी प्रतिष्ठा के समय होता था। इसके लिए दूध, जल (विविध प्रकार का), गाय का गोबर आदि पदार्थों का प्रयोग होता था।
- बौद्धों ने अपनी दस भूमियों में से अन्तिम का नाम ‘अभिषेकभूमि’ अथवा पूर्णता की अवस्था कहा है। अभिषेक का अर्थ किसी भी धार्मिक स्नान के रूप में अग्नि पुराण में किया गया है।
- अभिषेक की सामग्रियों का वर्णन रामायण, महाभारत, अग्नि पुराण एवं मानसार में प्राप्त है। रामायण एवं महाभारत से पता चलता है कि वैदिक अभिषेक संस्कार में तब यथेष्ट परिवर्तन हो चुका था। अग्नि पुराण का तो वैदिक क्रिया से एकदम मेल नहीं है। तब तक बहुत से नये विश्वास इसमें भर गये थे, जिनका शतपथ ब्राह्मण में नाम भी नहीं है। अभिषेक के एक दिन पूर्व राजा की शुद्धि की जाती थी, जिनमें स्नान प्रधान था। यह निश्चय ही वैदिकी दीक्षा के समान था, यथा-
1- मन्त्रियों की नियुक्ति, जो पहले अथवा अभिषेक के अवसर पर की जाती थी,
2- राज्य के रत्नों का चुनाव, इसमें एक रानी, एक हाथी, एक श्वेत अश्व, एक श्वेत वृषभ, एक अथवा दो; श्वेत छत्र, एक श्वेत चमर,
3- एक आसन (भद्रासन, सिंहासन, भद्रपीठ, परमासन) जो सोने का बना होता था तथा व्याघ्रचर्म से आच्छादित रहता था,
4- एक या अनेक स्वर्णपात्र जो विभिन्न जलों, मधु, दुग्ध, घृत, उदुम्बरमूल तथा विभिन्न प्रकार की वस्तुओं से परिपूर्ण होते थे।
- मुख्य स्नान के समय राजा रानी के साथ आसन पर बैठता था और केवल राजपुरोहित ही नहीं अपितु अन्य मन्त्री, सम्बन्धी एवं नागरिक आदि भी उसको अभिषिक्त करते थे। संस्कार इन्द्र की प्रार्थना के साथ पूरा होता था जिससे राजा को देवों के राजा इन्द्र के तुल्य समझा जाता था। राज्यारोहण के पश्चात राजा उपहार वितरण करता था एवं पुरोहित तथा ब्राह्मण दक्षिणा पाते थे।