चैतन्य महाप्रभु: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
No edit summary
Line 19: Line 19:
चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-10.jpg|गुरु पूर्णिमा पर श्रद्धालुओं का भजन-कीर्तन, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]<br /> Devotees Chanting Bhajans On Guru Purnima, Govardhan, Mathura
चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-10.jpg|गुरु पूर्णिमा पर श्रद्धालुओं का भजन-कीर्तन, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]<br /> Devotees Chanting Bhajans On Guru Purnima, Govardhan, Mathura
</gallery>
</gallery>
 
==सम्बंधित लिंक==
 
{{भारत के संत}}
 
[[Category:हिन्दू धर्म प्रवर्तक और संत]]
[[Category:हिन्दू धर्म प्रवर्तक और संत]]
[[Category:हिन्दू धर्म कोश]]
[[Category:हिन्दू धर्म कोश]]
[[Category:सगुण भक्ति]]
[[Category:सगुण भक्ति]]
__INDEX__
__INDEX__

Revision as of 07:48, 4 June 2010

चैतन्य महाप्रभु
Chaitanya Mahaprabhu|thumb|250px
चैतन्य महाप्रभु भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी । भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिन्दू मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृन्दावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया । चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन 1486 की फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक उस गांव में हुआ, जिसे अब मायापुर कहा जाता है । बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें निमाई कहकर पुकारते थे । गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर आदि भी कहते थे । चैतन्य महाप्रभु के द्वारा गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की आधारशिला रखी गई । उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामन्त्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है ।


इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शचि देवी था । निमाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे । साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे । इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था । बहुत कम उम्र में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे । इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया । निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद् चिंतन में लीन रहकर राम व कृष्ण का स्तुति गान करने लगे थे । 15-16 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ । सन 1505 में सर्प दंश से पत्नी की मृत्यु हो गई । वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ । जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता का निधन हो गया । सन 1509 में जब ये अपने पिता का श्राद्ध करने गया गए, तब वहां इनकी मुलाक़ात ईश्वरपुरी नामक संत से हुई । उन्होंने निमाई से कृष्ण-कृष्ण रटने को कहा । तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर समय भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगे । भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य अनुयायी हो गए । सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने । इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की । निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया । 'हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे । हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे` नामक अठारह शब्दीय कीर्तन महामन्त्र निमाई की ही देन है ।


इनका पूरा नाम विश्वम्भर विश्र और कहीं श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्र मिलता है। चैतन्य ने चौबीस वर्ष की उम्र में वैवाहिक जीवन त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया था। वे कर्मकांड के विरोधी और श्रीकृष्ण के प्रति आस्था के समर्थक थे। चैतन्य मत का एक नाम 'गोडीय वैष्णव मत' भी है। चैतन्य ने अपने जीवन का शेष भाग प्रेम और भक्ति का प्रचार करने में लगाया। उनके पंथ का द्वार सभी के लिए खुला था। हिन्दू और मुसलमान सभी ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। उनके अनुयायी चैतन्यदेव को विष्णु का अवतार मानते हैं। अपने जीवन के अठारह वर्ष उन्होंने उड़ीसा में बिताये। छह वर्ष तक वे दक्षिण भारत, वृन्दावन आदि स्थानों में विचरण करते रहे। 48 वर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया। मृदंग की ताल पर कीर्तन करने वाले चैतन्य के अनुयायियों की संख्या आज भी पूरे भारत में पर्याप्त है।

वीथिका

सम्बंधित लिंक