भारत की आदिम जातियाँ: Difference between revisions
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प्रारम्भिक काल में भारत में कितने प्रकार की जातियां निवास करती थीं, उनमें आपसी सम्बन्घ किस स्तर के थे, आदि प्रश्न अत्यन्त ही विवादित हैं। फिर भी नवीनतम सर्वाधिक मान्यताओं में 'डॉ. बी.एस. गुहा' का मत है। भारतवर्ष की प्रारम्भिक जातियों को छः भागों में विभक्त किया जा सकता है। -
- नीग्रिटों
- प्रोटो-ऑस्ट्रेलियाईड
- मंगोलायड
- भूमध्य सागरीय
- पश्चिमी ब्रेकी सेफल
- नॉर्डिक
नीग्रिटो
(Negretto)
अण्डमान द्वीप समूह में ही इस जाति के कुछ अवशेष मिलते हैं। असम की 'नागा' एवं 'ट्रावरकोर' - कोचीन की आदिम जातियों में 'नीग्रेटो' जाति की कुछ विशेषतायें परिलक्षित होती हैं। अफ्रीका से चलकर अरब, ईरान और बलूचिस्तान के रास्ते भारत पहुंची। यह जाति भारत की प्राचीनतम जातियों में से एक थी। शायद जाति कृषि-कर्म एवं पशुपालन तकनीक से वंचित थी, शिकार ही जीवन का मुख्य आधार था। मछलियों को समुद्र से पकड़ कर खाते थे। नीग्रिटों जाति का पूर्ण उन्मूलन 'प्रोटो आस्ट्रेलायड' जाति के द्वारा किया गया।
प्रोटो ऑस्ट्रेलियाड
(Proto- Austriliad)
यह जाति सम्भवतः 'फिलिस्तीन से भारत', 'बर्मा', 'मलाया', 'इण्डोनेशिया', 'आस्ट्रेलिया', 'इण्डोचीन' आदि स्थानों पर पहुंची। भारत में निवास करने वाली 'कोल' एवं 'मुण्डा' जातियों में 'प्रोटो- ऑस्ट्रेलियाड' जाति के कुछ लक्षण दिखाई पड़ते हैं। आर्यों के भारत में आने के समय यह जाति के लोग सम्भवतः कृषि कार्य को जानते थे, साथ ही पशुपालन एवं वस्त्र निर्माण तकनीक से भी भिज्ञ थे। ये लोग समूह बनाकर रहते थे।
मंगोलायड
(Mongoloid)
नाटे कद, चौड़े सिर, चपटी नाक एवं दरार जैसी आंखों वाली यह जाति सिक्किम, असम, भूटान एवं भारत तथा बर्मा की सीमा पर आज भी दृष्टिगोचर होती है।
भूमध्यसागरीय द्रविड़
(Mediterranean)
इस जाति की अनेक शाखाओं में भारत में द्रविड़ काफी महत्वपूर्ण थी। इस जाति के लोगों का कद छोटा, नाक छोटी, बड़े सिर एवं रंग काला होता था।
पश्चिमी ब्रैकीसेफल
(Wesern Brachycephals)
पश्चिमी ब्रेकीसेफल प्रजाति मध्य एशिया की पामीर पर्वतमाला तथा ईरान पठार से ईसा से 3000 वर्ष पूर्व भारत में आयी। ये लोग 'पिशाच' अथवा 'दरदभासा' परिवार की भाषा बोलते थे। इनकी मुख्यतः तीन शाखायें थीं -
- अल्पाइन (Alpine),
- दीनापक (Dinaric) ,
- आर्मीनिया (Anrmenien)।
ये लोग गुजरात, सौराष्ट्र, बंगाल, उड़ीसा, कर्नाटक, तमिल प्रदेश तथा महाराष्ट्र में मिलते हैं।
नार्डिक
(Nordic)
इसे आर्य - प्रजाति भी कहा जाता है। यह प्रजाति भारत में मध्य एशिया से लगभग 2000 ई.पू. में प्रविष्ट हुई। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की जननी यही प्रजाति है। ये भारत के पश्चिमोत्तर भाग में प्रारम्भ में बसी। ये लम्बे सिर, ऊंची पतली नाक, पतले होंठ, ऊंचे इकहरे शरीर, सुनहरे घुंघराले बाल, गौर वर्ण तथा नीली अथवा हल्की भूरी आंख वाले होते थे। किन्तु बाद में जलवायु परिवर्तन के कारण इनकी शारीरिक बनावट विशेषकर रंगों में परिवर्तन हो गया। आगे यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि द्रविड़ लोग मूलतः कहां के निवासी थे? इस सन्दर्भ में काफी विवाद है फिर भी कुछ विद्धानों का मत इस प्रकार है -
- रिजले और इनके समर्थक विद्वान - 'द्रविड़ बलूचिस्तान के ही निवासी रहे होगें।'
- कर्नल डोल्डिच का मानना है कि 'बलूचिस्तान में रहने वाले ‘ब्राहुई‘ भाषा-भाषी लोग 'द्रविड़' जाति के नहीं बल्कि 'मंगोल' जाति के थे जिन्होंने द्रविड़ों को परास्त कर वहां से भगा दिया और साथ ही उनकी ‘ब्राहुई‘ भाषा को अपना लिया।' कुल मिलाकर इनके कथन का इशारा उसी ओर है कि द्रविड़ बलूचिस्तान के ही निवासी थे।
- अधिकांश विद्धानों का यह मानना है कि द्रविड़ जाति के लोग 'भूमध्य सागरीय प्रदेश' के निवासी थे और सम्भवतः वे 'ईजियन सागर', 'एशिया माइनर' व 'फिलिस्तीन' से भारत आये थे। सिंधु सभ्यता के प्रणेता भी सम्भवतः द्रविड़ ही थे। भारत में द्रविड़ों के निवास स्थान पंजाब, सिंधु, मालवा, महाराष्ट्र, गंगा-यमुना का दोआब, बंगाल एवं दक्षिण भारत थे। ऋग्वेद, जिसमें आर्यो के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है, में प्रयुक्त शब्द 'दस्यु' और 'दास्य' शब्द सम्भवतः द्रविड़ों के लिए ही प्रयोग किये गये हैं।
- अनेक विद्धानों का मानना है कि द्रविड़ सभ्यता नगरीय सभ्यता थी, इन लोगों ने ही सर्वप्रथम भारत में नगरों की नींव डाली। सम्भवतः इस जाति के लोगों ने ही सबसे पहले नदियों पर पुल एवं बांधों का निर्माण किया।
- डॉ बार्नेट का माना है कि द्रविड़ समाज मातृ प्रधान था।
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