दिल्ली का इतिहास: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Text replace - "शुरु " to "शुरू ")
Line 14: Line 14:
तुग़लक़ों के परवर्ती सैयद (1414-1444) और लोदी (1451-1526) शासकों ने स्वयं को फ़िरोज़ाबाद तक सीमित रखा। उनके शासन काल के दौरान लगातार उपद्रव चलते रहे और उन्हे नए शहर बसाने का समय नहीं मिला। 1526 में भारत के पहले मुग़ल शासक बाबर का प्रवेश हुआ और उन्होंने आगरा को अपनी राजधानी बनाया। 1530 में उनके बेटे हुमायूं गद्दी पर बैठे और उन्होंने 10 संघर्षमय वर्षो तक दिल्ली पर राज किया। 1553 में उन्होंने अपने शासन की स्थापना के उपलक्ष्य में नए शहर दीनपनाह का निर्माण किया इसके लिए बड़ी सावधानी से यमुना के किनारे एक स्थान चुना गया। अब इस शहर का नामोनिशान नहीं है। क्योंकि शेरशाह सूरी ने इसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था।
तुग़लक़ों के परवर्ती सैयद (1414-1444) और लोदी (1451-1526) शासकों ने स्वयं को फ़िरोज़ाबाद तक सीमित रखा। उनके शासन काल के दौरान लगातार उपद्रव चलते रहे और उन्हे नए शहर बसाने का समय नहीं मिला। 1526 में भारत के पहले मुग़ल शासक बाबर का प्रवेश हुआ और उन्होंने आगरा को अपनी राजधानी बनाया। 1530 में उनके बेटे हुमायूं गद्दी पर बैठे और उन्होंने 10 संघर्षमय वर्षो तक दिल्ली पर राज किया। 1553 में उन्होंने अपने शासन की स्थापना के उपलक्ष्य में नए शहर दीनपनाह का निर्माण किया इसके लिए बड़ी सावधानी से यमुना के किनारे एक स्थान चुना गया। अब इस शहर का नामोनिशान नहीं है। क्योंकि शेरशाह सूरी ने इसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था।


अगले दो मुग़ल शासकों अकबर और जहाँगीर ने आगरा को राजधानी बनाकर भारत पर शासन करना पसंद किया लेकिन दिल्ली के महत्त्व को समझकर वे बीच–बीच मे दिल्ली आते रहे। 1636 में शाहजहाँ ने अभियंताओं, वास्तुविदों तथा ज्योतिषियों को आगरा व लाहौर के बीच अच्छे जलवायु वाले स्थान के चयन का निर्देश दिया। यमुना के पश्चिमी किनारे पर पुराने क़िले के उत्तर में सुल्तानों की हजरत दिल्ली का चयन किया गया। शाहजहाँ ने यहाँ उर्दू –ए-मौला नामक एक क़िले को केंद्र में रखकर नई राजधानी का निर्माण शुरु करवाया। लाल क़िले के नाम से विख्यात यह क़िला आठ वर्षो में पूर्ण हुआ और 19 अप्रैल 1648 को शाहजहाँ ने अपनी इस नई राजधानी शाहजहाँनाबाद के क़िले में नदी के सामने वाले द्वार से प्रवेश किया।  
अगले दो मुग़ल शासकों अकबर और जहाँगीर ने आगरा को राजधानी बनाकर भारत पर शासन करना पसंद किया लेकिन दिल्ली के महत्त्व को समझकर वे बीच–बीच मे दिल्ली आते रहे। 1636 में शाहजहाँ ने अभियंताओं, वास्तुविदों तथा ज्योतिषियों को आगरा व लाहौर के बीच अच्छे जलवायु वाले स्थान के चयन का निर्देश दिया। यमुना के पश्चिमी किनारे पर पुराने क़िले के उत्तर में सुल्तानों की हजरत दिल्ली का चयन किया गया। शाहजहाँ ने यहाँ उर्दू –ए-मौला नामक एक क़िले को केंद्र में रखकर नई राजधानी का निर्माण शुरू करवाया। लाल क़िले के नाम से विख्यात यह क़िला आठ वर्षो में पूर्ण हुआ और 19 अप्रैल 1648 को शाहजहाँ ने अपनी इस नई राजधानी शाहजहाँनाबाद के क़िले में नदी के सामने वाले द्वार से प्रवेश किया।  
[[चित्र:Akshardham-Temple-Delhi.jpg|thumb|300px|[[अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली|अक्षरधाम मंदिर]], दिल्ली<br />Akshardham Temple, Delhi]]
[[चित्र:Akshardham-Temple-Delhi.jpg|thumb|300px|[[अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली|अक्षरधाम मंदिर]], दिल्ली<br />Akshardham Temple, Delhi]]
लाहौर गेट क़िले का भव्य प्रवेशद्वार है। यहाँ से शहर की प्रमुख सड़क शुरु होकर फ़तेहपुरी मस्जिद तक जाती है। 36 मीटर चौड़ी यह सड़क शहर की मुख्य धुरी थी रात को बीच के जलाशय पर पड़ती चंद्रमा की रुपहरी रोशनी ने इस स्थान को चांदनी चौक नाम दिया। यह सड़क दिल्ली का सामारोह स्थल थी। शाहजहां और औरंगजेब यहाँ अपना शाही जुलूस निकालते थे, नादिरशाह और अहमद शाह अब्दाली विद्रोही घुड़सवार के रूप में निकले थे और मराठा व रोहिल्लाओं ने विजय उल्लास मनाया था। ब्रिटिश शासनकाल में जब दिल्ली को ब्रिटिश भारत की राजधानी बनाया गया, तो लॉर्ड हार्डिंग का जुलूस भी इसी मार्ग से निकला था। जामा मस्जिद का निर्माण 1644 में प्रारंभ हुआ और नगर प्राचीर का निर्माण 1651 से 1658 के बीच हुआ ये शहर में बनने वाले अगले महत्त्वपूर्ण स्मारक थे। अर्द्धचंद्राकार आकृति की यह दीवार 8 मीटर ऊँची, 3.5 मीटर चौड़ी व 6 किलोमीटर लंबी थी और यह लगभग 6.4 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को घेरे हुए थी। इस में सात विशाल दरवाजे थे (कश्मीरी, मोरी, काबुनी, लाहौरी, अजमेरी, तुर्कमानी और अकबराबादी) नदी की ओर की दीवार में भी तीन दरवाजे (राजघाट, किलाघाट और निगमबोधघाट) थे। शहर के प्रमुखमार्ग इन द्वारों तक जाते थे। छोटी पहाड़ी पर स्थित शाहजहाँनाबाद की जामा मस्जिद जो बादशाही मस्जिद के नाम से भी जानी जाती थी। भारत की सबसे बड़ी मस्जिद थी। 1662 में दिल्ली में हुए एक भीषण अग्निकांड में 60 हजार और 1716 में भारी वर्षा के कारण मकान ध्वस्त होने से 23 हजार लोग मारे गए थे।  
लाहौर गेट क़िले का भव्य प्रवेशद्वार है। यहाँ से शहर की प्रमुख सड़क शुरू होकर फ़तेहपुरी मस्जिद तक जाती है। 36 मीटर चौड़ी यह सड़क शहर की मुख्य धुरी थी रात को बीच के जलाशय पर पड़ती चंद्रमा की रुपहरी रोशनी ने इस स्थान को चांदनी चौक नाम दिया। यह सड़क दिल्ली का सामारोह स्थल थी। शाहजहां और औरंगजेब यहाँ अपना शाही जुलूस निकालते थे, नादिरशाह और अहमद शाह अब्दाली विद्रोही घुड़सवार के रूप में निकले थे और मराठा व रोहिल्लाओं ने विजय उल्लास मनाया था। ब्रिटिश शासनकाल में जब दिल्ली को ब्रिटिश भारत की राजधानी बनाया गया, तो लॉर्ड हार्डिंग का जुलूस भी इसी मार्ग से निकला था। जामा मस्जिद का निर्माण 1644 में प्रारंभ हुआ और नगर प्राचीर का निर्माण 1651 से 1658 के बीच हुआ ये शहर में बनने वाले अगले महत्त्वपूर्ण स्मारक थे। अर्द्धचंद्राकार आकृति की यह दीवार 8 मीटर ऊँची, 3.5 मीटर चौड़ी व 6 किलोमीटर लंबी थी और यह लगभग 6.4 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को घेरे हुए थी। इस में सात विशाल दरवाजे थे (कश्मीरी, मोरी, काबुनी, लाहौरी, अजमेरी, तुर्कमानी और अकबराबादी) नदी की ओर की दीवार में भी तीन दरवाजे (राजघाट, किलाघाट और निगमबोधघाट) थे। शहर के प्रमुखमार्ग इन द्वारों तक जाते थे। छोटी पहाड़ी पर स्थित शाहजहाँनाबाद की जामा मस्जिद जो बादशाही मस्जिद के नाम से भी जानी जाती थी। भारत की सबसे बड़ी मस्जिद थी। 1662 में दिल्ली में हुए एक भीषण अग्निकांड में 60 हजार और 1716 में भारी वर्षा के कारण मकान ध्वस्त होने से 23 हजार लोग मारे गए थे।  


