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| पेज सी-3
| | {{Navbox |
| ==प्राचीन भारतीय इतिहास के स्त्रोत== | | |name=सिक्किम के मुख्यमंत्री |
| {{tocright}}
| | |title =[[सिक्किम के मुख्यमंत्री]] |
| भारतीय इतिहास जानने के स्त्रोत को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता हैं -
| | |titlestyle =background:#bbe9d2; |
| #साहित्यिक साक्ष्य
| | |groupstyle =background:#bbe9d2; |
| #विदेशी यात्रियों का विवरण
| | |liststyle =padding-left:5px; padding-right:5px;background:#e9fef4 |
| #पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य | | |listpadding=0.5em 0em; |
| ====साहित्यिक साक्ष्य==== | | |image= |
| साहित्यिक साक्ष्य के अन्तर्गत साहित्यिक ग्रन्थों से प्राप्त ऐतिहासिक वस्तुओं का अध्ययन किया जाता है। साहित्यिक साक्ष्य को दो भागों में विभाजित किया जाता सकता है-
| | |imagestyle=background:#f7ffed |
| #धार्मिक साहित्य
| | |imageleft = |
| #लौकिक साहित्य।
| | |imageleftstyle= |
| धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेत्तर साहित्य की चर्चा की जाती है।
| | |style = |
| *ब्राह्मण ग्रन्थों में -
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| #[[वेद]],
| | |navbar= |
| #[[उपनिषद]],
| | |above= |
| #[[रामायण]],
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| #[[महाभारत]],
| | |state=<includeonly>uncollapsed</includeonly> |
| #[[पुराण]]
| | |oddstyle= |
| #[[स्मृतियाँ|स्मृति ग्रन्थ]] आते हैं।
| | |evenstyle= |
| *ब्राह्मणेत्तर ग्रन्थों में [[जैन]] तथा [[बौद्ध]] ग्रन्थों को सम्मिलित किया जाता है। <br />
| | |group1 = |
| | |group1style= |
| | |list1 =[[काजी लेन्डुप दोरजी]] '''·''' [[नर बहादुर भंडारी]] '''·''' [[बी॰ बी॰ गुरुंग]] '''·''' [[संचमान लिम्बू]] '''·''' [[पवन कुमार चामलिंग]] |
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| | }}<noinclude>[[Category:गणराज्य संबंधित साँचे]]</noinclude> |
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|
| लौकिक साहित्य के अन्तर्गत ऐतिहासिक ग्रन्थ, जीवनी, कल्पना-प्रधान तथा गल्प साहित्य का वर्णन किया जाता है।<br />
| | ======================= |
| | | {| width="70%" cellpadding=2 cellspacing=2 class="bharattable-purple" |
| '''धर्म-ग्रन्थ'''<br />
| | |+[[सिक्किम]] के [[मुख्यमंत्री|मुख्यमंत्रियों]] की सूची |
| | | ! '''क्रमांक''' |
| प्राचीन काल से ही [[भारत]] के धर्म प्रधान देश होने के कारण यहां प्रायः तीन धार्मिक धारायें- वैदिक, जैन एवं बौद्ध प्रवाहित हुईं। वैदिक धर्म ग्रन्थ को ब्राह्मण धर्म ग्रन्थ भी कहा जाता है।<br />
| | ! '''नाम''' |
| | | ! '''पदभार ग्रहण''' |
| '''ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ'''<br /> | | ! '''पदमुक्ति''' |
| | | ! '''दल / पार्टी''' |
| '''ब्राह्मण धर्म''' - ग्रंथ के अन्तर्गत वेद, उपनिषद्, महाकाव्य तथा स्मृति ग्रंथों को शामिल किया जाता है।<br /> | | !कार्यकाल अवधि |
| | |
| '''वेद'''<br /> | |
| {{main|वेद}}
| |
| | |
| वेद एक महत्वपूर्ण ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ है। वेद शब्द का अर्थ ‘ज्ञान‘ महतज्ञान अर्थात ‘पवित्र एवं आध्यात्मिक ज्ञान‘ है। यह शब्द [[संस्कृत]] के ‘विद्‘ धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना। वेदों के संकलनकर्ता 'कृष्ण द्वैपायन' थे। कृष्ण द्वैपायन को वेदों के पृथक्करण-व्यास के कारण 'वेदव्यास' की संज्ञा प्राप्त हुई। वेदों से ही हमें आर्यो के विषय में प्रारम्भिक जानकारी मिलती है। कुछ लोग वेदों को अपौरूषेय अर्थात दैवकृत मानते है। वेदों की कुल संख्या चार है-
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| #[[ऋग्वेद]],
| |
| #[[सामवेद]],
| |
| #[[यजुर्वेद]]
| |
| #[[अथर्ववेद]]।
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| {| class="wikitable"
| |
| |-
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| !वेद | |
| !विषय वस्तु
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| |-
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| | style="width:30%"|
| |
| 1- ऋग्वेद
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| | style="width:70%"|
| |
| यह ऋचाओं का संग्रह है।
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| |style="width:30%"|
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| |-
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| |2- सामवेद
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| यह गीति/रूप मंत्रों का संग्रह है और इसके अधिकांश गीत ऋग्वेद से लिए गए हैं।
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| |-
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| |3- यजुर्वेद
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| |
| इसमें यागानुष्ठान के लिए विनियोग वाक्यों का समावेश है।
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| |-
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| |4- अथर्ववेद
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| |
| यह तंत्र-मंत्रों का संग्रह है।
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| |-
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| |}
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| | |
| | |
| *ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद, इन चारों वेदों को 'संहिता' कहा जाता है।
| |
| *इनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद के सम्मिलित संग्रह को 'वेदत्रयी' कहा जाता है।
| |
| *उपर्युक्त चारों वेदों में से प्रत्येक के एक-एक उपवेद भी है।
| |
| *ऋग्वेद का उपवेद 'आयुर्वेद' है, सामवेद का उपवेद 'गन्धर्ववेद' है, जो संगीत से संबद्व है।
| |
| *यजुर्वेद का उपवेद 'धनुर्वेद' है, जो युद्व कलाओं का वर्णन करता है।
| |
| *अथर्ववेद का उपवेद 'शिल्पवेद' है।
| |
| *इसमें सबसे महत्वपूर्ण उपवेद है 'आयुर्वेद' है।
| |
| *इसके आठ भाग हैं- शल्य, शालक्य, काय-चिकित्सा, भूत विद्या, कुमारभृत्य, अंगदतन्त्र, रसायन और वाजीकरण।
| |
| *एक मान्यता के अनुसार आयुर्वेद के जन्मदाता प्रजापति ([[ब्रह्मा]]), धनुर्वेद के जन्मदाता [[विश्वामित्र]], गन्धर्व के जन्मदाता [[नारद]] तथा शिल्पवेद के जन्मदाता [[विश्वकर्मा]] थे।
| |
| *इन ग्रन्थों से प्राचीन भारत में प्रचलित विभिन्न विधाओं का ज्ञान होता है।
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| ====वेद एवं उनके उपवेद तथा प्रवर्तक====
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| {| class="wikitable"
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| |-
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| !वेद | |
| !उपवेद
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| !प्रवर्तक
| |
| |-
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| | style="width:30%"|
| |
| 1- [[ऋग्वेद]]
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| | style="width:40%"|
| |
| आयुर्वेद -1.शल्य, 2.शाल्यक, 3.काय चिकित्सा 4.भूतविद्या, 5.कुमार भृत्य, 6.अंगद तन्त्र, 7.रसायन, 8.वाजीकरण।
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| |style="width:30%"|
| |
| [[ब्रह्मा]]
| |
| |-
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| |2- [[सामवेद]]
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| |
| गंधर्ववेद (संगीत कला)
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| [[नारद]]
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| |-
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| |3- [[यजुर्वेद]]
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| धनुर्ववेद (युद्व कला)
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| [[विश्वामित्र]]
| |
| |-
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| |4- [[अथर्ववेद]]
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| शिल्पवेद (भवन निर्माण कला )
| |
| |
| |
| [[विश्वकर्मा]]
| |
| |- | | |- |
| |} | | | 1 |
| | | | [[काजी लेन्डुप दोरजी]] |
| ====ब्राह्मण ग्रंथ====
| | | 16 मई 1975 |
| {{main|ब्राह्मण साहित्य}}
| | | 18 अगस्त 1979 |
| [[यज्ञ|यज्ञों]] एवं कर्मकाण्डों के विधान एवं इनकी क्रियाओं को भली-भांति समझने के लिए ही इस ब्राह्मण ग्रंथ की रचना हुई। यहां पर 'ब्रह्म' का शाब्दिक अर्थ हैं- यज्ञ अर्थात यज्ञ के विषयों का अच्छी तरह से प्रतिपादन करने वाले ग्रंथ ही 'ब्राह्मण ग्रंथ' कहे गये। ब्राह्मण ग्रन्थों में सर्वथा यज्ञों की वैज्ञानिक, अधिभौतिक तथा अध्यात्मिक मीमांसा प्रस्तुत की गयी है। यह ग्रंथ अधिकतर गद्य में लिखे हुए हैं। इनमें उत्तरकालीन समाज तथा संस्कृति के सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त होता है। प्रत्येक वेद (संहिता) के अपने-अपने ब्राह्मण होते हैं, जैसे- | | | [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] |
| {| class="wikitable"
| | | 1555 दिन |
| |- | | |- |
| !वेद | | ! colspan="2"| राष्ट्रपति शासन (18 अगस्त 1979 से 18 अक्टूबर 1979 तक) |
| !सम्बन्धित ब्राह्मण
| |
| |- | | |- |
| | style="width:30%"| | | | 3 |
| 1- ऋग्वेद
| | | [[नर बहादुर भंडारी]] |
| | style="width:70%"| | | | 18 अक्टूबर 1979 |
| [[ऐतरेय ब्राह्मण|ऐतरेय ब्राह्मण]], [[शांखायन ब्राह्मण|शांखायन या कौषीतकि ब्राह्मण]]
| | | 11 मई 1984 |
| | | सिक्किम जनता परिषद |
| | |1668 दिन |
| |- | | |- |
| |2- शुक्ल यजुर्वेद | | | 4 |
| | | | | [[बी॰ बी॰ गुरुंग]] |
| [[शतपथ ब्राह्मण|शतपथ ब्राह्मण]] | | | 11 मई 1984 |
| | | 25 मई 1984 |
| | | [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] |
| | | 14 दिन |
| |- | | |- |
| |3- कृष्ण यजुर्वेद | | ! colspan="5"| राष्ट्रपति शासन (25 मई 1984 से 8 मार्च 1985 तक) |
| |
| |
| [[तैत्तिरीय ब्राह्मण|तैत्तिरीय ब्राह्मण]]
| |
| |- | | |- |
| |4- सामवेद | | | 6 |
| | | | | [[नर बहादुर भंडारी]] |
| [[ताण्ड्य ब्राह्मण|पंचविंश या ताण्ड्य ब्राह्मण]], [[षडविंश ब्राह्मण]], [[सामविधान ब्राह्मण]], [[वंश ब्राह्मण]], मंत्र ब्राह्मण, [[जैमिनीय ब्राह्मण|जैमिनीय ब्राह्मण]] | | | 8 मार्च 1985 |
| | | 17 जून 1994 |
| | | सिक्किम संग्राम परिषद |
| | |3389 दिन [कुल 5057 दिन] |
| |- | | |- |
| |5- अथर्ववेद | | | 7 |
| | | | | [[संचमान लिम्बू]] |
| [[गोपथ ब्राह्मण]] | | | 17 जून 1994 |
| | | 12 दिसम्बर 1994 |
| | | सिक्किम संग्राम परिषद |
| | | 179 दिन |
| |- | | |- |
| | | 8 |
| | | [[पवन कुमार चामलिंग]] |
| | | 12 दिसम्बर 1994 |
| | | पदस्थ |
| | | [[सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट]] |
