जब दुपहरी ज़िंदगी पर -गजानन माधव मुक्तिबोध
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जब दुपहरी ज़िंदगी पर गजानन माधव मुक्तिबोध की अप्रकाशित कविता है जिसका रचनाकाल लगभग 1948-50 है।
<poem> जब दुपहरी ज़िन्दगी पर रोज सूरज एक जॉबर-सा बराबर रौब अपना गांठता-सा है कि रोज़ी छूटने का डर हमें फटकारता-सा काम दिन का बांटता-सा है अचानक ही हमें बेखौफ करती तब हमारी भूख की मुस्तैद आंखें ही थका-सा दिल बहादुर रहनुमाई पास पा के भी बुझा-सा ही रहा इस ज़िन्दगी के कारखाने में उभरता भी रहा पर बैठता भी तो रहा बेरुह इस काले ज़माने में जब दुपहरी ज़िन्दगी को रोज सूरज जिन्न-सा पीछे पड़ा रोज की इस राह पर यों सुबह-शाम खयाल आते हैं.... आगाह करते से हमें.... ? या बेराह करते से हमें ? यह सुबह की धूल सुबह के इरादों-सी सुनहली होकर हवा में ख्वाब लहराती सिफत-से जिन्दगी में नई इज्जत, आब लहराती दिलों के गुम्बजों में बन्द बासी हवाओं के बादलों को दूर करती-सी सुबह की राह के केसरिया गली का मुंह अचानक चूमती-सी है कि पैरों में हमारे नई मस्ती झूमती-सी है सुबह की राह पर हम सीखचों को भूल इठलाते चले जाते मिलों में मदरसों में फ़तह पाने के लिए क्या फतह के ये खयाल खयाल हैं क्या सिर्फ धोखा है ?.... सवाल है।
टीका टिप्पणी और संदर्भबाहरी कड़ियाँसंबंधित लेख
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