शाहजहाँनाबाद के निर्माण के 10 वर्ष बाद ही शाहजहाँ के पुत्र औरंगज़ेब ने शहर पर कब्ज़ा करके उन्हें आगरा के क़िले में नज़रबंदकर दिया और जुलाई 1658 में स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया। औरंगज़ेब को विरासत में एक सघन और समृद्ध राजधानी मिली थी। लेकिन धीरे– धीरे इस शहर की अवनति शुरु हो गई, क्योंकि इसका नया शासक इसके संस्थापक के विपरीत एकदम भिन्न स्वभाव वाला था। शाहजहाँ ने कला को बढावा दिया और जिंदगी का लुत्फ उठाया औरंगज़ेब इन दोनों से दूर रहते थे। उन्हे शहर को सुदंर बनाने में न तो दिलचस्पी थी। न ही उन्हें इसका अवसर मिला। वह स्थायी रूप से शाहजहाँनाबाद में रहे ही नहीं। उनके उत्तराधिकारियों को एक विभाजित और निर्बल राज्य शासन करने को मिला। फ़ारस के लुटेरे नादिरशाह के जघन्य आक्रमण ने इस शहर पर अंतिम प्रहार किया।
शाहजहाँनाबाद के निर्माण के 10 वर्ष बाद ही शाहजहाँ के पुत्र औरंगज़ेब ने शहर पर कब्ज़ा करके उन्हें आगरा के क़िले में नज़रबंदकर दिया और जुलाई 1658 में स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया। औरंगज़ेब को विरासत में एक सघन और समृद्ध राजधानी मिली थी। लेकिन धीरे– धीरे इस शहर की अवनति शुरू हो गई, क्योंकि इसका नया शासक इसके संस्थापक के विपरीत एकदम भिन्न स्वभाव वाला था। शाहजहाँ ने कला को बढावा दिया और जिंदगी का लुत्फ उठाया औरंगज़ेब इन दोनों से दूर रहते थे। उन्हे शहर को सुदंर बनाने में न तो दिलचस्पी थी। न ही उन्हें इसका अवसर मिला। वह स्थायी रूप से शाहजहाँनाबाद में रहे ही नहीं। उनके उत्तराधिकारियों को एक विभाजित और निर्बल राज्य शासन करने को मिला। फ़ारस के लुटेरे नादिरशाह के जघन्य आक्रमण ने इस शहर पर अंतिम प्रहार किया।
[[चित्र:India-gate.jpg|thumb|left|[[इंडिया गेट]], दिल्ली <br />India Gate, Delhi]]
[[चित्र:India-gate.jpg|thumb|left|[[इंडिया गेट]], दिल्ली <br />India Gate, Delhi]]
1803 में अग्रेज़ शासकों ने जब दिल्ली पर कब्ज़ा किया तब यह वाणिज्य एवं व्यवसाय का प्रमुख केंद्र थी, यद्यपि क़िलाबंद शहर भव्य कितु जीर्ण–शीर्ण गंदी बस्ती में बदल चुका था। चारदीवारी क्षेत्र में लगभग एक लाख तीस हज़ार और उपनगरों में लगभग 20 हज़ार लोग रहते है। सुरक्षा और स्थान की द्दष्टि से ब्रिटिश कमांडरों ने ईस्ट इंडिया कपनी के कार्यालय लाल क़िले के आसपास के क्षेत्र में स्थापित किए जो घनी आबादी वाला नहीं था। उत्तरी भाग में रेज़िडेंसी बनाई गई, जहाँ छावनी, अस्तबल, वनस्पति क्षेत्र, शरत्रागार और बारुद भंडार, सीमा शुल्क कार्यालय एक बैंक दो अस्पताल, कुछ बंग़ले तथा एक गिरजाघर भी बनाए गए। नई सैन्य ज़रुरतों के हिसाब से क़िलेबंद मे कुछ परिर्वतन किए गए।  
1803 में अग्रेज़ शासकों ने जब दिल्ली पर कब्ज़ा किया तब यह वाणिज्य एवं व्यवसाय का प्रमुख केंद्र थी, यद्यपि क़िलाबंद शहर भव्य कितु जीर्ण–शीर्ण गंदी बस्ती में बदल चुका था। चारदीवारी क्षेत्र में लगभग एक लाख तीस हज़ार और उपनगरों में लगभग 20 हज़ार लोग रहते है। सुरक्षा और स्थान की द्दष्टि से ब्रिटिश कमांडरों ने ईस्ट इंडिया कपनी के कार्यालय लाल क़िले के आसपास के क्षेत्र में स्थापित किए जो घनी आबादी वाला नहीं था। उत्तरी भाग में रेज़िडेंसी बनाई गई, जहाँ छावनी, अस्तबल, वनस्पति क्षेत्र, शरत्रागार और बारुद भंडार, सीमा शुल्क कार्यालय एक बैंक दो अस्पताल, कुछ बंग़ले तथा एक गिरजाघर भी बनाए गए। नई सैन्य ज़रुरतों के हिसाब से क़िलेबंद मे कुछ परिर्वतन किए गए।  
Line 36: Line 36:
भारत के तत्कालीन वाइसरॉय बेरन चार्ल्स हार्डिंग चाहते थे कि पुरानी और नई दिल्ली का संयोजन एक हो। उन्होंने निर्देश दिए कि दोनों की योजना एक शहर के रूप में हो न कि दो अलग-अलग शहरों के रूप में किंतु लुटियंस अपने संकीर्ण शहरी सौंदर्यीकरण पर जमे हुए थे। उनकी विराट योजना मे पुरानी दिल्ली महज एक महत्त्वहीन ध्वस्त होता शहरी क्षेत्र था और वह चाहते थे कि उसे ज्यों का त्यों छोड़ दिया जाए। यह पूर्वाग्रह पुरानी दिल्ली के लिए घातक सिद्ध हुआ, जिसे [[1941]] और [[1951]] के बीच आए लगभग एक लाख शरणार्थियों को निवास प्रदान करना था। जहाँ नई दिल्ली के निवासी 6-8 व्यक्ति प्रति हेक्टेयर के घनत्व से अपने रहन सहन आदर्श बना रहे थे, वहीं  पुरानी दिल्ली 336 से 400 व्यक्ति प्रति हेक्टेयर के बोझ से दबी जा रही थी।  
भारत के तत्कालीन वाइसरॉय बेरन चार्ल्स हार्डिंग चाहते थे कि पुरानी और नई दिल्ली का संयोजन एक हो। उन्होंने निर्देश दिए कि दोनों की योजना एक शहर के रूप में हो न कि दो अलग-अलग शहरों के रूप में किंतु लुटियंस अपने संकीर्ण शहरी सौंदर्यीकरण पर जमे हुए थे। उनकी विराट योजना मे पुरानी दिल्ली महज एक महत्त्वहीन ध्वस्त होता शहरी क्षेत्र था और वह चाहते थे कि उसे ज्यों का त्यों छोड़ दिया जाए। यह पूर्वाग्रह पुरानी दिल्ली के लिए घातक सिद्ध हुआ, जिसे [[1941]] और [[1951]] के बीच आए लगभग एक लाख शरणार्थियों को निवास प्रदान करना था। जहाँ नई दिल्ली के निवासी 6-8 व्यक्ति प्रति हेक्टेयर के घनत्व से अपने रहन सहन आदर्श बना रहे थे, वहीं  पुरानी दिल्ली 336 से 400 व्यक्ति प्रति हेक्टेयर के बोझ से दबी जा रही थी।  


