मैसूर युद्ध चतुर्थ

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मैसूर का चौथा युद्ध गवर्नर-जनरल लॉर्ड मॉर्निंग्टन (बाद में लॉर्ड वेलेज़ली) ने इस बहाने से शुरू किया कि, टीपू सुल्तान को फ़्रांसीसियों से सहायता मिल रही है। यह युद्ध अल्पकालिक, परन्तु भयानक सिद्ध हुआ। इसका कारण टीपू सुल्तान द्वारा अंग्रेज़ों के आश्रित बन जाने के सन्धि प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना था, तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड वेलेज़ली को टीपू की ब्रिटिश- विरोधी गतिविधियों का पूर्ण विश्वास हो गया था। उसे पता चला कि 1792 ई. की पराजय के उपरांत टीपू ने फ़्राँस, कुस्तुनतुनिया और अफ़ग़ानिस्तान के शासकों के साथ इस अभ्रिप्राय से सन्धि का प्रयास किया था कि, भारत से अंग्रेज़ों को निकाल दिया जाय। वेलेज़ली ने टीपू द्वारा आश्रित सन्धि के अस्वीकार को युद्ध का कारण बना लिया। उसने निज़ाम और पेशवा के साथ इस आधार पर एक गठबंधन किया कि, युद्ध में जो लाभ होगा, उसका तीनों में बराबर बँटवारा हो जाएगा।सन्धि

टीपू सुल्तान की पराजय एवं मृत्यु

अंग्रेज़ों की तीन सेनाएँ क्रमश: जनरल हेरिस, जनरल स्टीवर्ट और गवर्नर-जनरल के भाई वेलेज़ली (जो आगे चलकर 'ड्यूक ऑफ़ वेलिंगटन' हुआ) के नेतृत्व में तीन दिशाओं से टीपू के राज्य की ओर बढ़ीं। दो घमासान युद्धों में टीपू की पराजय हुई और उसे श्रीरंगपट्टनम के दुर्ग में शरण लेनी पड़ी। दुर्ग 17 अप्रैल को घेर लिया गया और 4 मई 1799 ई. को उस पर अधिकार हो गया। वीरतापूर्वक दुर्ग की रक्षा करते हुए टीपू सुल्तान युद्ध में शहीद हो गया। उसके पुत्र ने आत्म-समर्पण कर दिया। विजयी अंग्रेज़ टीपू के राज्य को बराबर-बराबर तीन भागों में अपने मित्रों में नहीं बाँटना चाहते थे, अत: उन्होंने मैसूर के मुख्य और मध्यवर्ती भाग पर कृष्णराज को सिंहासनासीन किया, जो मैसूर के उस पुराने राजा का वंशज था, जिसे हैदर अली ने अपदस्थ किया था।

अंग्रेज़ों का नियंत्रण

टीपू के राज्य के बचे हुए भू-भागों में से 'कनास (कन्नड़), कोयम्बतूर और श्रीरंगपट्टनम कम्पनी के राज्य में मिला लिए गए। मराठों ने, जिन्होंने इस युद्ध में कोई भी सक्रिय भाग नहीं लिया था, हिस्सा लेना अस्वीकार कर दिया। निज़ाम को टीपू के राज्य का उत्तर पूर्व वाला कुछ भू-भाग मिला, जिसे उसने 1800 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सौंप दिया। इस प्रकार चतुर्थ मैसूर-युद्ध की समाप्ति पर मैसूर का सम्पूर्ण राज्य अंग्रेज़ों के नियंत्रण में आ गया।


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