| | | 8683 दिन |
| |} | | |} |
| | | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
| | | <references/> |
| | | ==बाहरी कडियाँ== |
| ==आरण्यक== | | *[http://assamassembly.nic.in/cm-list.html असम के मुख्यमंत्रियों की सूची (आधिकारिक वेबसाइट)] |
| {{main|आरण्यक साहित्य}}
| | ==संबंधित लेख== |
| आरयण्कों में दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों यथा, आत्मा, मृत्यु, जीवन आदि का वर्णन होता है। इन ग्रंथों को आरयण्क इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन ग्रंथों का मनन अरण्य अर्थात वन में किया जाता था। ये ग्रन्थ अरण्यों (जंगलों) में निवास करने वाले संन्यासियों के मार्गदर्शन के लिए लिखे गए थै। आरण्यकों में ऐतरेय आरण्यक, शांखायन्त आरण्यक, बृहदारण्यक, मैत्रायणी उपनिषद आरण्यक तथा तवलकार आरण्यक (इसे जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण भी कहते हैं) मुख्य हैं। ऐतरेय तथा शांखायन ऋग्वेद से, बृहदारण्यक शुक्ल यजुर्वेद से, मैत्रायणी उपनिषद आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद से तथा तवलकार आरण्यक सामवेद से सम्बद्ध हैं। अथर्ववेद का कोई आरण्यक उपलब्ध नहीं है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राण विद्या की महिमा का प्रतिपादन विशेष रूप से मिलता है। इनमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी हैं, जैसे- तैत्तिरीय आरण्यक में [[कुरु]], [[पंचाल]], [[काशी]], [[विदेह]] आदि [[महाजनपद|महाजनपदों]] का उल्लेख है।
| | {{भारतीय राज्यों के मुख्यमंत्री}} |
| ====वेद एवं संबधित आरयण्क====
| | [[Category:भारतीय राज्यों के मुख्यमंत्रियों की सूची]] |
| {| class="wikitable"
| | [[Category:चुनाव अद्यतन]] |
| |-
| | [[Category:सिक्किम]] |
| !वेद
| | [[Category:सिक्किम के मुख्यमंत्री]] |
| !सम्बन्धित आरण्यक
| | [[Category:राजनीति कोश]] |
| |-
| | [[Category:गणराज्य संरचना कोश]] |
| | style="width:30%"|
| |
| 1- [[ऋग्वेद]]
| |
| | style="width:70%"|
| |
| [[ऐतरेय आरण्यक|ऐतरेय आरण्यक]], [[शांखायन आरण्यक|शांखायन आरण्यक या कौषीतकि आरण्यक]]
| |
| |-
| |
| |2- [[यजुर्वेद]]
| |
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| |
| [[बृहद आरण्यक|बृहदारण्यक]], मैत्रायणी, [[तैत्तिरीय आरण्यक|तैत्तिरीयारण्यक]]
| |
| |-
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| |3- [[सामवेद]]
| |
| |
| |
| [[जैमिनिशाखीय ब्राह्मण|जैमनीयोपनिषद]] या [[तलवकार आरण्यक|तवलकार आरण्यक]]
| |
| |-
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| |4- [[अथर्ववेद]]
| |
| |
| |
| कोई आरण्यक नहीं
| |
| |-
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| |}
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| | |
| ==उपनिषद==
| |
| {{main|उपनिषद}}
| |
| उपनिषदों की कुल संख्या 108 है। प्रमुख उपनिषद हैं- ईश, केन, कठ, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक, कौषीतकि, मुण्डक, प्रश्न, मैत्राणीय आदि। लेकिन शंकराचार्य ने जिन 10 उपनिषदों पर स्पना भाष्य लिखा है, उनको प्रमाणिक माना गया है।ये हैं - ईश, केन, माण्डूक्य, मुण्डक, तैत्तिरीय, ऐतरेय, प्रश्न, छान्दोग्य और बृहदारण्यक उपनिषद। इसके अतिरिक्त श्वेताश्वतर और कौषीतकि उपनिषद भी महत्वपूर्ण हैं। इस प्रकार 103 उपनिषदों में से केवल 13 उपनिषदों को ही प्रामाणिक माना गया है। भारत का प्रसिद्ध आदर्श वाक्य 'सत्यमेव जयते' मुण्डोपनिषद से लिया गया है। उपनिषद गद्य और पद्य दोनों में हैं, जिसमें [[प्रश्नोपनिषद|प्रश्न]], [[माण्डूक्योपनिषद|माण्डूक्य]], [[केनोपनिषद|केन]], [[तैत्तिरीयोपनिषद|तैत्तिरीय]], [[ऐतरेयोपनिषद|ऐतरेय]], [[छान्दोग्य उपनिषद|छान्दोग्य]], [[बृहदारण्यकोपनिषद|बृहदारण्यक]] और [[कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद|कौषीतकि उपनिषद]] गद्य में हैं तथा [[केनोपनिषद|केन]], [[ईशावास्योपनिषद|ईश]], [[कठोपनिषद|कठ]] और [[श्वेताश्वतरोपनिषद|श्वेताश्वतर उपनिषद]] पद्य में हैं।
| |
| ====वेद एवं सम्बंधित उपनिषद====
| |
| {| class="wikitable"
| |
| |-
| |
| !वेद
| |
| !सम्बन्धित उपनिषद
| |
| |-
| |
| | style="width:30%"|
| |
| 1- [[ऋग्वेद]]
| |
| | style="width:70%"|
| |
| [[ऐतरेयोपनिषद]]
| |
| |-
| |
| |2- [[यजुर्वेद]]
| |
| |
| |
| [[बृहदारण्यकोपनिषद]]
| |
| |-
| |
| |3- [[यजुर्वेद|शुक्ल यजुर्वेद]]
| |
| |
| |
| [[ईशावास्योपनिषद]]
| |
| |-
| |
| |4- [[यजुर्वेद|कृष्ण यजुर्वेद]]
| |
| |
| |
| [[तैत्तिरीयोपनिषद]], [[कठोपनिषद]], [[श्वेताश्वतरोपनिषद]], [[मैत्रायणी उपनिषद]]
| |
| |-
| |
| |5- [[सामवेद]]
| |
| |
| |
| [[वाष्कल उपनिषद]], [[छान्दोग्य उपनिषद]], [[केनोपनिषद]]
| |
| |-
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| |6- [[अथर्ववेद]]
| |
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| |
| [[माण्डूक्योपनिषद]], [[प्रश्नोपनिषद]], [[मुण्डकोपनिषद]]
| |
| |-
| |
| |}
| |
| | |
| ==वेदांग==
| |
| {{main|वेदांग}}
| |
| वेदों के अर्थ को अच्छी तरह समझने में वेदांग काफी सहायक होते हैं। वेदांग शब्द से अभिप्राय है- 'जिसके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को समझने में सहायता मिले'। वेदांगो की कुल संख्या 6 है, जो इस प्रकार है-
| |
| | |
| #शिक्षा - वैदिक वाक्यों के स्पष्ट उच्चारण हेतु इसका निर्माण हुआ। वैदिक शिक्षा सम्बंधी प्राचीनतम साहित्य 'प्रातिशाख्य' है।
| |
| #कल्प - वैदिक कर्मकाण्डों को सम्पन्न करवाने के लिए निश्चित किए गये विधि नियमों का प्रतिपादन '[[कल्पसूत्र]]' में किया गया है।
| |
| #व्याकरण - इसके अन्तर्गत समासों एवं सन्धि आदि के नियम, नामों एवं धातुओं की रचना, उपसर्ग एवं प्रत्यय के प्रयोग आदि के नियम बताये गये हैं। [[पाणिनि]] की [[अष्टाध्यायी]] प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ है।
| |
| #निरूक्त - शब्दों की व्युत्पत्ति एवं निर्वचन बतलाने वाले शास्त्र 'निरूक्त' कहलातें है। क्लिष्ट वैदिक शब्दों के संकलन ‘निघण्टु‘ की व्याख्या हेतु [[यास्क]] ने 'निरूक्त' की रचना की थी, जो भाषा शास्त्र का प्रथम ग्रंथ माना जाता है।
| |
| #छन्द - वैदिक साहित्य में मुख्य रूप से गायत्री, त्रिष्टुप, जगती, वृहती आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। पिंगल का छन्दशास्त्र प्रसिद्ध है।
| |
| #ज्योतिष - इसमें ज्योतिष शास्त्र के विकास को दिखाया गया है। इसकें प्राचीनतम आचार्य 'लगध मुनि' है।
| |
| ब्राह्मण ग्रन्थों में धर्मशास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है।
| |
| *धर्मशास्त्र में चार साहित्य आते हैं- 1- धर्म सूत्र, 2- स्मृति, 3- टीका एवं 4- निबन्ध । | |
| | |
| ==स्मृतियां==
| |
| {{main|स्मृतियाँ}}
| |
| स्मृतियों को 'धर्म शास्त्र' भी कहा जाता है- 'श्रस्तु वेद विज्ञेयों धर्मशास्त्रं तु वैस्मृतिः।' स्मृतियों का उदय सूत्रों को बाद हुआ। मनुष्य के पूरे जीवन से सम्बधित अनेक क्रिया-कलापों के बारे में असंख्य विधि-निषेधों की जानकारी इन स्मृतियों से मिलती है। सम्भवतः [[मनुस्मृति]] (लगभग 200 ई.पूर्व. से 100 ई. मध्य) एवं [[याज्ञवल्क्य स्मृति]] सबसे प्राचीन हैं। उस समय के अन्य महत्वपूर्ण स्मृतिकार थे- [[नारद]], [[पराशर]], [[बृहस्पति]], [[कात्यायन]], [[गौतम]], संवर्त, हरीत, [[अंगिरा]] आदि, जिनका समय सम्भवतः 100 ई. से लेकर 600 ई. तक था। मनुस्मृति से उस समय के [[भारत]] के बारे में राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जानकारी मिलती है। [[नारद स्मृति]] से [[गुप्त वंश]] के संदर्भ में जानकारी मिलती है। मेधातिथि, मारूचि, कुल्लूक भट्ट, गोविन्दराज आदि टीकाकारों ने 'मनुस्मृति' पर, जबकि विश्वरूप, अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि ने 'याज्ञवल्क्य स्मृति' पर भाष्य लिखे हैं।
| |
| ====मुख्य निबन्धकार एवं रचनाएं====
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| {| class="wikitable"
| |
| |-
| |
| !मुख्य निबन्धकार
| |
| !रचनाएं
| |
| |-
| |
| | style="width:30%"|
| |
| 1- देवण्णभट्ट
| |
| | style="width:70%"|
| |
| स्मृतिचन्द्रिका
| |
| |-
| |
| |2- श्रीदत्त उपाध्याय
| |
| |
| |
| आचारादर्श
| |
| |-
| |
| |3- माध्वाचार्य
| |
| |
| |
| पाराशरमाधवीय
| |
| |-
| |
| |4- जीमूतवाहन
| |
| |
| |
| दायभाग
| |
| |-
| |
| |5- रघुनन्दन
| |
| |
| |
| स्मृतितत्व
| |
| |-
| |
| |}
| |
|
| |
| | |
| ==महाकाव्य==
| |
| '[[रामायण]]' एवं '[[महाभारत]]', भारत के दो सर्वाधिक प्राचीन महाकाव्य हैं। यद्यपि इन दोनों महाकाव्यों के रचनाकाल के विषय में काफी विवाद है, फिर भी कुछ उपलब्ध साक्ष्यों के आधर पर इन महाकाव्यों का रचनाकाल चौथी शती ई.पू. से चौथी शती ई. के मध्य माना गया है।
| |
| ====रामायण====
| |
| {{main|रामायण}}
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| रामायण की रचना [[बाल्मीकि|महर्षि बाल्मीकि]] द्वारा पहली एवं दूसरी शताब्दी के दौरान [[संस्कृत|संस्कृत भाषा]] में की गयी । बाल्मीकि कृत रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे, जो कालान्तर में 12000 हुए और फिर 24000 हो गये । इसे 'चतुर्विशिति साहस्त्री संहिता' भ्री कहा गया है। बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण- [[बाल काण्ड वा. रा.|बालकाण्ड]], [[अयोध्या काण्ड वा. रा.|अयोध्याकाण्ड]], [[अरण्य काण्ड वा. रा.|अरण्यकाण्ड]], [[किष्किन्धा काण्ड वा. रा.|किष्किन्धाकाण्ड]], [[सुन्दर काण्ड वा. रा.|सुन्दरकाण्ड]], [[युद्ध काण्ड वा. रा.|युद्धकाण्ड]] एवं [[उत्तर काण्ड वा. रा.|उत्तराकाण्ड]] नामक सात काण्डों में बंटा हुआ है। रामायण द्वारा उस समय की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है। रामकथा पर आधारित ग्रंथों का अनुवाद सर्वप्रथम [[भारत]] से बाहर [[चीन]] में किया गया। भूशुण्डि रामायण को 'आदिरामायण' कहा जाता है।
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| ====महाभारत====
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| {{main|महाभारत}}
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| [[व्यास|महर्षि व्यास]] द्वारा रचित [[महाभारत]] महाकाव्य [[रामायण]] से बृहद है। इसकी रचना का मूल समय ईसा पूर्व चौथी शताब्दी माना जाता है। महाभारत में मूलतः 8800 श्लोक थे तथा इसका नाम 'जयसंहिता' (विजय संबंधी ग्रंथ) था। बाद में श्लोकों की संख्या 24000 होने के पश्चात यह वैदिक जन [[भरत (दुष्यंत पुत्र)|भरत]] के वंशजों की कथा होने के कारण ‘भारत‘ कहलाया। कालान्तर में [[गुप्त काल]] में श्लोकों की संख्या बढ़कर एक लाख होने पर यह 'शतसाहस्त्री संहिता' या 'महाभारत' केहलाया। महाभारत का प्रारम्भिक उल्लेख 'आश्वलाय गृहसूत्र' में मिलता है। वर्तमान में इस महाकाव्य में लगभग एक लाख श्लोकों का संकलन है। महाभारत महाकाव्य 18 पर्वो- [[आदि पर्व महाभारत|आदि]], [[सभा पर्व महाभारत|सभा]], [[वन पर्व महाभारत|वन]], [[विराट पर्व महाभारत|विराट]], [[उद्योग पर्व महाभारत|उद्योग]], [[भीष्म पर्व महाभारत|भीष्म]], [[द्रोण पर्व महाभारत|द्रोण]], [[कर्ण पर्व महाभारत|कर्ण]], [[शल्य पर्व महाभारत|शल्य]], [[सौप्तिक पर्व महाभारत|सौप्तिक]], [[स्त्री पर्व महाभारत|स्त्री]], [[शान्ति पर्व महाभारत|शान्ति]], [[अनुशासन पर्व महाभारत|अनुशासन]], [[आश्वमेधिक पर्व महाभारत|अश्वमेघ]], [[आश्रमवासिक पर्व महाभारत|आश्रमवासी]], [[मौसल पर्व महाभारत|मौसल]], [[महाप्रास्थानिक पर्व महाभारत|महाप्रास्थानिक]] एवं [[स्वर्गारोहण पर्व महाभारत|स्वर्गारोहण]] में विभाजित है। महाभारत में ‘हरिवंश‘ नाम परिशिष्ट है। इस महाकाव्य से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है।