नई और पुरानी दिल्ली के बीच यह विसंगति शुरु से ही योजनाकारों के लिए रुकावट साबित हुई। प्रथम नगर योजना मे दिल्ली को एक गंदी बस्ती के रूप मे चित्रित किया गया और [[1980]] के दशक में ही जब दूसरी नगर योजना बनी उसे विरासत क्षेत्र के रूप मे कुछ महत्त्व दिया गया। लुटियंस  की दिल्ली को सदैव परम पावन क्षेत्र समझा गया और इसकी मूल योजना तथा जनसंख्या में परिर्वतन के सुझावों का जनता एवं योजना दोनों के द्वारा विरोध किया गया। [[1970]] और [[1980]] के दशक में डी.डी.ए (दिल्ली विकास प्राधिकरण) ने आवास व्यवसाय पर एकाधिकार कर लिया और वर्तमान शहरी केंद्र के आसपास विशाल भवन संकुल खड़े कर दिये गए। उच्च आय, मध्य आय और निम्न आय वर्ग के समूहों के आधार पर आवास उपलब्ध कराए गए। जो इस आय वर्ग से बाहर थे, वे अनाधिकृत बस्तियों या झुग्गी झोपड़ियों (गंदी बस्तियों) में इफ़ाज़ा कर रहे हैं। जो अब जे.जे कॉलोनी जानी जाती है। 567 अनाधिकृत बस्तियाँ राजनीतिक दबाव में वैध घोषित की जा चुकी हैं। दिल्ली की आबादी के उमड़ते सैलाब को यमुना के पूर्वी तट पर बसाया गया है। जहाँ धीरे-धीरे  एक अलग ही दिल्ली आकार ले रही है। कई बड़े बाज़ार आवासीय भवन और धनाढ्य लोगों की कोठियाँ शहर की दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तरी परिधि में बनाई जा चुकी है।
नई और पुरानी दिल्ली के बीच यह विसंगति शुरू से ही योजनाकारों के लिए रुकावट साबित हुई। प्रथम नगर योजना मे दिल्ली को एक गंदी बस्ती के रूप मे चित्रित किया गया और [[1980]] के दशक में ही जब दूसरी नगर योजना बनी उसे विरासत क्षेत्र के रूप मे कुछ महत्त्व दिया गया। लुटियंस  की दिल्ली को सदैव परम पावन क्षेत्र समझा गया और इसकी मूल योजना तथा जनसंख्या में परिर्वतन के सुझावों का जनता एवं योजना दोनों के द्वारा विरोध किया गया। [[1970]] और [[1980]] के दशक में डी.डी.ए (दिल्ली विकास प्राधिकरण) ने आवास व्यवसाय पर एकाधिकार कर लिया और वर्तमान शहरी केंद्र के आसपास विशाल भवन संकुल खड़े कर दिये गए। उच्च आय, मध्य आय और निम्न आय वर्ग के समूहों के आधार पर आवास उपलब्ध कराए गए। जो इस आय वर्ग से बाहर थे, वे अनाधिकृत बस्तियों या झुग्गी झोपड़ियों (गंदी बस्तियों) में इफ़ाज़ा कर रहे हैं। जो अब जे.जे कॉलोनी जानी जाती है। 567 अनाधिकृत बस्तियाँ राजनीतिक दबाव में वैध घोषित की जा चुकी हैं। दिल्ली की आबादी के उमड़ते सैलाब को यमुना के पूर्वी तट पर बसाया गया है। जहाँ धीरे-धीरे  एक अलग ही दिल्ली आकार ले रही है। कई बड़े बाज़ार आवासीय भवन और धनाढ्य लोगों की कोठियाँ शहर की दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तरी परिधि में बनाई जा चुकी है।
====<u>प्राचीन नगरों में गणना</u>====
====<u>प्राचीन नगरों में गणना</u>====



