भारतीय संस्कृति और एशिया
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। यह माना जाता है कि भारतीय संस्कृति यूनान, रोम, मिस्र, सुमेर और चीन की संस्कृतियों के समान ही प्राचीन है। कई भारतीय विद्वान् तो भारतीय संस्कृति को विश्व की सर्वाधिक प्राचीन संस्कृति मानते हैं। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में भारतीय संस्कृति के प्रसार का विवरण निम्नलिखित है-
ब्रह्मा / बर्मा / म्यांमार
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दक्षिण-पूर्वी एशिया या 'सुवर्ण भूमि' का एक अंग ब्रह्मा या बर्मा था, जहाँ भारतीय संस्कृति का प्रवेश प्राचीनकाल में ही हो चुका था। ईसवी सन् के आरम्भ होने से पहले ही बर्मा के साथ भारत के सम्पर्क में वृद्धि हुई। कलिंग प्रदेश से व्यापारियों की बड़ी संख्या वहाँ व्यापार करने के लिए जाती रहती थी। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचारक मण्डल को वहाँ भेजा तथा बौद्ध धर्म का प्रचार कराया। 450 ई. में श्रीलंका से 'आचार्य बुद्धघोष' ने वहाँ जाकर हीनयान मत की स्थापना की। बर्मा में विष्णु की मूर्ति प्राप्त हुई है, जिससे सिद्ध होता है कि उस देश में हिन्दू धर्म का प्रचार हुआ था। वहाँ गुप्त युग के हिन्दू व बौद्ध अवशेषों की पेगू, प्रोम आदि विभिन्न स्थानों में प्राप्ति हुई है। बर्मा के शासकों में ग्यारहवीं शताब्दी के शासक अनिरुद्ध का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है, जो बौद्ध मतानुयायी था तथा जिसने अनेक पैगोडा एवं मठों का निर्माण करवाया।
स्याम
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वर्तमान काल में यह देश 'थाईलैण्ड' के नाम से प्रख्यात है। इसके केन्द्रीय प्रदेश में 'अमरावती' नामक एक हिन्दू राज्य की स्थापना की गई थी। जिसने द्रुत गति से प्रसार करते हुए सम्पूर्ण देश पर अपना प्रभाव स्थापित किया। इसके पड़ोसी देश 'कम्बोडिया' में पहले ही बौद्ध धर्म विकसित हो चुका था। भारतीय संस्कृति और कला का इस देश में विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। हिन्दू और बौद्ध धार्मिक साहित्य तथा कला ने स्याम देश की भाषा, कला, साहित्य और सामाजिक संस्थाओं को अत्यधिक प्रभावित किया। यहाँ अमरावती शैली, गुप्तकालीन कला और पल्लव लिपि में अंकित बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों के अवशेषों की प्राप्ति हुई, जिनसे भारतीय संस्कृति के प्रसार का परिचय प्राप्त होता है। वहाँ के शासक का राज्याभिषेक वर्तमान काल में भी ब्राह्मण पुरोहित द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है।
चम्पा
वर्तमान ‘अनाम’ का अधिकांश भाग इस क्षेत्र में समाहित था। इसका विस्तार 140 से 100 उत्तरी देशान्तर के बीच में था। हिन्दचीन में भारतीयों का सर्वाधिक प्राचीन उपनिवेश 'चम्पा' था। ईसवी सन् से पूर्व ही भारतवासी इस देश में प्रविष्ट हो चुके थे। उस काल मे चम्पा राज्य सुख, वैभव और समृद्धि से भरपूर अनेक नगरों तथा अति सुन्दर हिन्दू व बौद्ध मन्दिरों से सुशोभित था। वहाँ के ‘मिसांग’ और ‘डांग डुआंग’ नाग के दो नगर आज भी दर्शनीय मन्दिरों के लिए प्रसिद्ध हैं। यहाँ के हिन्दू निवासी हिन्दू देवी-देवताओं की उपासना करते थे। चम्पा की वास्तुकला और तक्षण-कला सर्वश्रेष्ठ थी। इस राज्य में संस्कृत भाषा और हिन्दू धर्म तथा संस्कृति का व्यापक प्रसार था। मंगोलों और अनामियों के भीषण आक्रमणों ने सोलहवीं सदी में भारत के इस औपनिवेशिक राज्य का अन्त कर दिया। चम्पापुरी के वर्तमान अवशेषों में यहाँ के प्राचीन भारतीय धर्म व संस्कृति की सुन्दर झलक मिलती है।
कम्बुज
