जैसलमेर का साहित्य: Difference between revisions
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Revision as of 06:23, 17 January 2011
- मरु संस्कृति का प्रतीक जैसलमेर कला व साहित्य का केन्द्र रहा है। उसने हमारी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने में एक प्रहरी की तरह कार्य किया है।
- जैन श्रति की विक्रम संवत 1500 खतर गच्छाचार्य जिन भद्रसूरि के निर्देशानुसार व जैसलमेर के महारावल चाचगदेव के समय गुजरात स्थल पारण से जैन ग्रंथों का बहुत बङा भण्डारा जैसलमेर दुर्ग में स्थानान्तरित किया गया था।
- अन्य जनश्रुति के अनुसार यह संग्रह चंद्रावलि नामक नगर का मुस्लिम आक्रमण में पूर्णत- ध्वस्त होने पर सुरक्षित स्थान की तलाश में यहाँ लाया गया था। इस विशाल संग्रह को अनेक जैन मुनि, धर्माचार्यों, श्रावकों एवं विदुषी साध्वियों द्वारा समय-समय पर अपनी उत्कृष्ट रचनाओं द्वारा बढ़ाया दिया गया। यहाँ रचे गए अधिकांश ग्रंथों पर उस समय के शासकों के नाम, वंश, समय आदि का वर्णन किया गया है।
- यहाँ रखे हुए ग्रंथों की कुल संख्या 2683 है, जिसमें 426 पत्र लिखें हैं। यहाँ ताङ्पत्र पर उपलब्ध प्राचीनतम ग्रंथ विक्रम संवत् 1117 का है। तथा हाथ से बने कागज पर हस्तलिखित ग्रंथ विक्रम संवत् 1270 का है। इन ग्रंथों की भाषा प्राकृत, मागधी, संस्कृत, अपभ्रंश तथा ब्रज है।
- यहाँ पर जैन ग्रंथों के अलावा कुछ जैनोत्तर साहित्य की भी रचना हुई, जिनमें काव्य, व्याकरण, नाटक, श्रृंगार, सांख्य, मीमांसा, न्याय, विषशास्र, आर्युवेद, योग इत्यादि कई विषयों पर उत्कृष्ट रचनाओं का मुख्य स्थान है।[1]
इतिहास
वस्तुतः 13वी से 18वीं सदी के मध्य का काल यहाँ का साहित्य रचना का स्वर्णकाल था। इस काल में यहाँ डिंगल तथा पिंगल दोनो में रचानाएँ लिखी गई थी। जैसलमेर के बोगजियाई गाँव के आनंद कर्मानंद मिश्रण ने 12वीं शताब्दी में वीर रस की सुंदर रचनाएँ की है। उनकी रचनाओं में अपभ्रंश भाषा से राजस्थानी भाषा के जन्म की प्रक्रिया देखने को मिलती है। विक्रम संवत 1284 में जैनाचार्य पूर्व भद्रमणि द्वारा रचित धन्य शालिभद्र चरित्र अमूल्य कृति है। जैन मुनि खरतर सूरि ने विक्रम संवत 1287 में स्वपन सप्त विकावृति नामक ग्रंथ की रचना की। इसी प्रकार विक्रम संवत 1334 में विवेक सूद्रमणि द्वारा रचित प्रण्य सार कथा व विक्रम संवत 1406 में गुण समृदिमहतरा रचित "अंजनासुंदरी चरित्र" उल्लेखनीय कृतियाँ हैं।
इसी काल में चारण कवियों गांव हड्डा के आल्हा जी बारहठ गाँव बोगजियाई के कवि पीठवा और दधवा के मांडण दधवाडिया चारणों के नाम उल्लेखनीय है। कहा जाता है कि कवि पीठवा जो मेवाड़ के राणा कुंभा का समकालीन था, द्वारा प्रस्तावित करो पसाव के सम्मान को अस्वीकार कर जैसलमेर के शासक के गौरव को बढ़ाया था। पीठवा अपने समय का एक प्रसिद्ध एवं श्रेष्ठ कवि था। पीठवा द्वारा रचित काव्य का एक दोहा जो दैनिक जीवन की नीति से संबंधित है, इस प्रकार है-
आयो न कहे आव, वलता बैलवे नहीं।
तिण घर कदै न पांव, परत न दीजै पीठवा।।
महारावल दूदा के समय मांडण तथा हूंपा राज्य कवि थे। हूंपा के समय का एक प्रचलित दोहा इस प्रकार है :-
सांदू हूंपै सेवियो, साहब दुर्जन सल्ल।
बिडदा माथो बोलियो, गीता दूहा गल्ल।।
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