Revision as of 14:43, 5 February 2011

[[चित्र:Qutub-Minar-Delhi.jpg|thumb|क़ुतुब मीनार, दिल्ली
Qutub Minar, Delhi]] महाकाव्य-महाभारत काल से ही दिल्ली का विशेष उल्लेख रहा है। दिल्ली का शासन एक वंश से दूसरे वंश को हस्तांतरित होता गया। एक चौहान राजपूत विशाल देव द्वारा 1153 मे इसे जीतने के पूर्व लाल कोट पर लगभग एक शताब्दी तक तोमर राजाओं का आधिपत्य रहा। विशाल देव के पौत्र पृथ्वीराज तृतीय या राय पिथोरा ने 1164 ई. मे लाल कोट के चारों ओर विशाल परकोट बनाकर इसका विस्तार किया। यह दिल्ली का तीसरा शहर कहलाता है। और क़िला राय पिथोरा के नाम से जाना गया। कई इतिहासकार इसे दिल्ली के सात शहरों में प्रथम मानते हैं। 1192 की लड़ाई मे मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद ग़ोरी ने पृथ्वीराज की हत्या कर दी। ग़ोरी यहाँ से दौलत लूटकर चले गए और अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को यहाँ का उपशासक नियुक्त कर गए। 1206 मे ग़ोरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने स्वंय को भारत का सुल्तान घोषित कर दिया और लालकोट को अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया। अगली तीन शताब्दियों तक यहाँ छोटे अंतंरालों के साथ सुल्तान वंश का शासन रहा। कुतुबुद्दीन ऐबक ने लाल कोट को एक और महत्त्वपूर्ण स्मारक कुतुब मीनार दिया। यह विजय का स्मारक था और संभवत: एक मस्जिद की मीनार थी लेकिन कुतुबुमीनार के वर्तमान स्वरूप का निर्माण फ़िरोज शाह ने पूरा करवाया, जिसमें उन्होंने संगमरमर के अलंकरण के काम के साथ–साथ दो और मंज़िले बनवाई जिसमे उसकी ऊँचाई 74 मीटर हो गई। एक तरफ से यह भारत मे सुल्तान वंश के गौरवपूर्ण व विजयी आगमन का प्रतीक थी।

ख़लजी शासन (1290-1321) के दौरान दिल्ली पर मंगोल लुटेरों ने आक्रमण कर इसके असुरक्षित उपनगरों को ध्वस्त कर दिया। 1303 में अलाउद्दीन ने इसके चारों ओर 1.7 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में एक नया वृत्ताकार क़िलाबंद शहर बनवाया ताकि मंगोल पुन आक्रमण कर उपनगरों व बगीचों को ध्वस्त न कर सकें।

कुतुब-लाल कोट संकुल के विपरीत जो शहर देहली-ए-कुहना (पुरानी दिल्ली) कहलाता था, प्रारंभ मे लश्कर या लश्करगाह (सैनिक छावनी) के नाम से जाना गया। लाल कोट के साथ जुड़ी इस चारदीवारी से घिरी नगरी को बाद मे सिरी नाम दिया गया तथा इसे ख़लजी राजधानी (दारुल ख़िलाफ़ा) के रूप में जाना गया। इसकी परिधि की दीवार लगभग 1.5 किलोमीटर लंबी थी और उसमे कई मीनार व दरवाजे बने हुए थे। सिरी की गणना आमतौर पर दिल्ली के दूसरे शहर के रूप मे होती है, किंतु यह मुस्लिम विजेताओं द्वारा भारत में स्थापित पहला पूर्णत: नया शहर था।

इस प्रकार 14 वीं शताब्दी की दिल्ली में कुतुबु-लाल कोट संकुल स्थित देहली-ए-कुहना या पुरानी दिल्ली; ग़यासपुर– किलोखड़ी स्थित शहर-ए-नउ या नया शहर और सिरी स्थित दारुल ख़िलाफ़ा या राजधानी सम्मिलित थे। 1321 मे दिल्ली तुग़लक़ों के हाथों में चली गई, क्योंकि ख़लजी वंश के अंतिम शासक की मृत्यु बिना पुरुष उत्तराधिकारी के हो गई थी। 11 तुग़लक़ शासकों ने दिल्ली पर शासन की किया लेकिन वास्तुशिल्प में केवल तीन ने रुचि दिखाई उनमे से प्रत्येक ने दिल्ली त्रिकोण में स्थित वर्तमान शहरी समूह में एक नए शहर का राजधानी के रूप मे निर्माण किया। यह शहर सुल्तानों की सैन्य प्रकृति और सुरक्षा के प्रति तुग़लक़ों की दीवानगी को दर्शाते हैं। पहले एक दुर्ग तथा बाद मे एक शहर के रूप मे विकसित इन राजधानियों मे पहला गयासुद्दीन तुग़लक़ द्वारा निर्मित किलाबंद नगर – दुर्ग तुग़लक़ाबाद (1321-25) था।