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| ==पुराण==
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| {{main|पुराण}}
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| प्राचीन आख्यानों से युक्त ग्रंथ को [[पुराण]] कहते हैं। सम्भवतः 5वीं से 4थी शताब्दी ई.पू. तक पुराण अस्तित्व में आ चुके थे। [[ब्रह्म वैवर्त पुराण]] में पुराणों के पांच लक्षण बताये ये हैं। यह हैं- सर्प, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित। कुल पुराणों की संख्या 18 हैं- 1. [[ब्रह्म पुराण]] 2. [[पद्म पुराण]] 3. [[विष्णु पुराण]] 4. [[वायु पुराण]] 5. [[भागवत पुराण]] 6. [[नारद पुराण|नारदीय पुराण]], 7. [[मार्कण्डेय पुराण]] 8. [[अग्नि पुराण]] 9. [[भविष्य पुराण]] 10. [[ब्रह्म वैवर्त पुराण]], 11. [[लिंग पुराण]] 12. [[वराह पुराण]] 13. [[स्कन्द पुराण]] 14. [[वामन पुराण]] 15. [[कूर्म पुराण]] 16. [[मत्स्य पुराण]] 17. [[गरुड़ पुराण]] और 18. [[ब्रह्माण्ड पुराण]]
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| इन पुराणों में विष्णु, मत्स्य, वायु, ब्रह्माण्ड, तथा भागवत पुराण सर्वाधिक ऐतिहासिक महत्व के हैं क्योंकि इनमें राजाओं की वंशावलियां पायी जाती हैं। अठारह पुराणों में सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक मत्स्य पुराण है। इसके द्वारा [[सातवाहन वंश]] के विषय में विशेष जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त विष्णु पुराण से [[मौर्य वंश]] एवं [[गुप्त वंश]] की एवं वायु पुराण से [[शुंग वंश]] एवं [[गुप्त वंश]] के विषय में विशेष जानकारी मिलती है। इस प्रकार पुराणों से हमें शिशुनाग, नन्द, मौर्य, शुंग, सातवाहन एवं गुप्त वंश के विषय में ज्ञान होता है।
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| मार्कण्डेय पुराण मुख्यतः देवी [[दुर्गा]] से संबधित है। इसी में 'दुर्गा सप्तशती' नामक अंश शामिल है। अग्नि पुराण में तांत्रिक पद्धति का उल्लेख है। इसी पुराण में [[गणेश]] पूजा का प्रथम बार उल्लेख मिलता है।
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| ==बौद्ध साहित्य==
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| {{main|बौद्ध साहित्य}}
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| [[बौद्ध साहित्य]] को ‘[[त्रिपिटक]]‘ कहा जाता है। महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के उपरान्त आयोजित विभिन्न बौद्ध संगीतियों में संकलित किये गये त्रिपिटक (संस्कृत त्रिपिटक) सम्भवतः सर्वाधिक प्राचीन धर्मग्रंथ हैं। वुलर एवं रीज डेविड्ज महोदय ने ‘पिटक‘ का शाब्दिक अर्थ टोकरी बताया है। त्रिपिटक हैं-
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| #[[सुत्तपिटक]],
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| #[[विनयपिटक]] और
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| #[[अभिधम्मपिटक]]।
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| ==जैन साहित्य== | |
| {{main|जैन साहित्य}} | |
| ऐतिहसिक जानकारी हेतु [[जैन साहित्य]] भी [[बौद्ध साहित्य]] की ही तरह महत्वपूर्ण हैं। अब तक उपलब्ध जैन साहित्य [[प्राकृत]] एवं [[संस्कृत]] भाषा में मिलतें है। जैन साहित्य, जिसे ‘आगम‘ कहा जाता है, इनकी संख्या 12 बतायी जाती है। आगे चलकर इनके 'उपांग' भी लिखे गये । आगमों के साथ-साथ जैन ग्रंथों में 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, एक नंदि सूत्र एक अनुयोगद्वार एवं चार मूलसूत्र हैं। इन आगम ग्रंथों की रचना सम्भवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यो द्वारा [[महावीर|महावीर स्वामी]] की मृत्यु के बाद की गयी।
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| ====लौकिक साहित्य====
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| इस प्रकार के साहित्य के अन्तर्गत ऐतिहासिक एवं समसामयिक साहित्य आते हैं, ऐसे साहित्य को धर्मेत्तर साहित्य भी कहते हैं इस प्रकार की कृतियों से तत्कालीन भारतीय समाज के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को जानने में काफी मदद मिलती है। ऐसी रचनाओं में सर्वप्रथम उल्लेख अर्थशास्त्र का किया जाता है।
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| {| width=90% class="wikitable"
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| !रचनाएं
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| !रचनाकार
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| | 1- [[अर्थशास्त्र]]
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| | [[चाणक्य|आचार्य चाणक्य]]
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| |2- [[मुद्राराक्षस]]
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| विशाखदत्त
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| |-
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| |3- [[अष्टाध्यायी]]
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| [[पाणिनि]]
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| |4- [[महाभाष्य]]
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| [[पतंजलि|महर्षि पतंजलि]]
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| |-
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| |5- [[मालविकाग्निमित्रम्]]
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| [[कालिदास]]
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| |-
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| |6- [[हर्षचरित]]
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| [[बाणभट्ट]]
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| |7- [[कामन्दकीय नीतिशास़्त्र]]
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| कामन्दक
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| |-
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| |8- [[बृहस्पतीय अर्थशास्त्र]]
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| बृहस्पति
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| |-
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| |9- [[स्वप्नवासवदत्तम]]
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| [[भास]]
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| |-
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| |10- [[मृच्छकटिकम]]
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| शूद्रक
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| |-
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| |11- [[नवसाहसांक चरित]]
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| पदमगुप्त परिमल
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| |-
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| |12- [[राजतरंगिणी]]
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| [[कल्हण]]
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| |-
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| |13- [[विक्रमांकदेव चरित]]
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| कवि विल्हण
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| |-
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| |14- [[कुमारपाल चरित]]
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| [[हेमचन्द्र]]
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| |-
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| |15- [[प्रबन्ध चिन्तामणि]]
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| मेरूतुंगाचार्य
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| |-
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| |16- [[कीर्ति कौमुदी]]
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| सोमेश्वर
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| |-
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| |17- [[बसन्त विलास]]
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| महाकवि वालचन्द्र
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| |18- [[मत्तविलास प्रहसन]]
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| पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मा
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| |-
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| |19- [[अवन्तिसुन्दरी कथा]]
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| महाकवि दण्डी
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| |-
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| |20- [[पृथ्वीराज विजय]]
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| पण्डित जयनक
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| |-
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| |21- [[गौड़वहो]]
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| वाक्पतिराज
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| |}
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| *दक्षिण भारत का प्रारम्भिक इतिहास ‘संगम साहित्य‘ से ज्ञात होता है।
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| *सुदूर दक्षिण के [[पल्लव वंश|पल्लव]] और [[चोल वंश|चोल]] शासको का इतिहास नन्दिकक्लम्बकम, कलिंगत्तुपर्णि, चोल चरित आदि से प्राप्त होता है।
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| ==विदेशियों के विवरण==
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| विदेशी यात्रियों एवं लेखकों के विवरण से भी हमें भारतीय इतिहास की जानकारी मिलती है। इनको तीन भागों में बांट सकते हैं-
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| #यूनानी-रोमन लेखक
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| #चीनी लेखक
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| #अरबी लेखक
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| ====यूनानी-रोमन लेखक====
