घरौंदा -रांगेय राघव: Difference between revisions
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Revision as of 08:00, 1 August 2013
घरौंदा -रांगेय राघव
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लेखक | रांगेय राघव |
प्रकाशक | राजपाल एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली |
ISBN | 9788170282297 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 243 |
भाषा | हिन्दी |
प्रकार | उपन्यास |
घरौंदा प्रसिद्ध साहित्यकार, कहानिकार और उपन्यासकार रांगेय राघव द्वारा लिखा गया उपन्यास है। यह उपन्यास 'राजपाल एंड संस' प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया था। इस उपन्यास की कथा वस्तु भारत की स्वतंत्रता के पहले का महाविद्यालयी छात्र जीवन है। तत्कालीन समय की छाप अनेक रंगों की छटाओं में इसमें दिखाई पड़ती है। 'घरौंदा' रांगेय राघव के प्रारम्भिक उपन्यासों में से एक है। पहले यह उपन्यास 'घरौंदे' शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, किंतु बाद में स्वंय लेखक ने इसका शीर्षक बदल दिया। इस उपन्यास का सर्जन रांगेय राघव ने अपने विघार्थी जीवन में किया था। उपन्यास के लिखते समय उन्हें प्रतीत हुआ कि सिर्फ़ कल्पना से ही अच्छा उपन्यास नहीं लिखा जा सकता, इसलिए उन्होंने एक ऐसा विषय उठाया था, जिस पर उनका पूर्ण अधिकार था। 'घरौंदा' का विषय वही था, जिसमें से लेखक उसके रचनाकाल के दौरान गुजर रहा था।[1]
उपन्यास परिचय
'घरौदा' नामक यह उपन्यास रांगेय राघव के प्रारंभिक उपन्यासों में से एक है। इस उपन्यास का रचना काल आज से लगभग 75 वर्ष पूर्व का है, परंतु आज के पाठक जिन्होंने भारत के महाविद्यालयों में शिक्षा पाई है, अपनी कुछ यादें इस कहानी से जोड़े बगैर नहीं रह पाएँगे। इसी कारण से उनके इस उपन्यास को कालजयी उपन्यासों की श्रेणी में रखा जा सकता है। रांगेय जी का मानना था कि मात्र कल्पना से ही अच्छा उपन्यास नहीं लिखा जा सकता, उसके लिए लेखक को उपन्यास के बारे में विस्तृत जानकारी अवश्य एकत्र करनी चाहिए। रांगेय जी के इस उपन्यास में वर्णित विस्तृत वर्णन उसे रोचक और पाठक को बाँधे रखने में सफल होता है।[2]
कथावस्तु
इस उपन्यास की कथावस्तु देश की स्वतंत्रता के पहले का महाविद्यालयी छात्र जीवन है। तत्कालीन समय की छाप अनेक रंगों की छटाओं में इस कहानी में दिखाई पड़ती है। उपन्यास छात्रावास और कॉलेज के विवरण से आरंभ होता है, और छात्र जीवन की विविधताओं को प्रदर्शित करता हुआ द्वितीय महायुद्ध और अंग्रेज़ी शासन की छाया में छात्र जीवन को प्रस्तुत करता है। इस कृति में ईसाई मिशनरी का महाविद्यालयों के जीवन में दख़ल और नियंत्रण भी कई स्थानों पर दिखाई पड़ता है। भारत में तत्कालीन समाज में ईसाई मिशनरी द्वारा किस प्रकार धर्म पर आधारित विभाजन किया जा रहा था, और शिक्षा जगत की राजनीति में उसका प्रभाव किस तरह पड़ता रहा, इसके संकेत भी कई जगह आते हैं।
इस उपन्यास का नायक गाँव के एक अत्यंत निर्धन परिवार का युवक है, जो छात्रवृत्ति के सहारे उच्च शिक्षा को प्राप्त करने की आकांक्षा रखता है। परंतु जब उसका परिचय तत्कालीन धनी परिवारों के युवक युवतियों से होता है तो वह एक ऐसी दुनिया में पहुँचता है, जिसमें वह न चाहते हुए भी झंझावात की तरह फँस जाता है। 'घरौंदा' उपन्यास में कॉलेज आदि के कुछ चित्रण वास्तव में अत्यंत सजीव बन पड़े हैं।[2]