मुहम्मद बिन तुग़लक़ (शासनकाल 1325-51) ने एक ऐसी राजधानी की कल्पना की थी, जो साम्राज्य की इनकी योजना को प्रतिबिंबित करे। यह योजना विस्तार की अपेक्षा उसे सुदृढ़ बनाने के लिए थी। सीमा पर आक्रमण अभी रुके नहीं थे, इसलिए उन्होंने कुतुबु दिल्ली, सिरी तथा तुग़लक़ाबाद के चारों ओर एक रक्षा दीवार बनाई और जहाँपनाह नामक एक नये शहर का निर्माण करवाया। अपने निर्माण के शीघ्र बाद ही यह शहर अव्यवस्था का शिकार हो गया। अचानक मुहम्मद तुग़लक़ ने दक्कन में हाल ही में विजित क्षेत्र पर निगरानी रखने के लिए अपनी राजधानी देवगिरी ले जाने का निश्चय किया, जिसका नाम उन्होंने दौलताबाद रखा। 1338 में जहाँपनाह की आबादी को नई राजधानी के लिए कूच करने के आदेश मिले। उजाड़ दिल्ली छोटे–छोटे टुकड़ो में बंट गई और इसके खंडहर नए शहर फ़िरोज़ाबाद के लिए ईटों के भंडार साबित हुए। जो तीसरा और अंतिम तुग़लक़ कालीन शहर था। 1354 में यमुना के किनारे स्थापित यह शहर, सिरी से लगभग 8 किलोमीटर पूर्वोत्तर मे स्थित था। यह शहर यानी पाँचवीं दिल्ली फ़िरोज़ शाह, (1351-88) द्वारा बसाई गई और उन्हीं के नाम से जानी गई।

कहा जाता है कि 14 वीं सदी की दिल्ली मे तुग़लक़ाबाद सैन्य प्रतिष्ठान था, निजामुदीन फ़क़ीरों का इलाक़ा था और उपनगर हौज़ख़ास विद्वानों की बस्ती थी। मंगोल विजय के बाद समरकंद और मध्य एशिया के विश्वविद्यालयों से शिक्षित शरणार्थी दिल्ली मे आ बसे। उच्च शिक्षा के लिए हौज़ख़ास के मदरसे की ख्याति पूरी सल्तनत में फैली हुई थी। [[चित्र:Raj-Ghat-Delhi.jpg|thumb|250px|राजघाट, दिल्ली
Raj Ghat, Delhi|left]] तुग़लक़ों के परवर्ती सैयद (1414-1444) और लोदी (1451-1526) शासकों ने स्वयं को फ़िरोज़ाबाद तक सीमित रखा। उनके शासन काल के दौरान लगातार उपद्रव चलते रहे और उन्हे नए शहर बसाने का समय नहीं मिला। 1526 में भारत के पहले मुग़ल शासक बाबर का प्रवेश हुआ और उन्होंने आगरा को अपनी राजधानी बनाया। 1530 में उनके बेटे हुमायूं गद्दी पर बैठे और उन्होंने 10 संघर्षमय वर्षो तक दिल्ली पर राज किया। 1553 में उन्होंने अपने शासन की स्थापना के उपलक्ष्य में नए शहर दीनपनाह का निर्माण किया इसके लिए बड़ी सावधानी से यमुना के किनारे एक स्थान चुना गया। अब इस शहर का नामोनिशान नहीं है। क्योंकि शेरशाह सूरी ने इसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था।

अगले दो मुग़ल शासकों अकबर और जहाँगीर ने आगरा को राजधानी बनाकर भारत पर शासन करना पसंद किया लेकिन दिल्ली के महत्त्व को समझकर वे बीच–बीच मे दिल्ली आते रहे। 1636 में शाहजहाँ ने अभियंताओं, वास्तुविदों तथा ज्योतिषियों को आगरा व लाहौर के बीच अच्छे जलवायु वाले स्थान के चयन का निर्देश दिया। यमुना के पश्चिमी किनारे पर पुराने क़िले के उत्तर में सुल्तानों की हजरत दिल्ली का चयन किया गया। शाहजहाँ ने यहाँ उर्दू –ए-मौला नामक एक क़िले को केंद्र में रखकर नई राजधानी का निर्माण शुरू करवाया। लाल क़िले के नाम से विख्यात यह क़िला आठ वर्षो में पूर्ण हुआ और 19 अप्रैल 1648 को शाहजहाँ ने अपनी इस नई राजधानी शाहजहाँनाबाद के क़िले में नदी के सामने वाले द्वार से प्रवेश किया। [[चित्र:Akshardham-Temple-Delhi.jpg|thumb|300px|अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली
Akshardham Temple, Delhi]] लाहौर गेट क़िले का भव्य प्रवेशद्वार है। यहाँ से शहर की प्रमुख सड़क शुरू होकर फ़तेहपुरी मस्जिद तक जाती है। 36 मीटर चौड़ी यह सड़क शहर की मुख्य धुरी थी रात को बीच के जलाशय पर पड़ती चंद्रमा की रुपहरी रोशनी ने इस स्थान को चांदनी चौक नाम दिया। यह सड़क दिल्ली का सामारोह स्थल थी। शाहजहां और औरंगजेब यहाँ अपना शाही जुलूस निकालते थे, नादिरशाह और अहमद शाह अब्दाली विद्रोही घुड़सवार के रूप में निकले थे और मराठा व रोहिल्लाओं ने विजय उल्लास मनाया था। ब्रिटिश शासनकाल में जब दिल्ली को ब्रिटिश भारत की राजधानी बनाया गया, तो लॉर्ड हार्डिंग का जुलूस भी इसी मार्ग से निकला था। जामा मस्जिद का निर्माण 1644 में प्रारंभ हुआ और नगर प्राचीर का निर्माण 1651 से 1658 के बीच हुआ ये शहर में बनने वाले अगले महत्त्वपूर्ण स्मारक थे। अर्द्धचंद्राकार आकृति की यह दीवार 8 मीटर ऊँची, 3.5 मीटर चौड़ी व 6 किलोमीटर लंबी थी और यह लगभग 6.4 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को घेरे हुए थी। इस में सात विशाल दरवाजे थे (कश्मीरी, मोरी, काबुनी, लाहौरी, अजमेरी, तुर्कमानी और अकबराबादी) नदी की ओर की दीवार में भी तीन दरवाजे (राजघाट, किलाघाट और निगमबोधघाट) थे। शहर के प्रमुखमार्ग इन द्वारों तक जाते थे। छोटी पहाड़ी पर स्थित शाहजहाँनाबाद की जामा मस्जिद जो बादशाही मस्जिद के नाम से भी जानी जाती थी। भारत की सबसे बड़ी मस्जिद थी। 1662 में दिल्ली में हुए एक भीषण अग्निकांड में 60 हजार और 1716 में भारी वर्षा के कारण मकान ध्वस्त होने से 23 हजार लोग मारे गए थे।