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| *यूनानी लेखकों को तीन भागों में बांटा जा सकता है-
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| #[[सिकन्दर]] के पूर्व के [[यूनानी]] लेखक
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| #सिकन्दर के समकालीन यूनानी लेखक
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| #सिकन्दर के बाद के लेखक
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| *टेसियस और हेरोडोटस [[यूनान]] और [[रोम]] के प्राचीन लेखकों में से हैं। टेसियस 'ईरानी राजवैद्य' था, उसने भारत के विषय में समस्त जानकारी ईरानी अधिकारियों से प्राप्त की थी। हेरोडोटस, जिसे 'इतिहास का पिता' कहा जाता है, ने 5वी. शताब्दी में ई.पू. में ‘हिस्टोरिका‘ नामक पुस्तक की रचना की थी, जिसमें भारत और [[फ़ारस]] के सम्बन्धों का वर्णन किया गया है।
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| *नियार्कस, आनेसिक्रिटस और अरिस्टोवुलास ये सभी लेखक [[सिकन्दर]] के समकालीन। इन लेखकों द्वारा जो भी विवरण तत्कालीन भारतीय इतिहास से जुड़ा है वह अपने में प्रमाणिक है।
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| *सिकन्दर के बाद के लेखकों में महत्वपूर्ण था [[मेगस्थनीज]] जो यूनानी राजा [[सेल्यूकस]] का राजदूत था। उसने [[चन्द्रगुप्त मौर्य]] के दरबार में करीब 14 वर्षो तक समय व्यतीत किया। उसने ‘इण्डिका ‘ नामक ग्रंथ की रचना की जिसमें तत्कालीन मौर्यवंशीय समाज एवं संस्कृति का विवरण दिया था। डाइमेकस, सीरियन नरेश अन्तियोकस का राजदूत था जो [[बिन्दुसार]] के राजदरबार में काफी दिनों तक रहा। डायोनिसियस [[मिस्र]] नरेश 'टॉलमी फिलाडेल्फस' के राजदूत के रूप में काफी दिनों तक [[अशोक|सम्राट अशोक]] के राज दरबार में रहा था।
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| *अन्य पुस्तकों में ‘पेरीप्लस आॅफ द एरिथ्रियन सी‘, लगभग 150 ई. के आसपास टॉलमी का भूगोल, [[प्लिनी]] का 'नेचुरल हिस्टोरिका' (ई. की प्रथम सदी) महत्वपूर्ण है। ‘पेरीप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी‘ ग्रंथ जिसकी रचना 80 से 115 ई. के बीच हुई है, में भारतीय बन्दरगाहों एवं व्यापारिक वस्तुओं का विवरण मिलता है। प्लिनी के ‘नेचुरल हिस्टोरिका‘ से भारतीय पशु, पेड़-पौधों एवं खनिज पदार्थो की जानकारी मिलती है।
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| ====चीनी लेखक====
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| चीनी लेखकों के विवरण से भी भारतीय इतिहास पर प्रचुर प्रभाव पड़ता है सभी चीनी लेखक यात्री [[बौद्ध]] मतानुयायी थे और वे इस धर्म के विषय में कुछ विषय जानकारी के लिए ही [[भारत]] आये थे। चीनी बौद्ध यात्रियों में से प्रमुख थे-
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| #[[फ़ाह्यान]]
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| #[[ह्वेन त्सांग|ह्वेनसांग]],
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| #[[इत्सिंग]],
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| #मल्वानलिन,
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| #चाऊ-जू-कुआ आदि।
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| *मल्वानलिन ने [[हर्षवर्धन|हर्ष]] के पूर्व अभियान एवं 'चाऊ-जू-कुआ' ने [[चोल साम्राज्य|चोलकालीन]] इतिहास पर प्रकाश डाला।
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| ====अरबी लेखक====
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| पूर्व मध्यकालीन भारत के समाज और संस्कृति के विषयों में हमें सर्वप्रथम अरब व्यापारियों एवं लेखकों से विवरण प्राप्त होता है। इन व्यापारियों और लेखकों में मुख्य हैं-
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| #[[अलबेरूनी]],
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| #[[सुलेमान]] और
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| #[[अलमसूदी]]।
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| *उपर्युक्त विदेशी यात्रियों के विवरण के अतिरिक्त कुछ फारसी लेखकों के विवरण भी प्राप्त होते है जिनसे भारतीय इतिहास के अध्ययन में काफी सहायता मिलती है। इसमें महत्वपूर्ण हैं-
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| #फिरदौसी (940-1020ई.) कृतशाहनामा, (Books of Kings)
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| #रशदुद्वीन कृत ‘ जमीएत अल तवारीख‘ अली अहमद कृत ‘चाचनामा‘ मिनहाज-उल-सिराज कृत ‘तबकात-ए-नासिरी‘, जियाउद्वीन बरनी कृत ‘तारीख-ए-फिरोजशाही एवं अबुल फज़ल कृत ‘अकबरनामा‘ आदि।
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| #यूरोपीय यात्रियों में 13 वी शताब्दी में वेनिस (इटली) से आये से सुप्रसिद्व यात्री मार्कोपोलों द्वारा दक्षिण के पाण्ड्य राज्य के विषय में जानकारी मिलती है।
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| ==पुरातत्व==
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| पुरातात्विक साक्ष्य के अंतर्गत मुख्यतः अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन, मूर्तियां चित्रकला आदि आते हैं।
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| ==अभिलेख==
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| इतिहास निमार्ण में सहायक पुरातत्व सामग्री में अभिलेखों का महत्वपूर्ण स्थान है। ये अभिलेख अधिकांशतः स्तम्भों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं पात्रों, मूर्तियों, गुहाओं आदि में खुदे हुए मिलते हैं। यद्यपि प्राचीनतम अभिलेख मध्य एशिया के ‘बोगजकोई‘ नाम स्थान से करीब 1400 ई.पू. में पाये गये जिनमें अनेक वैदिक देवताओं - [[इन्द्र]], मित्र, [[वरुण देवता|वरूण]], नासत्य आदि का उल्लेख मिलता है।
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| अपने यथार्थ रूप में अभिलेख हमें सर्वप्रथम [[अशोक]] के शासन काल में ही मिलतें हैं। एक अभिलेख, जो [[हैदराबाद]] में 'मास्की' नामक स्थान पर स्थित है, में अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त 'गुर्जरा', [[मध्य प्रदेश]], 'पानगुड्इया',मध्य प्रदेश से प्राप्त लेखों में भी अशोक का नाम मिलता है। अन्य अभिलेखों में उसको देवताओं का प्रिय ‘प्रियदर्शी‘ राजा कहा गया है। अशोक के अभिलेख मुख्यतः [[ब्राह्मी लिपि|ब्राह्यी]], [[खरोष्ठी]] तथा आरमाइक लिपियों में मिलतें हैं जिसमें अधिकांश ब्राह्यी में खुदे हुए हैं। इस लिपि को बांयी से दायीं ओर लिखा जाता है। पश्चिमोत्तर प्रान्त में प्रयुक्त होने वाली ‘खरोष्ठी लिपि‘ दायीं से बायीं ओर लिखी जाती थी। [[पाकिस्तान]] और [[अफ़ग़ानिस्तान]], में पाये गये अशोक के अभिलेखों में प्रयुक्त लिपि आरमाइक व यूनानी थी।
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| अशोक के बाद अभिलेखों की परम्परा से जुड़े अन्य अभिलेख इस प्रकार हैं- [[खारवेल]] का [[खारवेल का हाथीगुम्फा]], [[शक]] क्षत्रप प्रथम रुद्रदामान का जूनागढ़ अभिलेख, [[सातवाहन]] नरेश पुलुमावी का नासिक गुहालेख, हरिषेण द्वारा लिखित [[समुद्रगुप्त]] का [[प्रयाग]] स्तम्भ लेख, मालव नरेश यशोवर्मन का मन्दसौर अभिलेख, [[चालुक्य वंश|चालुक्य]] नरेश पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल अभिलेख, [[चालुक्य वंश||प्रतिहार]] नरेश भोज का [[ग्वालियर]] अभिलेख, [[स्कन्दगुप्त]] का भितरी तथा जूनागढ़ लेख, [[अखण्डित बंगाल|बंगाल]] के शासक विजय सेन का देवपाड़ा अभिलेख इत्यादि। कुछ गैर सरकारी अभिलेख हैं जैसे यवन राजदूत हेलियाडोरस का बेसनगर, [[विदिशा]] से प्राप्त गरुड़ स्तम्भ लेख। इससे द्वितीय शताब्दी ई.पू. में भारत में भागवत धर्म के विकसित होने के साक्ष्य मिलते हैं। [[मध्य प्रदेश]] के एरण से प्राप्त वराह प्रतिमा पर [[हूण]] राजा तोरमाण के लेखों का विवरण है।
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| ==मुद्रायें==
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| भारतीय इतिहास अध्ययन में मुद्राओं की अतीव महत्ता है। भारत की प्राचीनतम मुद्राएं छठी शती ई.पू. में प्रचलित हुई। इन पर लेख नहीं होते थे। कुछ प्रतीक जैसे पर्वत, वृक्ष, पक्षी, मानव, पुष्प, जयामितीय आकृति आदि अंकित रहते थे। इन्हें आहत मुद्रा (पंच मार्क्ड क्वायन्स) कहा जाता था। सर्वप्रथम भारत में शासन करने वाले यूनानी शासकों की मुद्राओं पर लेख एवं तिथियां उत्कीर्ण मिलती हैं। सर्वाधिक मुद्राएं उत्तर [[मौर्य काल]] में मिलती हैं जो प्रधानतः सीसे, पोटीन, ताबें, कांसे, चांदी और सोने की होती हैं। [[कुषाण|कुषाणों]] के समय में सर्वाधिक शुद्ध सुवर्ण मुद्राएं प्रचलन में थे, पर सर्वाधिक सुवर्ण मुद्राएं [[गुप्त काल]] में जारी की गयी। समुद्रगुप्त की कुछ मुद्राओं पर ‘यूप‘ पर ‘[[अश्वमेध यज्ञ]]‘ और कुछ पर [[वीणा]] बजाते हुए दिखाया गया है। [[कनिष्क]] की मुद्राओं से यह पता चलता है कि वह [[बौद्ध धर्म]] का अनुयायी था। सातवाहन नरेश शातकर्णि की एक मुद्रा पर जलपोत का चित्र उत्कीर्ण है जिससे अनुमान लगाया जाता है कि उसने समुद्र विजय की थी। [[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] की व्याघ्रशैली की मुद्राओं से उसकी पश्चिमी भारत के शकों की विजय सूचित होती है।
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| ==स्मारक एवं भवन==
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| इतिहास निर्माण में भारतीय स्थापत्यकारों, वास्तुकारों और चित्रकारों ने अपने हथियार, छेनी, कन्नी, और तूलिका के द्वारा विशेष योगदान दिया। इनके द्वारा निर्मित प्राचीन इमारतें, मंदिर मूर्तियों के अवशेषों से भारत की प्राचीन सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का ज्ञान होता है। खुदाई में मिले महत्वपूर्ण अवशेषों में [[हड़प्पा|हडप्पा सभ्यता]], [[पाटलिपुत्र]] की खुदाई में [[चन्द्रगुप्त मौर्य]] के समय लकड़ी के बने राजप्रसाद के ध्वंसावशेष, [[कौशाम्बी]] की खुदाई से महाराज उदयन के राजप्रसाद एवं घोषितराम [[बिहार]] के अवशेष अंतरजीखेड़ा में खुदाई से लोहे के प्रयोग के साक्ष्य, [[पांडिचेरी]] के अरिकामेडु में खुदाई से रोमन मुद्राओं, बर्तन आदि के अवशेषों से तत्कालीन इतिहास एवं संस्कृति की जानकारी प्राप्त होती है। उस समय मंदिर निर्माण की प्रचलित [[नागर शैली|नागर शैलियों]] में ‘ नागर शैली‘ उत्तर भारत में प्रचलित थी जबकि [[द्रविड़ शैली]] दक्षिण भारत में प्रचलित थी। [[दक्षिणापथ]] में निर्मित वे मंदिर जिसमें नागर एवं द्रविड़ दोनों शैलियों का समावेश है उसे ‘वेसर शैली‘ कहा गया है। 8वीं शताब्दी में जावा में निर्मित बोराबुदुर मंदिर से बौद्ध धर्म की पहचान शाखा के प्रचलित होने का प्रमाण मिलता है।
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| ==मूर्तियां==
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| प्राचीन काल में मूर्तियों का निर्माण [[कुषाण काल]] से आरम्भ होता है। कुषाणें, गुप्त शासकों एवं उत्तर गुप्तकाल में निर्मित मूर्तियों के विकास में जनसामान्य की धार्मिक भावनाओं का विशेष योगदान रहा है। कुषाणकालीन मूर्तियों एवं गुप्तकालीन मूर्तियों में व्याप्त मूलभूत अंतर इस प्रकार है -
