संस्कृति के लक्षण

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भारतीय संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं समृद्ध संस्कृति है। अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो समय की धारा के साथ-साथ नष्ट होती रही हैं, किन्तु भारत की संस्कृति आदि काल से ही अपने परम्परागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। इसकी उदारता तथा समन्यवादी गुणों ने अन्य संस्कृतियों को समाहित तो किया है, किन्तु अपने अस्तित्व के मूल को सुरक्षित रखा है। तभी तो पाश्चात्य विद्वान अपने देश की संस्कृति को समझने हेतु भारतीय संस्कृति को पहले समझने का परामर्श देते हैं।

संस्कृति के लक्षण अथवा विशेषताएँ

संस्कृति के प्रमुख लक्षण या विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

सीखा हुआ व्यवहार-

व्यक्ति समाज में रहकर जन्म से मृत्यु तक कुछ न कुछ सीखता ही रहता है और अनुभव प्राप्त करता रहता है, जो आगे चलकर संस्कृति का रूप धारण कर लेता है। संस्कृति किसी एक की न होकर, समूह की हुआ करती है। अत: समूह के सीखे हुए व्यवहारों को ही संस्कृति कहा जाता है।

हस्तान्तरणशीलता-

संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है, जो अनेक पीढ़ियों तक हस्तान्तरित होता रहता है। मनुष्य एक बौद्धिक प्राणी है, अत: वह अपने ज्ञान के आधार पर अपने सीखे हुए व्यवहार को आने वाली पीढ़ी को हस्तान्तरित कर देता है और इस हस्तान्तरण का आधार उस समूह की भाषा और उस समूह के द्वारा स्वीकृति प्राप्त प्रतीक या चिह्न होते हैं, जो कि अत्यन्त ही पवित्र समझे जाते हैं, और इन प्रतीकों के प्रति समूह की गहरी श्रद्धा होती है। हस्तान्तरणशीलता के कारण ही संस्कृति हज़ारों-लाखों वर्षों के बाद भी नष्ट नहीं होती है।

सामाजिकता-

व्यक्ति के द्वारा संस्कृति का निर्माण होता है और हर व्यक्ति में संस्कृति के गुण पाये जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति संस्कृति के सम्बन्ध में प्रयत्नशील रहता है, किन्तु संस्कृति व्यक्तिगत नहीं होती, वह सामाजिक होती है। किसी व्यक्ति विशेष के गुणों को संस्कृति नहीं कहा जा सकता है। संस्कृति सामाजिक गुणों का नाम है। संस्कृति में सभी सामाजिक गुणों का समावेश होता है, जैसे - धर्म, प्रथा, परम्परा, रीति-रिवाज, रहन-सहन, क़ानून, साहित्य, भाषा आदि।

आदर्शात्मक-

संस्कृति समूह के सदस्यों के व्यवहारों का आदर्श रूप होती है और प्रत्येक सदस्य उसे आदर्श मानता है। संस्कृति में सामाजिक विचार, व्यवहार, प्रतिमान एवं आदर्श प्रारूप होते हैं और इन्हीं के अनुसार कार्य करना श्रेष्ठ समझा जाता है। प्रत्येक समाज अपनी संस्कृति को दूसरे समाजों की संस्कृति से श्रेष्ठ मानता है। इस श्रेष्ठता का आधार उसकी संस्कृति के आदर्श प्रतिरूप ही हैं।

आवश्यकताओं की पूर्ति-

आवश्यकता आविष्कार की जननी है, और इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जो साधन या उपकरण अपनाए जाते हैं, कालान्तर में वे ही संस्कृति का रूप धारण कर लेते हैं। अनेक आवश्यकताएँ ऐसी होती हैं, जिनकी पूर्ति अन्य साधनों से न होकर संस्कृति के माध्यम से होती है। सामाजिक और प्राणिशास्त्रीय दोनों प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति सतत संस्कृति द्वारा होती है।

अनुकूलन की क्षमता-

समाज परिवर्तनशील है और इसके साथ ही साथ संस्कृति भी परिवर्तित होती रहती है। इन परिवर्तनों के बीच प्रत्येक संस्कृति को अपने पर्यावरण से अनुकूलन करना पड़ता है। इसके साथ ही, समय की मांग के अनुसार भी संस्कृति को परिवर्तित होना पड़ता है। यह परिवर्तन सतत चलता रहता है।

एकीकरण की क्षमता-

संस्कृति के विभिन्न अंग मिलकर एक समग्रता का निर्माण करते हैं। संस्कृति के ये प्रतिमान स्थिर और दृढ़ होते हैं। प्रत्येक संस्कृति अपने अवयवों को एकसूत्र में बाँधे रहती है, और साथ ही दूसरी संस्कृति के तत्त्वों को भी आत्मसात करती रहती है। चूँकि संस्कृति के तत्त्व एकीकृत रहते हैं, अत: इनमें शीघ्र परिवर्तन नहीं हो पाता है।

पृथकता या भिन्न्ता-

संस्कृति का निर्माण देश, काल और परिस्थिति के मध्य होता है। प्रत्येक देश के व्यक्तियों की आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। अत: इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपकरण भी भिन्न-भिन्न होते हैं। चूँकि विभिन्न देशों के निवासियों की आवश्यकताएँ अलग-अलग होती हैं, अत: आचार-विचार और व्यवहार भी अलग-अलग होते हैं। इसीलिए एक देश की संस्कृति दूसरे देश की संस्कृति से भिन्न या पृथक् होती है।

अधि वैयक्तिक तथा अधि सावयवी-

संस्कृति एक व्यक्ति के व्यवहार का परिणाम होती है। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि संस्कृति व्यक्ति की शक्ति के ऊपर होती है। यह सामूहिक व्यवहार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होता है। संस्कृति द्वारा व्यक्ति के आचार-विचार, रहन-सहन, वेशभूषा प्रभावित होते हैं, जबकि अकेला व्यक्ति संस्कृति के प्रतिमानों को बदल नहीं सकता है। इसीलिए ऐसा माना जाता है कि संस्कृति अधि वैयक्तिक होती है।



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