शाहजहाँनाबाद के निर्माण के 10 वर्ष बाद ही शाहजहाँ के पुत्र औरंगज़ेब ने शहर पर कब्ज़ा करके उन्हें आगरा के क़िले में नज़रबंदकर दिया और जुलाई 1658 में स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया। औरंगज़ेब को विरासत में एक सघन और समृद्ध राजधानी मिली थी। लेकिन धीरे– धीरे इस शहर की अवनति शुरू हो गई, क्योंकि इसका नया शासक इसके संस्थापक के विपरीत एकदम भिन्न स्वभाव वाला था। शाहजहाँ ने कला को बढावा दिया और जिंदगी का लुत्फ उठाया औरंगज़ेब इन दोनों से दूर रहते थे। उन्हे शहर को सुदंर बनाने में न तो दिलचस्पी थी। न ही उन्हें इसका अवसर मिला। वह स्थायी रूप से शाहजहाँनाबाद में रहे ही नहीं। उनके उत्तराधिकारियों को एक विभाजित और निर्बल राज्य शासन करने को मिला। फ़ारस के लुटेरे नादिरशाह के जघन्य आक्रमण ने इस शहर पर अंतिम प्रहार किया। [[चित्र:India-gate.jpg|thumb|left|इंडिया गेट, दिल्ली
India Gate, Delhi]] 1803 में अग्रेज़ शासकों ने जब दिल्ली पर कब्ज़ा किया तब यह वाणिज्य एवं व्यवसाय का प्रमुख केंद्र थी, यद्यपि क़िलाबंद शहर भव्य कितु जीर्ण–शीर्ण गंदी बस्ती में बदल चुका था। चारदीवारी क्षेत्र में लगभग एक लाख तीस हज़ार और उपनगरों में लगभग 20 हज़ार लोग रहते है। सुरक्षा और स्थान की द्दष्टि से ब्रिटिश कमांडरों ने ईस्ट इंडिया कपनी के कार्यालय लाल क़िले के आसपास के क्षेत्र में स्थापित किए जो घनी आबादी वाला नहीं था। उत्तरी भाग में रेज़िडेंसी बनाई गई, जहाँ छावनी, अस्तबल, वनस्पति क्षेत्र, शरत्रागार और बारुद भंडार, सीमा शुल्क कार्यालय एक बैंक दो अस्पताल, कुछ बंग़ले तथा एक गिरजाघर भी बनाए गए। नई सैन्य ज़रुरतों के हिसाब से क़िलेबंद मे कुछ परिर्वतन किए गए।

क़िलेबंद शहर से अधिक क्षेत्र मे विस्तृत छावनी को 1828 में पश्चिमोत्तर 'रिज' पर स्थानांतरित किया गया। पहाड़ी के एक ऊँचे स्थल पर पारंपरिक एवं गॉथिक शैली में वैकल्पिक रेज़िडेंसी का निर्माण किया गया, जिसके पश्चात और भी विशाल मैटकॉफ़ हाउस बनाया गया उसका स्वामी बाद में रेज़िडेंट के स्थान पर 'एजेंट ऑफ़ डेल्ही' बना। 1840 के दशक मे छावनी क्षेत्र के आसपास आत्मनिर्भर और सांस्कृतिक रूप से पृथक आवासीय उपनगर का विकास हुआ, जिसे नागरिक क्षेत्र कहा गया। विलियम फ़्रेज़र तथा चाल्स मेट कॉफ़ जैसे दिल्ली के प्रारंभिक अंग्रेज़ शासक यहाँ की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत से सम्मोहित थे मुग़ल राजदरबार को पारंपरिक समारोह को मनाने की अनुमति थी तथा बादशाहों के नाम पर सिक्के ढाले जाते थे। कितु 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात सब कुछ यहाँ तक कि दिल्ली के प्रति ब्रिटिश शासन का रवैया भी बदल गया। विद्रोह के बाद मुग़ल बादशाह बहादुर शाह द्वितीय को रंगून (वर्तमान यागून) निर्वासित कर दिया गया तथा उनके परिवारजन की हत्या कर दी गई। सेना ने राजमहल पर क़ब्ज़ा करके इसे क़िले मे बदल दिया। क़िले के आसपास तथा परकोटे के समीप स्थित 457 मीटर क्षेत्र को सैन्य क्षेत्र घोषित कर दिया और इसके व जामा मस्जिद के बीच की तमाम इमारतें गिराकर मैदान बना दी गईं। काश्मीरी गेट से दरियागंज तक की अधिग्रहित भूमि पर छावनी को पुन: शहर में लाया गया। यह क्षेत्र पूर्व मे चारदीवारी पश्चिम में मैदान (एस्पलेनेड) व नदी के किनारे तक फैला है। क़िलेबंद शहर के एक तिहाई क्षेत्र मे छावनी बस गई। कई यूरोपीय विदेशी शहर से बाहर सिविल लाइंस में चले गए और दरियागंज के निवासी चाँदनी चौक आ गए। [[चित्र:Lotus-Temple.jpg|thumb|300px|लोटस टैंपल, दिल्ली
Lotus Temple, Delhi]] जैसे ही दिल्ली के प्रशासन पर ब्रिटिश ताज का क़ब्ज़ा हुआ, तीन क्रियाशील ‘इकाइयों’ मूल नगर छावनी तथा आमतौर पर सिविल लाइंस कहलाने वाला नगरीय क्षेत्र के साथ इसके भौतिक स्वरूप ने पारंपरिक औपनिवेशिक नगर का रूप ले लिया। धीरे-धीरे दिल्ली का आधुनिकीकरण होने लगा। 1867 में कलकत्ता से दिल्ली के लिए पहली नियमित रेल चली। 1910 तक नगर मे नगरीय निकाय के शासन की स्थापना, जल वितरण और मल– जल निकास प्रणाली, दूरभाष और टेलीग्राफ़ लाइनें तथा बिजली की व्यवस्था हो गई। चाँदनी चौक में विक्टोरिया घंटाघर बनाया गया, यहाँ की नहर पाट दी गई और इसके ऊपर विद्युत ट्राम मार्ग का निर्माण हुआ। 1877 में भारत पर ब्रिटेन के आधिपत्य को दर्शाने के लिए ब्रिटिश महान दरबारों की श्रृंखला के पहले दरबार का आयोजन हुआ। दूसरा दरबार 1903 में एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के उपलक्ष्य में आयोजित हुआ। तीसरा दरबार 1911 में हुआ, जो दिल्ली के लिए एक मोड़ साबित हुआ समारोह के दौरान जॉज वी. ने घोषणा की कि भारत की राजधानी कलकत्ता से पुन: दिल्ली लाई जाएगी। इस निर्णय को राजनीतिक और प्रशासकीय, दोनों आधारों पर सही ठहराया गया।