कथानक
कॉलेज का वातावरण एवं छात्र- छात्राओं का स्वच्छन्द चित्रण बहुत यथार्थ रूप में हुआ है। यह एक मौलिक रचना है। 39 भागों में विभक्त कॉलेज जीवन की कहानी है। इसमें छात्र-छात्राओं के आपसी संबंध, अध्यापक-छात्र, छात्रा संबंध, छात्रों का स्त्री संबंध आदि के प्रसंग हैं। आज के महाविद्यालयी अध्ययन शैली में अध्ययन को गौण मानते हुए अन्य क्रियाओं में युवा वर्ग अधिक फँसा हुआ दिखाई देता है। छात्र-छात्राओं की दुनिया बडी रंगीन दिखाई गई है। पात्रों की बडी संख्या है। भगवती मुख्य पात्र है। उसने रंगीन दुनिया में रहते हुए स्वयं को गिरने नहीं दिया है। कामेश्वर एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। नारी पात्रों में लीला मुख्य है। धनिक वर्ग से होते हुए भी उसमें धनिकों जैसा घमंड नहीं है। प्रेम-प्रसंग में वह भगवती को समर्पित हो जाती है। स्त्री-पात्र भी अनेक हैं। यथार्थ की दुनिया म हाथ-पैर मारते-मारते आदर्श की ओर बढते दिखाये गए हैं। भाषा शैली सरल और विषयानुकूल है। कथोपकथन भी बडे प्रभावी हैं। चूंकि यह उपन्यास डॉ. राघव की प्रारम्भिक कृति है, इसलिए कहीं-कहीं निर्बलता का पक्ष भी दिखाई दिया है। लेकिन कुल मिलाकर यह रोचक और सफल उपन्यास माना गया है।[3]
पात्र
उपन्यास के कथानक में अनेक पात्र हैं। कथा-नायक का जीवन पूरे उपन्यास के दौरान इधर-उधर हिचकोले खाता है, कभी अपनी पढ़ाई का संघर्ष, तो कभी उसके आस-पास के अन्य छात्रों के बीच साँप-छछूँदर जैसी अवस्था। कहानी के मुख्य पात्रों में से एक कामेश्वर, एक संपन्न परिवार का एम. ए. में पढ़ने वाला ऐसा छात्र है जो कई वर्षों से कॉलेज में डेरा जमाए हुए है। वह एक बिगड़ा हुआ रईसज़ादा है। रानी हेरोल्ड दबाव में आकर ईसाई धर्म स्वीकार कर लेती हैं, लेकिन मन ही मन वह इससे खुश नहीं है। एक स्थान पर वह कहती है- "मैं घृणा के सहारे जिऊँगी, क्योंकि मुझे यही सिखाया गया है। मेरे पिता धर्म के लिए नहीं, पादरी के सिखावे में आकर धन के लिए ईसाई हुए थे। उसके बाद भी अंग्रेज़ पादरी ने उन्हें कभी बराबरी का दर्ज़ा नहीं दिया। यह ईसा का उपदेश नहीं है।" लवंग जो धनी परिवार की मनमौजी लड़की है, उपन्यास में कभी बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है, तो कभी दर-किनार हो जाती है। इंदिरा पर लेखक का कुछ विशेष स्नेह रहा है। कहानी में एक मज़बूत आधार प्रधान करने वाला चरित्र इंदिरा का है, जो पाठक को हमेशा भरोसा दिलाए रहता है कि कुछ न कुछ अच्छा होकर रहेगा। कहानी का केंद्र घूमते-घूमते कई पात्रों और परिस्थितियों से होते हुए आखिर एक परिवार और एक घर पर अपनी यात्रा समाप्त करता है। कुल मिलाकर यह एक पठनीय उपन्यास है।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ घरौंदा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 23 जनवरी, 2013।
- ↑ 2.0 2.1 2.2 घरौंदा उपन्यास (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 23 जनवरी, 2013।
- ↑ डॉ. रांगेय राघव: एक अद्वितीय उपन्यासकार (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 24 जनवरी, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
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