ओडिशा की संस्कृति

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[[चित्र:Pata-Chitra-Orissa.jpg|thumb|पट्ट चित्रकला, ओडिशा]]

ओडिशा की समृद्ध कलात्मक विरासत है और इसने भारतीय कला एवं वास्तुशिल्प के सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों का सृजन किया है। भित्तिचित्रों पत्थर व लकड़ी पर नक़्क़ाशी देव चित्र (पट्ट चित्रकला के नाम से विख्यात) और ताड़पत्रों पर चित्रकारी के माध्यम से कलात्मक परंपराएं आज भी क़ायम हैं। हस्तशिल्प कलाकार चांदी में बेहद महीन जाली की कटाई की अलंकृत शिल्प कला के लिए विख्यात हैं।

नृत्य

जनजातीय इलाकों में कई प्रकार के लोकनृत्य है। मादल व बांसुरी का संगीत गांवो में आम है। ओडिशा का शास्त्रीय नृत्य ओडिसा 700 वर्षों से भी अधिक समय से अस्तित्व में है। मूलत: यह ईश्वर के लिए किया जाने वाला मंदिर नृत्य था। नृत्य के प्रकार, गति, मुद्राएं और भाव-भंगिमाएं बड़े मंदिरों की दीवारों पर, विशेषकर कोणार्क में शिल्प व उभरी हुई नक़्क़ासी के रूप में अंकित हैं, इस नृत्य के आधुनिक प्रवर्तकों ने इसे राज्य के बाहर भी लोकप्रिय बनाया है। मयूरभंज और सरायकेला प्रदेशों का छऊ नृत्य (मुखौटे पहने कलाकारों द्वारा किया जाने वाला नृत्य) ओडिशा की संस्कृति की एक अन्य धरोहर है। 1952 में कटक में कला विकास केंद्र की स्थापना की गई, जिसमें नृत्य व संगीत के प्रोत्साहन के लिए एक छह वर्षीय अवधि का शिक्षण पाठयक्रम है। नेशनल म्यूजिक एसोसिएशन (राष्ट्रीय संगीत समिति) भी इस उद्देश्य के लिए है। कटक में अन्य प्रसिद्ध नृत्य व संगीत केन्द्र है: उत्कल संगीत समाज, उत्कल स्मृति कला मंडप और मुक्ति कला मंदिर।

त्योहार

ओडिशा के अनेक अपने पारंपरिक त्योहार हैं। इसका एक अनोखा त्योहार अक्टूबर या नवंबर (तिथि हिंदू पंचांग के अनुसार तय की जाती है) में मनाया जाने वाला बोइता बंदना (नौकाओं की पूजा) अनुष्ठा है। पूर्णिमा से पहले लगातार पांच दिनों तक लोग नदी किनारों या समुद्र तटों पर एकत्र होते हैं और छोटे-छोटे नौका रूप तैराते हैं। जो इसका प्रतीक है कि वे भी अपने पूर्वजों की तरह सुदूर स्थानों (मलेशिया, इंडोनेशिया) की यात्रा पर निकलेंगे। पुरी में जगन्नाथ (ब्रह्मांड का स्वामी) मंदिर है, जो भारत के सर्वाधिक प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। यहाँ होने वाली वार्षिक रथयात्रा लाखों लोगों को आकृष्ट करती है। यहाँ से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर भगवान सूर्य के रथ के आकार में बना कोणार्क मंदिर है। यह मंदिर मध्यकालीन उड़िया संस्कृति के उत्कृष्ट उदाहरणों में से एक है।

उड़ीसा के मंदिर

उड़ीसा में आठवीं सदी से तेरहवीं सदी के मध्य तक बने मंदिर भारतीय-आर्य वास्तुकला के आरंभिक रूप की झलक प्रस्तुत करते हैं। भुवनेश्वर में अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ, जिससे इसे 'मंदिरों का शहर' नाम दिया गया। इनमें सबसे विलक्षण शिव को समर्पित लिंगराज मन्दिर है। गर्भगृह के ऊपर बने विसाल शिखर का परवलयिक वक्र इस शैली का विशिष्ट उदाहरण है। यह मनंदिर चार कक्षों की श्रंखला के रूप में पूजा-अर्चना, नृत्य, सभा और गर्भगृह के लिए बनाया गया है।

भुवनेश्वर में एक अपेक्षाकृत छोटा किंतु अत्यंत सुंदर मुक्तेश्वर मंदिर है। इसे प्राय: उड़ीसा की वास्तुकला का रत्न कहा जाता है। इस मंदिर का महत्व केवल इसके सौंदर्य और वास्तुकला की सर्वांग संपूर्णता में ही निहित नहीं है, वरन् यह उड़ीसा वास्तुकला के विकासक्रम में आरंभिक और परवर्ती निर्माण शैलोयों का महत्त्वपूर्ण संक्रमण बिंदु भी है।

पुरी के निकट स्थित कोणार्क के सूर्य मंदिर को 'ब्लैक पगोडा' भी कहा जाता है। यह उत्तर भारत के विशाल हिंदू मंदिरों में सबसे प्रमुख और अंतिम है। इसे उड़ीसा मूर्तिकरों द्वारा वास्तुकला के सर्वांग विधानों के साथ अलंकृत मूर्तिकला के सामंजस्य प्रयासों के भव्य और गौरवशाली चरमोत्कर्ष के रूप में देखा जा सकता है। सम्राट नरसिंह देव (1238-64) ई. द्वारा बनवाया गया यह मंदिर सुसज्जित अश्वों द्वारा खींचे जाने वाले और विशाल पहियों वाले सूर्य देव के आकाशरथ की परिकल्पना पर आधारित है। पीठिका मंच और प्रमुख कक्ष के अग्रभाग उत्कीर्णिक चित्रवल्लरियों से सुसज्जित है। जिनमें पृथ्वी पर जीवन के आनंद और सूर्य की ऊर्जा प्रदायी शक्ति-अर्क को प्रतिबिम्बित किया गया है। कोणार्क में उत्कीर्णिक दृश्यों में प्रेमरत युगल या मिथुन हैं। हालांकि इन असंख्य दृश्यों को अज्ञात शिल्पियों ने बनाया है, ये नक्काशियां भारतीय कला के सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों में गिनी जा सकती हैं और इनसे साफ़ पता चलता है उस समय भारत में तकनीकी प्रदर्शन और कलात्मक उत्प्रेरण का कितना उच्च स्तर रहा होगा। दुर्भाग्यवश, यह मंदिर पूरा न हो सका और इस समय वह खंडहर की स्थिति में पड़ा है।

पुरी का जगन्नाथ मंदिर तथा राजा-रानी का मंदिर उड़ीसा वास्तुशैली के उत्कृष्ट नमूने हैं।

सामान्यत: उड़ीसा के मंदिरों में स्तंभ नहीं होता और उनकी छतों को आंशिक रूप से लोहे के गार्डरों पर टिकाया जाता था- यह एक महत्त्वपूर्ण तकनीकी नवीनता थी। इन मंदिरों का बाह्म भाग तो बड़ी भव्यता से सजाया गया है, लेकिन आंतरिक भाग को असज्जित ही छोड़ दिया गया।


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