जनवरी 1912 मे राजनीतिक निर्णय के व्यावहारिक कार्यांवन के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित की गई। प्रसिद्ध वास्तुविद सर एडविन लुटियंस इसके सदस्य थे जिन्होंने अंतत इस शहर को नया स्वरूप दिया। इस समिति ने स्थल चयन का कार्य प्रारंभ किया। समिति ने फसील के दक्षिण में स्थित रायसीना पहाड़ी चुनी जो न तो बहुत दूर थी और न ही बहुत पास। [[चित्र:Jama-Masjid-Delhi.jpg|thumb|250px|left|जामा मस्जिद, दिल्ली
Jama Masjid, Delhi]] दिसंबर 1912 में समिति ने दिल्ली शहर के लिए लुटियंस की योजना को मंजूर कर लिया इस योजना के अनुसार, कलकत्ता के विपरीत वाइसरॉय हाउस, संसद भवन और सचिवालय को एक जगह बनाना था तथा इनका निर्माण इस योजना के केंद्र बिंदु रायसीना पहाड़ी पर नगरकोट (एक्रोपॉलिस) में किया जाना था।

हार्डिंग ने घोषणा की कि नई राजधानी का वास्तुशिल्प पूर्व और पश्चिम शैली का मिलाजुला रूप होगा। वाइसरॉय भवन से मुख्य केंद्रीय मार्ग राजपथ (किंग्सवे) प्रारंभ होता था। जो 3.2 किलोमीटर लंबा था और नदी की ओर जाता था। यह मार्ग बीच मे उत्तर– दक्षिण की ओर अपेक्षाकृत कम भव्य मार्ग से दो भागों में विभाजित होता है। जो क्वींसवे कहलाया। मुख्य मार्ग की समाप्ति एक विजय– तोरण, इंडिया गेट पर होती थी। जो प्रथम विश्व युद्ध में शहीद हुए शूरवीरों की स्मृति का सूचक था। जब यह राजनीतिक स्थित स्पष्ट हो गई कि सत्ता वाइसरॉय से विधान सभा को हस्तांतरित की जानी है, तो लुटियंस के सहयोगी सर हरबर्ट बेकर को संसद भवन की अभिकल्पना तैयार करने के निर्देश दिए गए। बेकर ने गोलाकार भवन का डिजाइन बनाया और इसका स्थान लाल क़िले के पश्चिमोत्तर मे पुराने शहर की ओर जाने वाले मार्ग पर नियत किया गया। एक अन्य गोलाकार भवन वाणिज्यिक केंद्र कनॉट प्लेस मे भी बना, जिसकी अभिकल्पना इंग्लैड के बाथ स्थित एक भवन जैसी है। नई राजधानी का शुभारंभ जनवरी 1931 में हुआ।

नई दिल्ली की सड़क योजना ज्योमितिय सौंदर्यशास्त्र की धारणा पर आधारित है। समग्र योजना मे राजपथ (किंग्सवे) को मुख्य आधार मानकर बनाई गई षट्भुजों की एक श्रंखला और 96 किलोमीटर लंबी मुख्य सड़के हैं। ये षटकोण तीन मार्गों के बीच स्थित थे जो गवर्नर हाउस से निकलकर ऐतिहासिक जामा मस्जिद, इंद्रप्रस्थ और सफ़दरजग के मक़बरे की ओर जाते थे तथा वर्तमान को अतीत से जोड़ते थे। शहर के आवासीय ढांचे की योजना का उदेश्य निवास की सुविधा को व्यवस्थित करना था। जगह-जगह बाग़-बगीचों का निर्माण भी किया गया। [[चित्र:Gurudwara-Bangla-Sahib-Delhi.jpg|thumb|300px|गुरुद्वारा बंगला साहिब, दिल्ली
Gurudwara Bangla Sahib, Delhi]] भारत के तत्कालीन वाइसरॉय बेरन चार्ल्स हार्डिंग चाहते थे कि पुरानी और नई दिल्ली का संयोजन एक हो। उन्होंने निर्देश दिए कि दोनों की योजना एक शहर के रूप में हो न कि दो अलग-अलग शहरों के रूप में किंतु लुटियंस अपने संकीर्ण शहरी सौंदर्यीकरण पर जमे हुए थे। उनकी विराट योजना मे पुरानी दिल्ली महज एक महत्त्वहीन ध्वस्त होता शहरी क्षेत्र था और वह चाहते थे कि उसे ज्यों का त्यों छोड़ दिया जाए। यह पूर्वाग्रह पुरानी दिल्ली के लिए घातक सिद्ध हुआ, जिसे 1941 और 1951 के बीच आए लगभग एक लाख शरणार्थियों को निवास प्रदान करना था। जहाँ नई दिल्ली के निवासी 6-8 व्यक्ति प्रति हेक्टेयर के घनत्व से अपने रहन सहन आदर्श बना रहे थे, वहीं पुरानी दिल्ली 336 से 400 व्यक्ति प्रति हेक्टेयर के बोझ से दबी जा रही थी।

