डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा: Difference between revisions

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Revision as of 11:27, 8 December 2017

डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा
पूरा नाम डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा
जन्म 16 जून, 1931
जन्म भूमि मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 6 दिसंबर, 2015
मृत्यु स्थान ग्वालियर, मध्य प्रदेश
संतान दो पुत्र
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र भारतीय प्रशासनिक सेवा
मुख्य रचनाएँ ’गणित जगत की सैर’, ’बेज़ुबान’, ’वेब ऑफ़ पोवर्टी’, ’फ़ोर्स्ड मैरिज इन बेलाडिला’, ’दलित्स बिट्रेड’ आदि।
प्रसिद्धि सामाजिक कार्यकर्ता
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी आदिवासी इलाकों में हिंसा और युद्ध की स्थिति से परेशान होकर ब्रह्मदेव शर्मा ने 17 मई, 2010 को राष्ट्रपति के नाम एक पत्र लिखा था, जिसे एक दस्तावेज़ के रूप में देखा जाता है। वह 'नर्मदा बचाओ आंदोलन', 'जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय', 'किसान संघर्ष समिति' सहित दर्जनों संगठनों के साथ जुड़े हुए थे।

डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा (अंग्रेज़ी: Dr. Brahmdev Sharma, जन्म- 16 जून, 1931, मुरादाबाद; मृत्यु- 6 दिसंबर, 2015, ग्वालियर) भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के अधिकारी थे। शिक्षा से गणित में पीएचडी करने वाले डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा ने जीवन भर आदिवासियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी और इसी कारण प्रसिद्धि पाई। भारत में आदिवासियों की दुर्दशा और समस्या के मुद्दे पर वे लगातार आवाज़ उठाते रहे। आदिवासियों के लिए कई सरकारी नीतियों के निर्धारण में उन्होंने अहम भूमिका निभाई। 1956 बैच के आईएएस अधिकारी डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा मौजूदा छत्तीसगढ़ (उस समय मध्य प्रदेश) के बस्तर ज़िले के कलेक्टर के तौर पर आदिवासियों के पक्ष में खड़े रहने के लिए बहुत चर्चा में रहे।

परिचय

डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा का जन्म 16 जून, 1931 को उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में हुआ था। वे 1956 में आईएएस बने। उन्हें मध्य प्रदेश काडर मिला था। गणित से पीएचडी ब्रह्मदेव शर्मा 1968 से लेकर 1970 तक बस्तर में पदस्थापित रहे और यहीं आदिवासी समाज से उनका इतना गहरा नाता जुड़ा कि वे उनके दिलों में बस गए। सन 1973-1974 में वे केन्द्रीय गृह मंत्रालय में निदेशक बने और फिर संयुक्त सचिव भी रहे।

प्रशासनिक कॅरियर

ब्रह्मदेव शर्मा जी अपने प्रशासनिक कॅरियर के शुरुआती दिनों से ही आदिवासियों एवं वंचितों के पक्ष में खड़े रहते थे। वह उनके संवैधानिक अधिकारों की लड़ाई लड़ते रहे, जिससे वे कई तरह से वंचित रहे थे। 1968 में बस्तर कलेक्टर के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने बड़ी ख्याति पाई। 1981 में उन्होंने आदिवासियों और दलितों के लिए सरकारी नीतियों को लेकर उनके और सरकार में मतभेद के कारण प्रशासनिक सेवा को अलविदा कह दिया था। लेकिन इसके बाद ग़रीबों, आदिवासियों और दलितों के लिए उनका संघर्ष और तेज हो गया। भारत सरकार ने बाद में ही उन्हें नॉर्थ ईस्ट युनिवर्सिटी का कुलपति बनाकर शिलांग भेजा। वहां भी उन्होंने इस दिशा में काम किया।[1]

