विज्ञानगीता

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विज्ञानगीता केशवदास की कृति है। इसका रचनाकाल 1610 ई. है। इसका मूल वेंकटेश्वर प्रेम, बम्बई से 1894 ई. में तथा इसकी श्यामसुन्दर द्विवेदी कृत टीका मातृभाषा-मन्दिर, इलाहाबाद से 1954 ई. में निकली थी।

विचारों का आधारभूत संग्रह

'विज्ञानगीता' में आध्यात्मिक विचारों का आधारभूत ग्रंथों से संग्रह है। वस्तुत: यह संस्कृत के 'प्रबोधचन्द्रोदय' के आधार पर लिखी गयी है। इसमें 1684 छन्द हैं। 'विज्ञानगीता' के अनुसार एक दिन ओरछा नरेश मधुकरशाह के पुत्र वीरसिंह ने केशवदास से प्रश्न किया कि जप, तप, तीर्थ आदि करने पर भी मनुष्य के हृदय से विकार दूर नहीं होता, क्या कारण है? केशव ने कहा कि ऐसा ही प्रश्न पार्वती ने महादेव शिव से किया था। उन्होंने उत्तर दिया कि जब विवेक मोह का नाश करके प्रबोध का उदय कराये, तभी विकार नष्ट होकर जीवन्मुक्ति की स्थिति हो सकती है। वीरसिंह ने विवेक द्वारा मोह के नाश के हेतु होने वाले युद्ध का वृत्तांत तथा प्रबोध का उदय-स्थान पूछा। उसी का इसमें विस्तृत-वर्णन है। अंत में जीव के शुद्ध होने पर श्रृद्धा और शांति आ मिलती है। इसके अनंतर प्रह्लाद की कथा, बलि की कथा और योग की सात भूमिकाओं का वर्णन है।

विषयवस्तु

'राम' नाम के महात्म्य की चर्चा से ग्रंथ की इतिश्री होती है। इसमें 'प्रबोधचन्द्रोदय' नाटक से स्थान-स्थान पर भिन्नता की गयी है। शिव और पार्वती की कल्पना केशव की है। पेट का वर्णन, वर्षा-शरद के श्लिष्ट वर्णन, सातों द्वीपों के वर्णन, गंगा, वाराणसी-मणिकर्णिका तथा बिन्दु माधव के प्रभावों के वर्णन जोड़कर तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों से अनेक वृत्तियों, स्थितियों, भूमिकाओं आदि के अंश लेकर विषयवस्तु में केशव ने बड़ा विस्तार किया है। अंत में उन्होंने गंगातट वास की आकांक्षा की है और उसकी पूर्ति भी वीरसिंह ने कर दी है, किंतु केशव का काशी आने पर यहीं बस जाना सन्दिग्ध है। अन्य बहुत-सी बातों के संग्रह के कारण 'विज्ञानगीता' का मूल रूप उलझ गया है। कहीं-कहीं तो मूल ('प्रबोधचन्द्रोदय') से नाम भेद तक हो गया है।

भाषा

कुछ लोगों ने केशव के आध्यात्मिक विचारों की छानबीन के लिए 'विज्ञानगीता' को आधार बनाया है, पर यह उनके आध्यात्मिक सिद्धांतों को प्रकट करने में पूर्ण समर्थ नहीं है। इसकी भाषा 'रामचन्द्रचन्द्रिका' की भाँति संस्कृतनिष्ठ अधिक है। इसमें प्रमाण के लिए उद्धरण संस्कृत में ही स्थान-स्थान पर रखे गये हैं। छन्द भी प्राय: वर्णकृत्त ही रखे गये हैं। फल यह हुआ है कि भाषा संस्कृत मय हो गयी है। संस्कृत के प्रयोगों या शब्दों को हिन्दी में रखने के कारण भाषा अत्यंत दुरूह हो गयी है।


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