नई और पुरानी दिल्ली के बीच यह विसंगति शुरू से ही योजनाकारों के लिए रुकावट साबित हुई। प्रथम नगर योजना मे दिल्ली को एक गंदी बस्ती के रूप मे चित्रित किया गया और 1980 के दशक में ही जब दूसरी नगर योजना बनी उसे विरासत क्षेत्र के रूप मे कुछ महत्त्व दिया गया। लुटियंस की दिल्ली को सदैव परम पावन क्षेत्र समझा गया और इसकी मूल योजना तथा जनसंख्या में परिर्वतन के सुझावों का जनता एवं योजना दोनों के द्वारा विरोध किया गया। 1970 और 1980 के दशक में डी.डी.ए (दिल्ली विकास प्राधिकरण) ने आवास व्यवसाय पर एकाधिकार कर लिया और वर्तमान शहरी केंद्र के आसपास विशाल भवन संकुल खड़े कर दिये गए। उच्च आय, मध्य आय और निम्न आय वर्ग के समूहों के आधार पर आवास उपलब्ध कराए गए। जो इस आय वर्ग से बाहर थे, वे अनाधिकृत बस्तियों या झुग्गी झोपड़ियों (गंदी बस्तियों) में इफ़ाज़ा कर रहे हैं। जो अब जे.जे कॉलोनी जानी जाती है। 567 अनाधिकृत बस्तियाँ राजनीतिक दबाव में वैध घोषित की जा चुकी हैं। दिल्ली की आबादी के उमड़ते सैलाब को यमुना के पूर्वी तट पर बसाया गया है। जहाँ धीरे-धीरे एक अलग ही दिल्ली आकार ले रही है। कई बड़े बाज़ार आवासीय भवन और धनाढ्य लोगों की कोठियाँ शहर की दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तरी परिधि में बनाई जा चुकी है।

प्राचीन नगरों में गणना

दिल्ली की संसार के प्राचीन नगरों में गणना की जाती है। महाभारत के अनुसार दिल्ली को पहली बार पांडवों ने इंद्रप्रस्थ नाम से बसाया था[1] किंतु आधुनिक विद्दानों का मत है कि दिल्ली के आसपास उदाहरणार्थ रोपड़ (पंजाब) के निकट सिंधु घाटी सभ्यता के चिन्ह प्राप्त हुए हैं। और पुराने क़िले के निम्नतम खंडहरों में आदिम दिल्ली के अवशेष मिलें तो कोई आश्चर्य नहीं वास्तव में देश में अपनी मध्यवर्ती स्थिति के कारण तथा उत्तरपश्चिम से भारत के चतुर्दिक भागों को जाने वाले मार्गों के केंद्र पर बसी होने से दिल्ली भारतीय इतिहास में अनेक साम्राज्यों की राजधानी रही है। [[चित्र:Humayun's-Tomb-Delhi.jpg|thumb|300px|left|हुमायूँ का मक़बरा, दिल्ली
Humayun's Tomb, Delhi]] महाभारत के युग में कुरुप्रदेश की राजधानी हस्तिनापुर थी। इसी काल में पांडवो ने अपनी राजधानी इंद्रप्रस्थ में बनाई।

जातकों के अनुसार इंद्रप्रस्थ सात कोस के घेरे में बसा हुआ था। पांडवों के वंशजों की राजधानी इंद्रप्रस्थ में कब तक रही यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता किंतु पुराणों के साक्ष्य के अनुसार परीक्षित तथा जनमेजय के उत्तराधिकारियों ने हस्तिनापुर में भी बहुत समय तक अपनी राजधानी रखी थी और इन्हीं के वंशज निचक्षु ने हस्तिनापुर के गंगा में बह जाने पर अपनी नई राजधानी प्रयाग के निकट कौशाम्बी में बनाई[2] मौर्य काल में दिल्ली या इंद्रप्रस्थ का कोई विशेष महत्त्व न था क्योंकि राजनैतिक शक्ति का केंद्र इस समय मगध में था। बौद्ध धर्म का जन्म तथा विकास भी उत्तरी भारत के इसी भाग तथा पाश्रर्ववर्ती प्रदेश में हुआ इसी कारण बौद्ध-धर्म की प्रतिष्ठा बढने के साथ ही भारत की राजनीतिक सत्ता भी इसी भाग (पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार) में केंद्रित रही। मौर्यकाल के पश्चात लगभग 13 सौ वर्ष तक दिल्ली और उसके आसपास का प्रदेश अपेक्षाकृत महत्त्वहीन बना रहा। हर्ष के साम्राज्य के छिन्न भिन्न होने के पश्चात उत्तरीभारत में अनेक छोटी मोटी राजपूत रियासतें बन गईं और इन्हीं में 12 वीं शती में पृथ्वीराज चौहान की भी एक रियासत थी जिसकी राजधानी दिल्ली बनी। दिल्ली के जिस भाग में कुतुब मीनार है वह अथवा महरौली का निकटवर्ती प्रदेश ही पृथ्वीराज के समय की दिल्ली है। वर्तमान जोगमाया का मंदिर मूल रूप से इन्हीं चौहान नरेश का बनवाया हुआ कहा जाता है। एक प्राचीन जनश्रुति के अनुसार चौहानों ने दिल्ली को तोमरों से लिया था जैसा कि 1327 ई. के एक अभिलेख से सूचित होता है[3] यह भी कहा जाता है कि चौथी शती ई. में अनंगपाल तोमर ने दिल्ली की स्थापना की थी। इन्होने इंद्रप्रस्थ के क़िले के खंडहरों पर ही अपना क़िला बनवाया।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (देखिए: इंद्रप्रस्थ)
  2. (देखिए: पार्जिटर, डायनेस्टीज़ ऑव दिकलि एज –पृष्ठ 5)
  3. देशोस्ति हरियानाख्य: पृथिव्यां स्वर्गसन्निभ: ढिलिकाख्या पुरी यत्र तोमरैरस्ति निर्मिता। चाहमाना नृपास्तत्र राज्यं निहितकंटकम तोमरातरं चत्र्कु:प्रजापालनतत्परा:

संबंधित लेख