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| *कुषाणकालीन मूर्तियां विदेशी प्रभाव से ओतप्रोत हैं वहीं पर गुप्तकालीन मूर्तियां स्वाभविकता से ओत-प्रोत हैं।
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| *भरहुत, [[बोधगया]], सांची और अमरावती में मिली मूर्तियां, मूर्तिकला में जनसामान्य के जीवन की अति सजीव झांकी प्रस्तुत करती है।
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| ==चित्रकला==
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| चित्रकाल से हमें उस समय के जीवन के विषय में जानकारी मिलती है। [[अजंता]] के चित्रों में मानवीय भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति मिलती है। चित्रों में ‘माता और शिशु‘ या ‘मरणशील राजकुमारी‘ जैसे चित्रों से गुप्तकाल की कलात्मक पराकाष्ठा का पूर्ण प्रमाण मिलता है।
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| ==पाषाण काल==
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| {{main|भारत का इतिहास पाषाण काल}}
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| समस्त इतिहास को तीन कालों में विभाजित किया जा एकता है-
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| #प्राक्इतिहास या प्रागैतिहासिक काल(Prehistoric Age),
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| #आद्य ऐतिहासिक काल(Proto-historic Age)
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| #ऐतिहासिक काल(Historic Age)
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| ==भारत की आदिम (प्रारंभिक) जातियां==
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| प्रारम्भिक काल में [[भारत]] में कितने प्रकार की जातियां निवास करती थीं, उनमें आपसी सम्बन्घ किस स्तर के थे, आदि प्रश्न अत्यन्त ही विवादित हैं। फिर भी नवीनतम सर्वाधिक मान्यताओं में 'डॉ. बी.एस. गुहा' का मत है। भारतवर्ष की प्रारम्भिक जातियों को छः भागों में विभक्त किया जा सकता है। -
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| #नीग्रिटों
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| #प्रोटो-ऑस्ट्रेलियाईड
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| #मंगोलायड
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| #भूमध्य सागरीय
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| #पश्चिमी ब्रेकी सेफल
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| #नॉर्डिक
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| ====नीग्रिटो (Negretto)====
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| [[अंडमान एवं निकोबार द्वीपसमूह|अण्डमान द्वीप समूह]] में ही इस जाति के कुछ अवशेष मिलते हैं। [[असम]] की 'नागा' एवं 'ट्रावरकोर' - [[कोचीन]] की आदिम जातियों में 'नीग्रेटो' जाति की कुछ विशेषतायें परिलक्षित होती हैं। [[अफ्रीका]] से चलकर [[अरब]], [[ईरान]] और [[बलूचिस्तान]] के रास्ते भारत पहुंची। यह जाति भारत की प्राचीनतम जातियों में से एक थी। शायद जाति कृषि-कर्म एवं पशुपालन तकनीक से वंचित थी, शिकार ही जीवन का मुख्य आधार था। मछलियों को समुद्र से पकड़ कर खाते थे। नीग्रिटों जाति का पूर्ण उन्मूलन 'प्रोटो आस्ट्रेलायड' जाति के द्वारा किया गया।
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| ====प्रोटो ऑस्ट्रेलियाड (Proto- Austriliad)====
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| यह जाति सम्भवतः 'फिलिस्तीन से भारत, 'बर्मा', 'मलाया', 'इण्डोनेशिया', 'आस्ट्रेलिया', 'इण्डोचीन' आदि स्थानों पर पहुंची। भारत में निवास करने वाली 'कोल' एवं 'मुण्डा'' जातियों में 'प्रोटो- ऑस्ट्रेलियाड' जाति के कुछ लक्षण दिखाई पड़ते हैं। [[आर्य|आर्यों]] के भारत में आने के समय यह जाति के लोग सम्भवतः कृषि कार्य को जानते थे, साथ ही पशुपालन एवं वस्त्र निर्माण तकनीक से भी भिज्ञ थे। ये लोग समूह बनाकर रहते थे।
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| ====मंगोलायड (Mongoloid)====
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| नाटे कद, चौड़े सिर, चपटी नाक एवं दरार जैसी आंखों वाली यह जाति [[सिक्किम]], [[असम]], [[भूटान]] एवं भारत तथा [[म्यांमार|बर्मा]] की सीमा पर आज भी दृष्टिगोचर होती है।
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| ====भूमध्यसागरीय- द्रविड़(Mediterranean)====
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| इस जाति की अनेक शाखाओं में भारत में [[द्रविड़]] काफी महत्वपूर्ण थी। इस जाति के लोगों का कद छोटा, नाक छोटी, बड़े सिर एवं रंग काला होता था।
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| ====पश्चिमी ब्रैकीसेफल (Wesern Brachycephals)====
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| पश्चिमी ब्रेकीसेफल प्रजाति मध्य एशिया की पामीर पर्वतमाला तथा ईरान पठार से ईसा से 3000 वर्ष पूर्व भारत में आयी। ये लोग 'पिशाच' अथवा 'दरदभासा' परिवार की भाषा बोलते थे। इनकी मुख्यतः तीन शाखायें थीं -
| |
| #अल्पाइन (Alpine),
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| #दीनापक (Dinaric) ,
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| #आर्मीनिया (Anrmenien)।
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| ये लोग [[गुजरात]], [[सौराष्ट्र]], [[पश्चिम बंगाल|बंगाल]], [[उड़ीसा]], [[कर्नाटक]], [[तमिलनाडु|तमिल प्रदेश]] तथा [[महाराष्ट्र]] में मिलते हैं।
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| ====नार्डिक (Nordic)====
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| इसे [[आर्य]] - प्रजाति भी कहा जाता है। यह प्रजाति भारत में मध्य एशिया से लगभग 2000 ई.पू. में प्रविष्ट हुई। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की जननी यही प्रजाति है। ये भारत के पश्चिमोत्तर भाग में प्रारम्भ में बसी। ये लम्बे सिर, ऊंची पतली नाक, पतले होंठ, ऊंचे इकहरे शरीर, सुनहरे घुंघराले बाल, गौर वर्ण तथा नीली अथवा हल्की भूरी आंख वाले होते थे। किन्तु बाद में जलवायु परिवर्तन के कारण इनकी शारीरिक बनावट विशेषकर रंगों में परिवर्तन हो गया। आगे यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि द्रविड़ लोग मूलतः कहां के निवासी थे? इस सन्दर्भ में काफी विवाद है फिर भी कुछ विद्धानों का मत इस प्रकार है -
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| *रिजले और इनके समर्थक विद्वान - 'द्रविड़ [[बलूचिस्तान]] के ही निवासी रहे होगें।'
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| *कर्नल डोल्डिच का मानना है कि 'बलूचिस्तान में रहने वाले ‘ब्राहुई‘ भाषा-भाषी लोग 'द्रविड़' जाति के नहीं बल्कि 'मंगोल' जाति के थे जिन्होंने द्रविड़ों को परास्त कर वहां से भगा दिया और साथ ही उनकी ‘ब्राहुई‘ भाषा को अपना लिया।' कुल मिलाकर इनके कथन का इशारा उसी ओर है कि द्रविड़ बलूचिस्तान के ही निवासी थे।
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| *अधिकांश विद्धानों का यह मानना है कि द्रविड़ जाति के लोग 'भूमध्य सागरीय प्रदेश' के निवासी थे और सम्भवतः वे 'ईजियन सागर', 'एशिया माइनर' व 'फिलिस्तीन' से भारत आये थे। [[सिंधु घाटी सभ्यता|सिंधु सभ्यता]] के प्रणेता भी सम्भवतः द्रविड़ ही थे। भारत में द्रविड़ों के निवास स्थान [[पंजाब]], [[सिंधु]], [[मालवा]], [[महाराष्ट्र]], [[गंगा-यमुना का दोआब]], [[बंगाल]] एवं दक्षिण भारत थे। [[ऋग्वेद]], जिसमें आर्यो के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है, में प्रयुक्त शब्द 'दस्यु' और 'दास्य' शब्द सम्भवतः द्रविड़ों के लिए ही प्रयोग किये गये हैं।
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| *अनेक विद्धानों का मानना है कि द्रविड़ सभ्यता नगरीय सभ्यता थी, इन लोगों ने ही सर्वप्रथम भारत में नगरों की नींव डाली। सम्भवतः इस जाति के लोगों ने ही सबसे पहले नदियों पर पुल एवं बांधों का निर्माण किया।
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| *डॉ बार्नेट का माना है कि द्रविड़ समाज मातृ प्रधान था।
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| ==सिधु घाटी (सैंधव/हड़प्पा) सभ्यता==
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| आज से लगभग 70 वर्ष पूर्व [[पाकिस्तान]] के 'पश्चिमी पंजाब प्रांत' के 'माण्टगोमरी ज़िले' में स्थित 'हरियाणा' के निवासियों को शायद इस बात का किंचित्मात्र भी आभास नहीं था कि वे अपने आस-पास की जमीन में दबी जिन ईटों का प्रयोग इतने धड़ल्ले से अपने मकानों का निर्माण में कर रहे हैं, वह कोई साधारण ईटें नहीं, बल्कि लगभग 5,000 वर्ष पुरानी और पूरी तरह विकसित सभ्यता के अवशेष हैं। इसका आभास उन्हे तब हुआ जब 1856 ई. में 'जॉन विलियम ब्रन्टम' ने कराची से [[लाहौर]] तक रेलवे लाइन बिछवाने हेतु ईटों की आपूर्ति के इन खण्डहरों की खुदाई प्रारम्भ करवायी। खुदाई के दौरान ही इस सभ्यता के प्रथम अवशेष प्राप्त हुए, जिसे इस सभ्यता का नाम ‘हड़प्पा सभ्यता‘ का नाम दिया गया।
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| इस अज्ञात सभ्यता की खोज का श्रेय 'रायबहादुर दयाराम साहनी' को जाता है। उन्होंने ही पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक 'सर जॉन मार्शल' के निर्देशन में 1921 में इस स्थान की खुदाई करवायी। लगभग एक वर्ष बाद 1922 में 'श्री राखल दास बनर्जी' के नेतृत्व में पाकिस्तान के सिंध प्रान्त के 'लरकाना' ज़िले के [[मोहन जोदड़ों]] में स्थित एक [[बौद्ध]] [[स्तूप]] की खुदाई के समय एक और स्थान का पता चला। इस नवीनतम स्थान के प्रकाश में आने क उपरान्त यह मान लिया गया कि संभवतः यह सभ्यता [[सिंधु नदी]] की घाटी तक ही सीमित है, अतः इस सभ्यता का नाम ‘सिधु घाटी की सभ्यता‘ (indus Valley Civilaction) रखा गया । सबसे पहले 1927 में 'हड़प्पा' नामक स्थल पर उत्खनन होने के कारण 'सिन्धु सभ्यता' का नाम 'हड़प्पा सभ्यता' पड़ा। पर कालान्तर में 'पिग्गट' ने हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ों को ‘एक विस्तृत साम्राज्य की जुड़वा राजधानियां‘ बतलाया।
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| अब तक भारतीय उपमहाद्वीप में इस सभ्यता के लगभग 1000 स्थानों का पता चला है जिनमें कुछ ही परिपक्व अवस्था में प्राप्त हुए हैं। इन स्थानों के केवल 6 को ही नगर की संज्ञा दी जाती है। ये हैं -
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| #हड़प्पा,
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| #मोहनजोदड़ों,
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| #चन्हूदड़ों,
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| #लोथल,
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| #कालीबंगा,
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| #हिसार
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| #बनवाली।
