विस्काउंट पामर्स्टन

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thumb|200px|विस्काउंट पामर्स्टन विस्काउंट पामर्स्टन (अंग्रेज़ी: Viscount Palmerston, जन्म- 20 अक्टूबर, 1784; मृत्यु- 18 अक्टूबर, 1865) 19वीं शताब्दी के मध्य में दो बार प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करने वाले एक ब्रिटिश राजनेता थे। 1830 से 1865 की अवधि के दौरान विस्काउंट पामर्स्टन ब्रिटिश विदेश नीति पर हावी थे, जब ब्रिटेन अपनी शाही शक्ति की ऊंचाई पर था।

भारत के प्रति दृष्टिकोण

सन 1857 ई. में इंग्लैण्ड में आम चुनाव हुए थे और लॉर्ड पामर्स्टन वहाँ के प्रधानमंत्री बन गये। 12 फ़रवरी, 1858 ई. को लॉर्ड पामर्स्टन ने हाउस ऑफ कॉमन्स में एक विधेयक प्रस्तुत किया। इसमें उसने द्वैध शासन प्रणाली के दोषों पर जोर दिया और ईस्ट इण्डिया कम्पनी का अन्त कर भारतीय प्रदेशों का शासन प्रबन्ध इंग्लैण्ड की सरकार के हाथों में हस्तान्तरित करने का प्रस्ताव लाया। उसने हाउस ऑफ कॉमन्स में अपना एक प्रसिद्ध भाषण देते हुए कहा कि- हमारी राजनीतिक व्यवस्था का सिद्धान्त है कि सभी प्रशासकीय कार्यों को मंत्रीमण्डल उत्तरदायित्त्व से जुड़ा होना चाहिए, जिसका अर्थ है संसद से जनमत तथा क्राउन के प्रति उत्तरदायित्त्व? लेकिन इस मामें (कम्पनी के मामले में) में भारत सरकार के प्रमुख कार्यों का उत्तरदायित्त्व उस संस्था पर है, जो न तो संसद के प्रति उत्तरदायी है और न क्राउन के द्वारा नियुक्त, बल्कि उन लोगों द्वारा निर्वाचित होती है, जिनका भारत से केवल इतना ही सम्बन्ध है कि कुछ पूँजी में उनका साझा है।

पामर्स्टन ने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया कि- इतना विशाल और बड़ी जनसंख्या वाला भारत जैसा देश जान-बूझकर एक शासपत्रित कम्पनी के देख-रेख और प्रबन्ध में रखा जाये। इसलिए उसने प्रस्ताव रखा कि संचालक मण्डल और स्वामी मण्डल को समाप्त कर दिया जाये और उसके स्थान पर एक-एक प्रेसीडेंट की नियुक्ति की जाये, जो सरकार का सदस्य और मंत्रिमण्डल का अंग हो। प्रेसीडेंट की सहायता के लिए एक परिषद् की व्यवस्था की जाये। इस परिषद् में 8 सदस्य होंगे, जिनकी नियुक्ति इंग्लैण्ड के सम्राट के द्वारा की जायेगी। इनमें से प्रत्येक दो सदस्य दो वर्ष बाद अवकाश ग्रहण करेंगे और उनकी जगह नये सदस्यों का चुनाव किया जायेगा। केवल वही व्यक्ति परिषद् के सदस्य चुने जा सकते थे, जो या तो ईस्ट इण्डि्या कम्पनी के निदेशक रह चुके हों या तो एक निश्चित अवधि तक सैनिक या असैनिक के रूप में भारत में सेवा कर चुके हों या जो कुछ निश्चति वर्षों तक स्थानीय शासन से सम्बन्धित होकर भारत में रहे हों।

जे.एस. मिल का तर्क

जे.एस. मिल ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पक्ष में तर्क प्रस्तुत करते हुए कहा कि- "पार्लियामेंट का नियंत्रण संचालक मण्डल की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली सिद्ध नहीं हो सकता।" उसका कहना था कि "संचालक मण्डल के सदस्य अनुभवी राजनीतिज्ञ होते हैं, जो निर्दलीय होने के कारण अपने कर्तव्यों का पालन निष्पक्ष रूप से करते हैं।" इसलिए उसने इस बात की वकालत की कि कम्पनी का प्रशासन सम्राट के किसी मंत्री को हस्तान्तरित न किया जाये।

लॉर्ड पालर्स्टन मिल के तर्कों से सहमत नहीं हुआ। उसने लोकसभा में इन तर्कों का निःसंकोच रूप से उत्तर देते हुए कहा कि- संसद एक उत्तरदायी संस्था है और अब यह अतीत की भाँति प्रभाव शून्य भी नहीं है। प्रशासन के वे सारे सुधार जिन पर कम्पनी गर्व करती है, सब पार्लियामेंट के सदस्यों द्वारा किये गये हैं। उसका कहना था कि- भारतीय शासन की वर्तमान व्यवस्था में एकता, कुशलता और उत्तरदायित्त्व की भावना का अभाव है, जिन्हें संसदीय नियंत्रण के द्वारा ही लाया जा सकता है। मंत्रिमण्डल का शीघ्र ही पतन होने से पामर्स्टन द्वारा प्रस्तुत विधेयक उसके कार्यकाल में पारित नहीं हो सका।

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