1986 से 1991 तक डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा ने अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति आयोग के आखिरी आयुक्त के रूप में काम किया। पर आयुक्त के रूप में जो रिपोर्ट उन्होंने तैयार की, उससे देश के आदिवासियों की गंभीर स्थिति को समझने में मदद मिलती है। उस रिपोर्ट की सिफ़ारिशों को आदिवसियों को न्याय दिलाने की ताक़त रखने वाले दस्तावेज़ के रूप में देखा जाता है। 1991 में 'भारत जन आंदोलन' और 'किसानी प्रतिष्ठा मंच' का गठन कर उन्होंने आदिवासी और किसानों के मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर कार्य करना शुरू किया। 2012 में छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले के कलेक्टर को माओवादियों से छुड़ाने में उन्होंने प्रोफ़ेसर हरगोपाल के साथ अहम भूमिका निभाई थी। वह माओवादियों की ओर से वार्ताकार थे। उनकी घनिष्टता कल्याणकारी भूमिका में उतरने वाले वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी एस.आर संकरन और वी. युगंधर के साथ लंबे समय तक रही।

'भूरिया समिति' की रिपोर्ट में भी ब्रह्मदेव शर्मा की भूमिका रही। उन्होंने आदिवासी उपयोजना का विचार दिया, जिस पर अमल किया जाने लगा। वन अधिकार कानून, पेसा आदि में उन्होंने बड़ी जिम्मेदारी निभाई। आदिवासी इलाकों में हिंसा और युद्ध की स्थिति से बहुत परेशान होकर उन्होंने 17 मई, 2010 को राष्ट्रपति के नाम एक पत्र लिखा था, जिसे एक दस्तावेज के रूप में देखा जाता है। वह नर्मदा बचाओ आंदोलन, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, किसान संघर्ष समिति सहित दर्जनों संगठनों के साथ जुड़े हुए थे।

लेखन कार्य

डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा ने ’गणित जगत की सैर’, ’बेज़ुबान’, ’वेब ऑफ़ पोवर्टी’, ’फ़ोर्स्ड मैरिज इन बेलाडिला’, ’दलित्स बिट्रेड’ आदि पुस्तकों का लेखन भी किया।

अक्सर सामाजिक आंदोलन पहले संस्था बनाते हैं, फिर विचारों को फैलाने का काम करते हैं; लेकिन डॉ. शर्मा के मुताबिक़ संस्था नहीं विचारों को पहले आमजन तक पहुंचना चाहिए। इस संबंध में उनकी लिखी हुई किताबों ने भी अहम भूमिका अदा की और 'गांव गणराज' की परिकल्पना ने ठोस रूप लिया, जिसके तहत ये स्पष्ट हुआ कि गांव के लोग अपने संसाधनों का एक हिस्सा नहीं चाहते, वे उसकी मिल्कियत चाहते हैं। इसी आंदोलन के तहत "जल जंगल और ज़मीन" का नारा और विचार उभरा।

मृत्यु

डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा का निधन 6 दिसम्बर, 2015 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश में हुआ। वे ग्वालियर में अपने घर पर दोनों बेटों और पत्नी के साथ रहते थे। पिछले एक साल से वे बीमार थे और शारीरिक तौर पर भी काफ़ी कमज़ोर हो गए थे।

डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा को पिछले 40 सालों से जानने वाली हिंदी की लेखिका सुमन केशरी ने अपनी फ़ेसबुक वॉल पर उनको याद करते हुए लिखा था- "'वो कहते थे, अगर संविधान को सही में लागू कर दिया जाए तो भारत की समस्याएं हल हो जाएंगी, परेशानी यह है कि संविधान पुस्तक बन कर रह गई है।"[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 आदिवासियों एवं वंचितों की आवाज रहे डॉ. साहब हुए मौन (हिंदी) outlookhindi.com। अभिगमन तिथि: 08 दिसम्बर, 2017। Cite error: Invalid <ref> tag; name "a" defined multiple times with different content

बाहरी कड़ियाँ

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