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| ==सभ्यता का विस्तार==
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| अब तक इस सभ्यता के अवशेष पाकिस्तान और भारत के [[पंजाब]], [[सिंध]], [[बलूचिस्तान]], [[गुजरात]], [[राजस्थान]], [[हरियाणा]], पश्यिमी उत्तर प्रदेश, [[जम्मू और कश्मीर|जम्मू-कश्मीर]] के भागों में पाये जा चुके हैं। इस सभ्यता का फैलाव उत्तर में 'जम्मू' के 'मांदा' से लेकर दक्षिण में [[नर्मदा नदी|नर्मदा]] के मुहाने 'भगतराव' तक और पश्चिमी में 'मकरान' समुद्र तट पर 'सुत्कागेनडोर' से लेकर पूर्व में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में [[मेरठ]] तक है।
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| इस सभ्यता का सर्वाधिक पश्चिमी पुरास्थल 'सुत्कागेनडोर', पूर्वी पुरास्थल 'आलमगीर', उत्तरी पुरास्थल 'मांडा' तथा दक्षिणी पुरास्थल 'दायमाबाद' है। लगभग त्रिभुजाकार वाला यह भाग कुल करीब 12,99,600 वर्ग किमी. के क्षेत्र में फैला हुआ है। सिन्धु सभ्यता का विस्तार का पूर्व से पश्चिमी तक 1600 किमी. तथा उत्तर से दक्षिण तक 1400 किमी. था। इस प्रकार सिंधु सभ्यता समकालीन [[मिस्र]] या 'सुमेरियन सभ्यता' से अधिक विस्तृत क्षेत्र में फैली थी।
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| सिंधु सभ्यता के स्थल अब निम्नलिखित क्षेत्रों में मिलते हैं -
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| ====बलुचिस्तान====
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| उत्तरी बलुचिस्तान में स्थित 'क्वेटा' तथा 'जांब' की धारियों में सैंधव सभ्यता से सम्बन्धित कोई भी स्थल नहीं है। किन्तु दक्षिणी बलूचिस्तान में सैंधव सभ्यता के कई पुरास्थल स्थित हैं जिसमें अति महत्वपूर्ण है 'मकरान तट'। मकरान तट प्रदेश पर मिलने वाले अनेक स्थलों में से पुरातात्विक दृष्टि से केवल तीन स्थल महत्वपूर्ण हैं-
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| #सुत्कागेनडोर (दश्क नदी के मुहाने पर),
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| #सुत्काकोह (शादीकौर के मुहाने पर) और
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| #बालाकोट (विंदार नदी के मुहाने पर), डावरकोट (सोन मियानी खाड़ी के पूर्व में विदर नदी के मुहाने पर)।
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| ====उत्तर पश्चिमी सीमांत====
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| यहां सारी सामग्री, 'गोमल घाटी' में केन्द्रित प्रतीत होती है जो [[अफ़ग़ानिस्तान]] जाने का एक अत्यंत महत्वपूर्ण मार्ग है। 'गुमला' जैसे स्थलों पर सिंधु पूर्व सभ्यता के निक्षेपों के ऊपर सिंधु सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
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| ====सिंधु====
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| इनमें कुछ स्थल प्रसिद्ध हैं जैसे - 'मोहनजोदड़ों', 'चन्हूदड़ों', 'जूडीरोजोदड़ों', (कच्छी मैदान में जो कि सीबी और जैकोबाबाद के बीच सिंधु की बाढ़ की मिट्टी का विस्तार है) 'आमरी' (जिसमें सिंधु पूर्व सभ्यता के निक्षेप के ऊपर सिंधु सभ्यता के निक्षेप मिलते हैं) 'कोटदीजी', 'अलीमुराद', 'रहमानढेरी', 'राणाधुडई' इत्यादि।
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| ====पश्चिमी पंजाब====
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| इस क्षेत्र में बहुत ज्यादा स्थल नहीं है। इसका कारण समझ में नही आता। हो सकता है [[पंजाब]] की नदियों ने अपना मार्ग बदलते-बदलते कुछ स्थलों का नष्ट कर दिया हो। इसके अतिरिक्त 'डेरा इस्माइलखाना', 'जलीलपुर', 'रहमानढेरी', 'गुमला', 'चक-पुरवानस्याल' आदि महत्वपूर्ण पुरास्थल है।
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| ====बहावलपुर====
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| यहां के स्थल सूखी हुई [[सरस्वती नदी]] के मार्ग पर स्थित हैं। इस मार्ग का स्थानीय नाम का ‘हकरा‘ है । 'घग्घर हमरा' अर्थात [[सरस्वती नदी|सरस्वती]] [[दृषद्वती नदी|दृशद्वती]] नदियों की घाटियों में हड़प्पा संस्कृति के स्थलों का सर्वाधिक संकेन्द्रण (सर्वाधिक स्थल) प्राप्त हुआ है। किन्तु इस क्षेत्र में अभी तक किसी स्थल का उत्खनन नहीं हुआ है। इस स्थल का नाम 'कुडावाला थेर' है जो प्रकटतः बहुत बड़ा है।
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| ====राजस्थान====
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| यहां के स्थल 'बहाबलपुर' के स्थलों के निरंतर क्रम में हैं जो प्राचीन सरस्वती नदी के सूखे हुए मार्ग पर स्थित है। इस क्षेत्र में सरस्वती नदी को 'घघ्घर' कहा जाता है। कुछ प्राचीन दृषद्वती नदी के सूखे हुए मार्ग के साथ- साथ भी है जिसे अब 'चैतग नदी' कहा जाता है। इस क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण स्थल 'कालीबंगा' है। कालीबंगा नामक पुरास्थल पर भी पश्चिमी से गढ़ी और पूर्व में नगर के दो टीले, हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ों, की भांति विद्यमान है। राजस्थान के समस्त सिंधु सभ्यता के स्थल आधुनिक [[गंगानगर ज़िले]] में आते है।
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| ====हरियाणा====
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| [[हरियाणा]] का महत्वपूर्ण सिंधु सभ्यता स्थल [[हिसार ज़िले]] में स्थित 'बनवाली' है। इसके अतिरिक्त 'मिथातल', 'सिसवल', 'वणावली', 'राखीगढ़', 'वाड़ा तथा 'वालू' नामक स्थलों का भी उत्खनन किया जा चुका है।
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| ====पूर्वी पंजाब====
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| इस क्षेत्र के महत्वपूर्ण स्थल 'रोपड़ संधोल' है। हाल ही में [[चंडीगढ़]] नगर में भी हड़प्पा संस्कृति के निक्षेप पाये गये हैं। इसके अतिरिक्त 'कोटलानिहंग ख़ान', 'चक 86 वाड़ा', 'ढेर-मजरा' आदि पुरास्थलों से सैंधव सभ्यता से सम्बद्ध पुरावशेष प्राप्त हुए है।
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| ====गंगा-यमुना दोआब====
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| यहां के स्थल [[मेरठ ज़िला|मेरठ ज़िले]] के 'आलमगीर' तक फैले हुए हैं। एक अन्य स्थल [[सहारनपुर ज़िला|सहारनपुर ज़िले]] में स्थित 'हुलास' तथा 'बाड़गांव' है। हुलास तथा बाड़गांव की गणना पश्वर्ती सिन्धु सभ्यता के पुरास्थलों में की जाती है।
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| ====जम्मू==== इस क्षेत्र के मात्र एक स्थल का पता लगा है, जो 'अखनूर' के निकट 'भांडा' में है। यह स्थल भी सिन्धु सभ्यता के परवर्ती चरण से सम्बन्घित है।
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| {| width=90% class="wikitable"
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| |+हड़प्पा सभ्यता के पुरास्थल
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| !पुरास्थल
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| !स्थान
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| |-
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| | 1- हड़प्पा सभ्यता का सर्वाधिक पश्चिमी पुरास्थल
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| | सत्कागेन्डोर (बलूचिस्तान)
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| |2- सर्वाधिक पूर्वी पुरास्थल
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| आलमगीरपुर (मेरठ)
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| |3- सर्वाधिक उत्तर पूरास्थल
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| मांडा (जम्मू कश्मीर)
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| |4- सर्वाधिक दक्षिणी पुरास्थल
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| दायमाबाद (महाराष्ट्र)
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| |}
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| ====गुजरात====
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| 1947 के बाद [[गुजरात]] में सैंधव स्थलों की खोज के लिए व्यापक स्तर पर उत्खनन किया गया । गुजरात के 'कच्छ', 'सौराष्ट्र' तथा गुजरात के मैदानी भागों में सैंधव सभ्यता से सम्बन्घित 22 पुरास्थल है, जिसमें से 14 कच्छ क्षेत्र में तथा शेष अन्य भागों में स्थित है। गुजरात प्रदेश में ये पाए गए प्रमुख पुरास्थलों में 'रंगपुर', 'लापेथल', 'पाडरी', 'प्रभास-पाटन', 'राझदी', 'देशलपुर', 'मेघम', 'वेतेलोद', 'भगवतराव', 'सुरकोटदा', 'नागेश्वर', 'कुन्तासी', 'शिकारपुर' तथा 'धौलावीरा' आदि है।
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| ====महाराष्ट्र====
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| प्रदेश के 'दायमाबाद' नामक पुरास्थल से मिट्टी के ठीकरे प्राप्त हुए है जिन पर चिरपरिचित सैंधव लिपि में कुछ लिखा मिला है, किन्तु पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में सैंधव सभ्यता का विस्तार [[महाराष्ट्र]] तक नहीं माना जा सकता है। ताम्र मूर्तियों का एक निधान, जिसे प्रायः हडप्पा संस्कृति से सम्बद्ध किया जाता है, वह महाराष्ट्र और दायमादाबद नामक स्थान से प्राप्त हुआ है - इसमें रथ चलाते मनुष्य, सांड, गैंडा, और हांथी की आकृति प्रमुख है। यह सभी ठोस धातु की है और वजन कई किलो है, इसकी तिथि के विषय में विद्धानों में मतभेद है।
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| ====अफगानिस्तान====
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| हिन्दुकश के उत्तर में अफगानिस्तान में स्थित मुंडीगाक और सोर्तगोई दो पुरास्थल है। मुंडीगाक का उत्खनन जे.एक. कैसल द्वारा किया गया था तथा सोर्तगोई की खोज एवं उत्खनन हेनरी फ्रैंकफर्ट द्वारा कराया गया था। सोर्तगोई लाजवर्द की प्राप्ति के लिए वसाई कई व्यापारिक बस्ती थी।
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| ==काल निर्धारण==
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| सैंधव सभ्यता के काल को निर्धारित करना निःसंदेश बड़ा ही कठिन काम है, फिर भी विभिन्न विद्धानों ने इस विवादास्पद विषय पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। 1920 ई.पू. के दशक में सर्वप्रथम हड़प्पाई सभ्यता का ज्ञान हुआ। हड़प्पाई सभ्यता का काल निर्धारण मुख्य रूप से मेसोपोटामिया में उर औ किश स्थलों पर पाए गए हड़प्पाई मुद्राओं के आधार पर किया गया। इस क्षेत्र में सर्वप्रथम प्रयास जॉन मार्शल का रहा। उन्होने 1931 ई. में इस सभ्यता का काल 3250 ई.पू. 2750 ई.पू. निर्धारित किया। ह्यीलर ने इसका काल 2500-1500 ई.पू. माना है। बाद के समय में काल निर्धारण की रेडियो विधि का अविष्कार हुआ और इस विधि से इस सभ्यता का काल निर्धारण इस प्रकार है-
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| #पूर्व हड़प्पाई चरण: लगभग 3500-2600 ई.पू.
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| #परिपक्व हड़प्पाई चरण - लगभग 2600-1900 ई.पू.