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कम्बोडिया को प्राचीन काल में 'कम्बुज' कहा जाता था। कम्बुज नामक अन्य हिन्दू राज्य 'मेकांग नदी' की घाटी में स्थापित किया गया था। भारतीयों के निरन्तर परिश्रम के फलस्वरूप इस राज्य का अत्यधिक उत्कर्ष हुआ। यहाँ उपलब्ध अभिलेखों से सिद्ध होता है कि यह राज्य हिन्दू धर्म के क्रिया-कलापों एवं नियमों का अनुसरण करते हुए, आठवीं शताब्दी में संस्कृति के उच्चतम स्तर पर पहुँच गया था। यहाँ का ‘अंगकोरवाट का विष्णु मन्दिर' 12वीं शताब्दी में यहाँ के शासक 'सूर्यवर्मन' द्वारा निर्मित कराया गया था। यह इस संसार का सर्वाधिक विशाल एवं अदभुत मन्दिर माना जाता है। यह मन्दिर भारतीय वास्तुकला एवं तक्षण-कला का सर्वश्रेष्ठ प्रतिरूप है। इसके शिल्प की सूक्ष्म विदग्धता, नक्शे की सममिति, यथार्थ अनुपात तथा सुन्दर अलंकृत मूर्तिकारी भी उत्कृष्ट कला की दृष्टि से प्रशंसनीय है।
मलाया द्वीप समूह
आधुनिक मलाया द्वीप प्राचीनकाल में ‘स्वर्णद्वीप’ कहा जाता था और इसमें जावा, सुमात्रा, बाली, बोर्नियो आदि भारतीय कला और संस्कृति के केन्द्र बन चुके अनेक द्वीप थे। यहाँ पर पहले ब्राह्मण रहते थे, जिनके पूर्वज भारत से मलाया आए थे। तत्पश्चात् यहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ। विभिन्न स्रोतों से पता चलता है कि इन द्वीपों में से दो पर हिन्दू शासकों ने शासन किया था। इनके समस्त शासन काल में भारतीय सभ्यता, संस्कृति और कला का प्रभाव इतना गहरा पड़ा था कि आज भी उनके प्रमाण इतने उत्कृष्ट रूप में मिलते हैं कि कोई भी भारतीय, भारत के औपनिवेशिक और सांस्कृतिक प्रसार की भारतीय इतिहास की सर्वाधिक दिव्य, परन्तु विस्मृत कथा पर न्यायोचित गर्व कर सकता है।
जावा
जावा भी ईसा की प्रथम शती में भारतीयों का उपनिवेश बन चुका था। गुजरात के 'राजकुमार विजय' ने सर्वप्रथम इस देश में भारतीय उपनिवेश की स्थापना की थी। जावा को तब 'यवद्वीप' कहा जाता था। इसका श्रेय व्याघ्र, पाण्ड और पाराशर को दिया जाता है। वर्तमान उड़ीसा और प्राचीन कलिंग के लोग यहाँ सर्वप्रथम आये थे। चौथी और आठवीं शताब्दी के बीच जावा में अनेक हिन्दू राज्यों की स्थापना हुई। यहाँ के शासक वर्मन कहलाते थे, जिसका अर्थ है रक्षक। चीनी यात्री फाह्यान भी यहाँ पर लगभग एक माह तक रहा था। उस समय बौद्ध धर्म यहाँ का मुख्य धर्म बन चुका था। नवीं शताब्दी तक जावा शैलेन्द्र साम्राज्य का अंग रहा। तत्पश्चात् विविध मतावलम्बी, यथा - शैव, वैष्णव आदि शासक रहे। इनके काल में जावा व्यापार और भारतीय कला एवं साहित्य का केन्द्र हो गया था। इस काल के अनेक ध्वस्त हिन्दू एवं बौद्ध मन्दिर, विहार और स्थापत्य कला के अनुपम उदाहरण अत्यधिक संख्या में यहाँ प्राप्त हुए हैं।
बोर्नियो
यहाँ भी हिन्दू उपनिवेश ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी में स्थापित किया जा चुका था। यहाँ भारतीय संस्कृति और सभ्यता का गहन प्रभाव पड़ा था। इस द्वीप में काष्ठ निर्मित कलापूर्ण मन्दिर के अवशेष उपलब्ध हुए हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि यहाँ के शासक वैदिक यज्ञों और विधि विधान में आस्था रखते थे। बोर्नियो में पौराणिक धर्म और बौद्ध धर्म दोनों ही प्रचलित रहे। यहाँ की स्थापत्य कला और मूर्तिकला भी मूलत: भारतीय प्रभाव में थी।
बाली
इस द्वीप का नाम पुराणों में प्रसिद्ध 'पाताल देश' के राजा बलि के नाम पर है। यह द्वीप भी प्राचीनकाल में हिन्दू शासन के अन्तर्गत एक प्रख्यात उपनिवेश था। छठी शताब्दी में यहाँ बौद्ध धर्म पूर्णत: विकसित था। चीनी विवरणों से पता चलता है कि छठी शताब्दी में यहाँ 'कौण्डिन्य वंश' के हिन्दू राजा शासन करते थे और दसवीं शताब्दी में 'उग्रसेन' तथा 'केसरी' आदि हिन्दू राजाओं ने शासन किया। यहाँ के शासकों का चीन के साथ राजनीतिक सम्पर्क था। जावा के हिन्दू शासक भी मुसलमानों के आक्रमणों से सुरक्षा पाने के लिए इस द्वीप में चले आए थे। यहाँ के समुदाय के अधिकांश लोग वर्तमान काल में हिन्दू धर्म के संस्कारों, विधि-विधान का पालन करते हुए भारतीय संस्कृति को अपनाये हुए हैं।
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