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| #उत्तर हड़प्पाई चरण: लगभग 1900-1300 ई.पू.
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| #रेडियो कार्बन ‘सी-14‘ जैसी नवीन विश्लेषण पद्धति के द्वारा हड़प्पा सभ्यता का सर्वमान्य काल 2500 ई.पू. से 1750 ई.पू. को माना गया है।
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| *विभिन्न विद्धानों द्वारा सिंधु सभ्यता का काल निर्धारण
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| {| width=90% class="wikitable"
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| |+विभिन्न विद्धानों द्वारा सिंधु सभ्यता का काल निर्धारण
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| |-
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| !काल
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| !विद्धान
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| |-
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| | 1- 3,500 - 2,700 ई.पू.
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| | माधोस्वरूप वत्स
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| |-
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| |2- 3,250 - 2,750 ई.पू.
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| जॉन मार्शल
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| |3- 2,900 - 1,900 ई.पू.
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| डेल्स
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| |4- 2,800 - 1,500 ई.पू. .
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| अर्नेस्ट मैके
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| |-
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| |5- 2,500 - 1,500 ई.पू.
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| मार्टीमर ह्यीलर
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| |-
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| |6- 2,350 - 1,700 ई.पू.
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| सी.जे. गैड
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| |-
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| |7- 2,350 - 1,750 ई.पू.
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| डी.पी. अग्रवाल
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| |-
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| |8- 2,000 - 1,500 ई.पू.
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| फेयर सर्विस.
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| |-
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| |}
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| ==सिधु सभ्यता के निर्माता और निवासी==
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| यह अत्यन्त ही विवादाग्रस्त विषय है। इस विवाद में कुछ विद्धानों के प्रकार हैं-
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| *डाॅ लक्ष्मण स्वरूप और रामचन्द्र सिंधु सभ्यता एवं वैदिक सभ्यता दोनों के निर्माता के रूप में आर्यो को मानते हैं।
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| *गार्डन चाइल्ड सिंधु सभ्यता के निर्माता के रूप में सुमेरियन लोगों को मानते हैं।
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| *राखाल दास बनर्जी इस सभ्यता के निर्माता के रूप में द्रविड़ों को मानते हैं
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| *ह्ीलर का मानना है कि ऋग्वेद में वर्णित दस्यु एवं ‘दास‘ सिंधु सभ्यता के निर्माता थे।
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| *इन समस्त विवादों का अवलोकन करके डॉ. रमा शंकर त्रिपाठी का कहना है कि ‘ऐतिहासिक ज्ञान की इस सीमा पर खड़े होकर अभी इस विषय पर हमारा मौन ही सराह्य और उचित है‘।
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| ==मुख्य स्थल==
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| हड़प्पा- पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में स्थित माण्टगोमरी जिले में रावी नदी के बायें तट पर यह पुरास्थल है। हड़प्पा में ध्वंशावशेषों के विषय में सबसे पहले जानकारी 1826 ई. में चाल्र्स मैन्सर्न ने दी। 1856 ई. में ब्रण्टन बन्धुओं ने हड़प्पा के पुरातात्विक महत्व को स्पष्ट किया। जॉन मार्शल के निर्देशन में 1921 ई. में दयाराम के पुरातात्विक महत्व को स्पष्ट किया। जॉन मार्शल के निर्देशन में 1921 ई. में दयाराम साहनी ने इस स्थल को स्पष्ट किया। जॉन मार्शल के निर्देशन में 1921 ई. में दयाराम साहनी ने इस स्थल का उत्खनन कार्य प्रारम्भ करवाया। 1946 में मार्टीमर ह्ीलर ने हड़प्पा के पश्चिमी दुर्ग टीले की सुरक्षा का प्राचीर का स्वरूप ज्ञात करने के लिए यहां उत्खनन करवाया। इसी उत्खनन के आधार पर हीलर ने रक्षा प्राचीन एवं समधि क्षेत्र के पारस्परिक सम्बन्धों को निर्धारित किया है। यह नगर गरीब 5 कि.मी. के क्षेत्र में बसा हुआ है। हड़प्पा से प्राप्त दो टीलों में पूर्वी टीले को नगर टीला तथा पश्चिमी टीले को दुर्ग टीला के नाम से सम्बोधित किया गया। हड़प्पा का दुर्ग क्षेत्र सुरक्षा- प्राचीन से घिरा हुआ था। दुर्ग का आकार समलम्ब चतुर्भुज की तरह था। दुर्ग का उत्तर से दक्षिण से लम्बाई 420मी. तथा पूर्व से पश्चिम चैड़ाई 196 मी. है। उत्खननकर्ताओं ने दुर्ग के टीले को माउण्ट 'AB' नाम दिया है। दुर्ग का मुख्य प्रवेश द्वार उत्तर-दिशा में तथा दूसरा प्रवेश द्वार दक्षिण दिशा में था। रक्षा-प्राचीर लगभग 12 मीटर ऊंची थी जिसमें स्थान-स्थान पर तोरण अथवा बुर्ज बने हुए थे। हड़प्पा के दुर्ग के बाहर उत्तर दिशा में स्थित लगभग 6 मीटर ऊंचे टीले को ‘एफ‘ नाम दिया है गया है जिस पर अन्नागार, अनाज कूटने की वृत्ताकार चबूतरे और श्रमिक आवास के साक्ष्य मिले हैं।
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| सी-17
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| यहां पर 6:6 की दो पंक्तियों में निर्मित कुल बारह कक्षों वाले एक अन्नागार का अवशेष प्राप्त हुआ हैं, जिनमें प्रत्येक का आकार 50x20 मी का है, जिनका कुल क्षेत्रफल 2,745 वर्ग मीटर से अधिक है। हड़प्पा से प्रान्त अन्नागार नगरमढ़ी के बाहर रावी नदी के निकट स्थित थे। हड़प्पा के ‘एफ‘ टीले में पकी हुई ईटों से निर्मित 18 वृत्ताकार चबूतरे मिले हैं। इन चबूतरों में ईटों की खड़े रूप में जोड़ा गया है। प्रत्येक चबूतरे का व्यास 3.20 मी. है। हर चबूतरे में सम्भवतः ओखली लगाने के लिए छेद था। इन चबूतरों के छेदों में राख जले हुए गेहूं तथा जौं के दाने एवं भूसा के तिनके मिले है। मार्टीमर ह्रीलर का अनुमान है कि इन चबूतरों का उपयोग अनाज पीसने के लिए किया जाता रहा होगा। श्रमिक आवास के रूप में विकसित 15 मकानों की दो पंक्तियां मिली हैं जिनमें उत्तरी पंक्ति में सात एवं दक्षिणी पंक्ति में 8 मकानों के अवशेष प्राप्त हुए, प्रत्येक मकान का आकार लगभग 17x7.5 मी का है। प्रत्येक गृह में कमरे तथा आंगन होते थे। इनमें मोहनजोदड़ों के ग्रहों की भांति कुएं नहीं मिले हैं। श्रमिक आवास के नजदीक ही करीब 14 भट्टों और धातु बनाने की एक मूषा (Crucible) ;ब्तनबपइसमद्ध के अवशेष मिले हैं। इसके अतिरिक्त यहां से प्राप्त कुछ महत्वपूर्ण अवशेष- एक बर्तन पर बना मछुआरे का चित्र, शंख का बना बैल, पीतल का बना इक्का, ईटों के बृत्ताकार चबूतरें जिनका उपयोग संभवतः फसल को दाबने में किया जाता था, साथ ही गेहूं तथा जौ के दानों के अवशेष भी मिले हैं।
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| हड़प्पा के सामान्य आवास क्षेत्र के दक्षिण में एक ऐसा कब्रिस्तान स्थित है जिसे ‘समाधि आर-37‘ नाम दिया गया है। यहां पर प्रारम्भ में माधोस्वरूप वत्स ने उत्खनन कराया था, बाद में 1946 में ह्ीलर ने भी यहां पर उत्खनन कराया था। यहां पर खुदाई से कुल 57 शवाधान पाए गए हैं। शव प्रायः उत्तर-दक्षिण दिशा में दफनाए जात थे जिनमें सिर उत्तर की ओर होता था। एक कब्र में लकड़ी के ताबूत में लाश को रखकर यहां दफनाया गया था। 12 शबाधानों से कांस्य दर्पण भी पाए गए हैं। एक सुरमा लगाने की सप्लाई, एक से सीपी की चम्मच एवं कुछ अन्यय से पत्थर के फलक (ब्लेड) पाए गए हैं। हड़प्पा में सन् 1934 में एक अन्य समाधि मिली थी जिसे समाधि एच नाम दिया गया था। इसका सम्बंध सिन्धु सभ्यता के बाद के काल से था।
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| ==मोहनजोदड़ों==
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| इस सभ्यता के ध्वंशावशेष पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त के लरकाना जिले में सिंधु नदी के दाहिने किनारे पर प्राप्त हुए हैं। यह नगर करीब 5 कि.मी. के क्षेत्र में फैला हुआ है। मोहनजोदड़ों के टीलो का 1922 ई. में खोजने का श्रेय राखालदास बनर्जी को प्राप्त हुआ। यहां पूर्व और पश्चिम (नगर के)दिशा में प्राप्त दो टीलों के अतिरिक्त सार्वजनिक स्थलों में एक विशाल स्नागार एवं महत्वपूर्ण भवनों में एक विशाल अन्नागार (जिसका आकार 150x75 मी. है) के अवशेष मिले हैं, सम्भवतः यह अन्नागार मोहनजोदड़ों के बृहद भवनों मे से एक है। हड़प्पा सभ्यता के बने हुए विभिन्न आकार-प्रकार के 27 प्रकोष्ठ मिले हैं। इनके अतिरिक्त सभी भवन एवं पुरोहित आवास के ध्वंसावशेष भी सार्वजनिक स्थलों की श्रेणी में आते हैं। पुराहित आवास वृहत्तस्नानागार के उत्तर-पूर्व में स्थित था।
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| मोहनजोदड़ों के पश्चिमी भाग में स्थित दुर्ग टीले को ‘स्तूप टीला‘ भी कहा जाता है। क्योंकि यहां पर कुषाण शासकों ने एक स्तूप का निर्माण करवाया था। मोहनजोदड़ों से प्राप्त अन्य अवशेषों में, कुम्भकारों के 6 भट्टों के अवशेष, सूती कपड़ा, हाथी का कपाल खण्ड, गले हुए तांबें के ढेर, सीपी की बनी हुई पटरी एवं कांसे की नृत्यरत नारी की मूर्ति के अवशेष मिले हैं।
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| सी-18
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| राना थुण्डई के निम्न स्तरीय धरातल की खुदाई से घोड़े के दांत के अवशेष मिले हैं जो संभवतः सभ्यता एवं संस्कृति से अनेक शताब्दी पूर्व के प्रतीत होते हैं। मोहन जोदड़ों नगर के ‘एच आर क्षेत्र से जो मानव प्रस्तर मूर्तियां मिले हैं, उसमें से दाढ़ी युक्त सिर विशेष उल्लेखनीय हैं। मोहनजोदड़ों के अन्तिम चरण से नगर क्षेत्र के अन्दर मकानों तथा सार्वजनिक मार्गो पर 42 कंकाल अस्त-व्यस्त दशा में पड़े हुए मिले हैं। इसके अतिरिक्त मोहनजोदड़ों से लगभग 1398 मुहरें (मुद्राएंे) प्राप्त हुयी हैं जा कुल लेखन सामग्री का 56.67 प्रतिशत अंश है। पत्थर के बने मूर्तियों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण शैलखड़ी से बना 19 सेमी. लम्बा पुरोहित है का धड़ है। चूना पत्थर का बना एक पुरूष का सिर (14 सेमी.), शैलखड़ी से बना एक मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त अन्य अवशेषो में- सूती व ऊनी कपड़े का साक्ष्य, प्रोटो-आस्ट्रोलायड या काकेशियन जाति के तीन सिर मिले हैं, कुबड़वाले बैल की आकृति युक्त मुहरे, बर्तन पकाने के छः भट्टे, एक बर्तन पर नाव का बना चित्र था, जालीदार अलंकरण युक्त मिट्टी का बर्त, गीली मिट्टी पर कपड़े का साक्ष्य, पशुपति शिव की मूर्ति, ध्यान की आकृति वाली मुद्रा उल्लेखनीय हैं। मोहनजोदड़ों की एक मुद्रा पर एक आकृति है जिसमें आधा भाग मानव का है आधा भाग वाघ का है। एक सिलबट््टा तथा मिट्टी का तराजू भी मिला है। मोहनजोदड़ों से प्राप्त पशुपति की मुहर पर बैल का चित्र अंकित नहीं है।
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| मोहनजोदड़ों से अभी तक समाधि क्षेत्र (अगर कोई था) के विषय में जानकारी नहीं है। मोहनजोदड़ों के नगर के अन्दर शव विसर्जन के दो प्रकार के साक्ष्य मिले हैं- (1) आंशिक शवाधान और (2) पूर्ण समाधीकरण (दफनाना)।
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| ==चन्हूदड़ों==
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| मोहनजोदड़ों के दक्षिण में स्थित चन्हूदड़ों नामक स्थान पद मुहर एवं गुड़ियों के निर्माण के साथ-साथ हड्डियों से भी अनेक वस्तुओं का निर्माण होता था। इस नगर की खोज सर्वप्रथम 1931 में एन.गोपाल मजूमदार ने किया तथा 1943 ई. में मैके द्वारा यहां उत्खनन करवाया गया। सबसे निचले स्तर से सैंधव संस्कृति के साख्य मिलते हैं। यहां पर गुरिया निर्माण हेतु एक कारखाने का अवशेष मिला है। यहां पर सैन्धवकालीन संस्कृति के अतिरिक्त प्राक् हड़प्पा संस्कृति, ‘ झूकर संस्कृति‘ एवं ‘ झांगर संस्कृति‘ के भी अवशेष मिले हैं। चन्हूदड़ों से किलेबन्दी के साक्ष्य नहीं मिले है। यहां से प्राप्त अन्य अवशेषों में अलकृति हाथी एवं कुत्ते द्वारा बिल्ली का पीछा करते हुए पदचिन्ह प्राप्त हुए हैं। सौन्दर्य प्रसाधनों में प्रयुक्त लिपिस्टिक के अवशेष भी यहां से मिले हैं। तांबे और कांसे के औजार और सांचों के भण्डार मिले हैं जिससे यह स्पष्ट होता कि मनके बनाने, हड्डियों की वस्तुएं, मुद्राएं बनाने आदि की दस्तकारियां यहां प्रचलित थी। वस्तुए निर्मित व अर्द्धनिर्मित दोनों रूप में पाई गई जिससे यह आभास होता था कि यहां पर मुख्यतः दस्तकार और कारीगर लोग रहते थे। वस्तुंए जिस प्रकार चारों और फैली पड़ी थी, उससे यहां के निवासियों के मकान छोड़कर सहसा भागने के साक्ष्य मिलते हैं। इसके अतिरिक्त चन्हुदड़ों से जला हुआ एक कपाल मिला है। चार पहियों वाली गाड़ी भी मिली है। चन्हुदड़ों की एक मिट्टी की मुद्रा पर तीन घड़ियालों तथा दो मछलियों का अंकन मिला है। यहां से एक वर्गाकार मुद्रा की छाप पर दो नग्न नारियो, जो हाथ में एक-एक ध्वज पकड़े है तथा ध्वजों के बीच से पीपल की पंक्तियां निकल रही हैं। यहां से मिली एक ईट पर कुत्ते और बिल्ली के पंजों के निशान मिले हैं। साथ ही मिट्टी के मोर की एक आकृति भी मिली है।
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| चन्हूदड़ों एक मात्र पुरास्थल है जहां से वक्रकार ईटें मिली हैं। चन्हुदड़ों में किसी दुर्ग का अस्तित्व नहीं मिला है।
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| ==लोथल==
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| यह गुजरात के अहमदाबाद जिले में भोगावा नदी के किनारे सरगवाला नामक ग्राम के समीप स्थित है। खुदाई 1954-55 ई. में रंगनाथ राव के नेतृत्व में की गई। इस स्थल से समकालीन सभ्यता के पांच स्तर पाए गए हैं। यहां पर दो भिन्न-भिन्न टीले नहीं मिले हैं, बल्कि पूरी बस्ती एक ही दीवार से घिरी थी। यह छः खण्डों में विभक्त था। लोथल का ऊपरी नगर था नगर दुर्ग विषय चतुर्भुजाकार था जो पूर्व से पश्चिम 117 मी. और उत्तर से दक्षिण की ओर 136 मी. तक फैला हुआ था। लोथ नगर के उत्तर में एक बाजार और दक्षिण में एक औद्योगिक क्षेत्र था। मनके बनाने वालों, तांबे तथा सोने का काम करने वाले शिल्पियों की उद्योगशालाएं भी प्रकाश में आई हैं। यहां से एक घर के सोने के दाने, सेलखड़ी की चार मुहरें, सींप एवं तांबे की बनी चूड़ियों और बहुत ढंग से रंगा हुआ एक मिट्टी का जार मिला है। लोथल से शंख के कार्य करने वाले दस्तकारों और ताम्रकर्मियों के कारखाने भी मिले हैं। नगर दुर्ग के पश्चिम की ओर विभिन्न आकार के 11 कमरें बने थे, जिनका प्रयोग मनके या दाना बनाने वाले फैक्ट्री के रूप में किया जाता था। लोथल नगर क्षेत्र के बाहरी उत्तरी-पश्चिमी किनारे पर समाधि क्षेत्र का जहां से बीस समाधियां मिली हैं। यहां की सर्वाधिक प्रसिद्व उपलब्धि हड़प्पाकाली बन्दरगाह के अतिरिक्त विशिष्ट मृदभांड, उपकरण, मुहरें, बांट तथा माप एवं पाषाण उपकरण है। यहां तीन चुग्मित समाधि के भी उदाहरण मिले हैं। स्त्री-पुरूष शवाधान के साक्ष्य भी लोथल से ही मिले है। लोथल की अधिकांश कबा्रे में कंकाल के सिर उत्तर की ओर और पैर दक्षिण की ओर था। केवल अपवाद स्वरूप एक कंकाल का दिशा पूर्व-पश्चिम की ओर मिला है।
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| लोथल के पूर्व भाग में स्थित बन्दरगाह (गोदी) का औसत आकार214x36 मीटर तथा गहराई 3.3 मीटर है। गोदी की उत्तरी दीवाल में 12 मीटर चौड़ा एक प्रवेश द्वार था जिससे जहाज आते-जाते थे और दक्षिण दीवाल में अतिरिक्त जल के लिए निवास द्वार था। लोथल में गढ़ी और नगर दोनों एक ही रक्षा प्राचीर से घिरे हैं। अन्य अवशेषों में धान (चावल), फारस की मुहरों एवं घोड़ों की लघु मृण्मूर्तियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त अन्य अवशेषों में लोथल से प्राप्त एक मृदभांड पर एक विशेष चित्र उकेरा गया है जिस पर एक कौआ तथा एक लोमड़ी उत्कीर्ण है। इससे इसका साम्य पंचतंत्र की कथा चालाक लोमड़ी से किया गया है। यहां से उत्तर अवस्था की एक अग्निवेदी मिली है। नाव के आकार की दो मुहरें तथा लकड़ी का अन्नागार मिला है। अन्न पीसने की चक्की, हाथी दांत तथा पीस का पैमाना मिला है। यहां से एक छोटा सा दिशा मापक यंत्र भी मिला है। तांबे की पक्षी, बैल, खरगोश व कुत्ते की आकृतियां मिली है, जिसमें तांबा का कुत्ता उल्लेखनीय है। यहां बटन के आकार की एक मुद्रा मिली है। लोथल से मोसोपोटामिया मूल की तीन बेलनाकार मुहरे मिली है। आटा पीसने के दो पाट मिले है जो पूरे सिन्धु का एक मात्र उदाहरण है।
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| उत्खननों से लोथल की जो नगर-योजना और अन्य भौतिक वस्तुए प्रकाश में आई है उनसे लोथल एक लघु हड़प्पा या मोहनजोदड़ों नगर प्रतीत होता ह। सम्भवतः समुद्र के तट पर स्थित सिंधु-सभ्यता का यह स्थल पश्चिम एशिया के साथ व्यापार के दृष्टिकोण से सर्वात्तम स्थल था।
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| रोपड़- पंजाब प्रदेश के रोपड़ जिले सतजल नदी क बांए तट पर स्थित है। यहां स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् सर्वप्रथम उत्खनन किया गया था। इसका आधुनिक नाम रूप नगर था। 1950 में इसकी खोज बी.बी.लाल ने की थी। यहां संस्कृति के पांच चरण मिलते हैं जो इस प्रकार है - हड़प्पा, चित्रित धूसर मृदभांड, उत्तरी काले पालिश वाले, कुषाण, गुप्त और मध्यकालीन मृदभांड। यहां पर हड़प्पा पूर्व एवं हड़प्पाकालीन संस्कृतियो के अवशेष मिले है। इस स्थल की खुदाई 1953-56 में यज्ञ दत्त शर्मा के द्वारा की गई थी। यहां प्राप्त मिट्टी के बर्तन, आभूषण चर्ट, फलग एवं तांबे की कुल्हाड़ी महत्वपूर्ण है। यहां पर मिले मकानों के अवशेषों से लगता है कि यहां के मकान पत्थर एवं मिट्टी से बनाये गये थे। यहां शवों को अण्डाकार गढ्ढों में दफनाया जाता था। एक स्थान से शवाधान के लिए प्रयोग होने वाले ईटों का एक छोटा कमरा भी मिला है। कुछ शवाधान से मिट्टी के पकाए गए आभूषण, शंख की चूड़ियां, गोमेद पत्थर के मनके, तांबे की अंगूठियां आदि प्राप्त हुयी हैं। रोपड़ से एक ऐसा कब्रिस्तान मिला है जिसमें मनुष्य के साथ पालतू कुत्ता भी दफनाया गया था। ऐसा उदाहरण किसी भी हड़प्पाकालीन स्थल से प्राप्त नहीं हुआ है। परन्तु इस प्रकार की प्रथम नवपाषाण युग में बुर्जहोम (कश्मीर) में प्रचलित थी।
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| ==कालीबंगा (काले रंग की चूड़ियां)== यह स्थल राजस्थान के गंगानगर जिले में घग्घर नदी के बाएं तट पर स्थित है। खुदाई 1953 में बी.बी. लाल एवं बी.बी. के थापड़ द्वारा करायी गयी। यहां पर प्राक् हड़प्पा एवं हड़प्पाकालीन संस्कृति के अवशेष मिले हैं। हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ों की भांति यहां पर सुरक्षा दीवार से धीरे दो टीले पाए गए हैं। कुछ विद्धानों का मानना है कि यह सैंधव सभ्यता की तीसरी राजधानी रही होगी। कालीबंगा के दुर्ग टीले के दक्षिण भाग में मिट्टी और कच्चे ईटों के बने हुए पांच चबूतरे मिले हैं जिसके शिखर पर हवन कुण्डों के होने के साक्ष्य मिले हैं। अन्य हड़प्पा कालीन नगरों की भांति कालीबंगा दो भागों नगर दुर्ग (या गढ़ी) और नीचे दुर्ग में विभाजित था। नगर दुर्ग समनान्तर चतुर्भुजाकार था। यहां पर भवनों के अवशेष से स्पष्ट होता है कि यहां भवन कच्ची ईटों के बने थे।
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